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बुधवार, 30 नवंबर 2011

2012 - एक पुराना मजाक !


साल 2011 अब अपने आखिरी महीने में आगे खिसक रहा है, और इसी के साथ 2012 में दुनिया के अंत की बातें भी रोजाना की बतकही में बार-बार लौट रही हैं। लोग एक रोमांचक मजाक के तौर पर इसका जिक्र करते हैं, लेकिन अगर वे अंदर से यकीन न कर रहे होते तो बात उनकी जुबान पर नहीं आती। कितना यकीन? आप कहेंगे 20 पर्सेंट। हो सकता है कोई 80 पर्सेंट तक भी जा पहुंचे। लेकिन मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि 100 पर्सेंट यकीन का हलफनामा कोई नहीं देगा।
कोई नहीं, क्योंकि हम हंड्रेड पर्सेंट यकीन करते ही नहीं। न 2012 पर, न भाग्य पर और न ही ईश्वर पर। इंसान की यही बेहद दिलचस्प खामी या खासियत है कि वह यकीन पर भी पूरा यकीन नहीं करता। वह यकीन पर भी शक करता है। वैज्ञानिक प्रक्रिया और वैज्ञानिक खोजों का आधार भी यही है। एक वैज्ञानिक अपने सिद्धांत पर खुद ही शक करता है और इसीलिए प्रयोगों और प्रेक्षणों के जरिए इसकी बार-बार पुष्टि करने के लिए वो दूसरे वैज्ञानिकों को आमंत्रित करता है। इस तरह जब हर बार अलग-अलग प्रयोगों से भी एक ही नतीजा निकलता है, तभी उसे वैज्ञानिक सिद्धांत या नई खोज का दर्जा दिया जाता है। अपने यकीन पर शक की इसी विशेषता से आदिम युग से निकलकर मानव अब विकास की नई सीढ़ियां चढ़ रहा है।
कोई एलियन धरती पर आए, इंसान के दिमाग में झांके तो उसे हैरानी होगी। शायद वह इसे सबसे बड़ा रहस्य मान बैठे। लॉजिक तो यही कहता है अगर आप ईश्वर पर यकीन करते हैं, मानते हैं कि उसी ने दुनिया बनाई और आपको इसमें एक रोल निभाने भेजा, तो फिर आपके जीवन में चिंता मिट जानी चाहिए। अगर यह सब माया है तो फिर इसे लेकर उलझने का सवाल पैदा नहीं होता। ईश्वर ने मुझे अपनी वजहों से बनाया है, वही मेरा नियंता है, तो मैं क्यों खुद को कर्ता समझूं और क्यों उन दुखों से गुजरूं जो मेरे आसपास पैदा होते रहते हैं। एक बार ईश्वर पर यकीन हो जाने के बाद इस नतीजे तक पहुंचने में क्या देर हो सकती है।
यही बात भाग्यवाद पर भी लागू होती है। अगर सब कुछ पहले से तय है और मैं महज एक मोहरा हूं तो मैं संसार को लेकर क्यों परेशान होता रहूं। जो हो रहा है, वह होना था और जी होगा, वह भी। यहां तक कि जो मैं करता हूं वह भी डिवाइन स्क्रिप्ट के मुताबिक है। भाग्यवाद के इस अंजाम तक पहुंचने में क्या दिक्कत हो सकती है।
लेकिन हम इंसान हैं। हम ईश्वर पर यकीन के बाद उससे आंख चुराने के रास्ते खोज लेते हैं। हम भाग्यवाद की दुहाई देने के अगले पल संसार को चैलेंज करने निकल पड़ते हैं। खुदा के दरबार में भी हम अपने कुर्ते के भीतर ईगो की मिसाइल छिपाए रखने की नाकाम कोशिश करते हैं। जैसे हम भगवान के केयरटेकर हों, हम यह भी खुद तय कर लेते हैं कि वह अंतर्यामी, त्रिकालदर्शी अक्सर अपने बंदों की तरफ नहीं देख रहा होता है और उसी समय मुसीबत टूट पड़ती है, लिहाजा उसका ध्यान खींचते रहना जरूरी है। और देखिए कि हमें उसके सामने धमक कर ऐलान करना पड़ जाता है, खुश तो तुम बहुत होगे आज...
इसलिए मैंने 2012 के खौफ में जी रहा कोई शख्स अब तक नहीं देखा, जिसने अपनी तिकड़मों और दंद-फंद को इन आखिरी दिनों में आराम दे दिया हो। कोई नहीं देखा, जिसने 2013 के लिए तैयारियां करनी और उन्हें लेकर परेशान होना मुल्तवी कर दिया हो। धर्म, परलोक, जादू और चमत्कारों की दुहाई देने वाले भी अपने सगों से विदाई लेते नहीं दिखते।
वे दिखेंगे भी नहीं। वरना तो दूध पीने वाले गणेश जी के इस देश में उस चमत्कार के बाद अधर्म के लिए जगह बचनी ही नहीं चाहिए थी। दूध पी लेने से ज्यादा कोई ईश्वर अपने होने की और क्या गारंटी दे सकता है। क्या हम चाहते हैं कि वह हमारे सामने साक्षात प्रकट हो, हमें झापड़ मारे और कहे मैं हूं, सुप्रीम कोर्ट में जाए और खुद के होने को साबित कर दे। क्या ईश्वर के साक्षात दर्शन कर लेने के बाद भी सांसारिकता बची रह सकती है?
बची रह सकती है। रहेगी ही। क्योंकि हम तो ऐसे ही हैं। हम अधूरे हैं। हमारा यकीन अधूरा है। इसलिए कि हमें अपने यकीन पर ही यकीन नहीं है। हम अधूरे धार्मिक, अधूरे भाग्यवादी हैं। विश्वास का यह अधूरा सफर बहुत सी उलझनों को जन्म देता है। यह एक अनिश्चित दिमाग का संकेत है, जो कई भ्रमों में अपनी एनर्जी को भटकाए रखता है, ऐसी स्थितियों के बीच झूलता है, जो किसी अंजाम तक नहीं पहुंचतीं, फैंटेसी में सिर छिपाता है, उसी में जीने लगता है और दुश्वारियों को जन्म देता है। मानसिक बीमारियों, जादू, टोने और प्रेत बाधा से परेशान करोड़ों लोगों पर नजर डालिए।
लेकिन कुछ और नुक्ते हैं। क्या धर्म भी एक परीकथा है जो इंसान ने खुद को राहत देने के लिए रची है और इस परीकथा के भीतर-बाहर होने का हक उसने अपने लिए रिजर्व रखा है। या फिर यह तो नहीं कि अधूरा यकीन इंसान की बुनियादी फितरत हो। यह फितरत उसे यकीन पर सवाल उठाने की, परंपरा तोड़ने की और नया गढ़ने की ताकत देती हो। यही फितरत उसकी आजादी हो, क्योंकि वही आजादी ईश्वर के हजार चेहरे गढ़ने, ईश्वर की बातों को नए-नए मतलब देने और उन मतलबों पर आपस में लड़ मरने का मजा देती है। महाभारत में ठीक ही कह दिया गया है- इंसान सबसे बड़ा है, उससे बड़ा कुछ नहीं। इसके अलावा कहा भी क्या जा सकता था?

साभार - संजय खाती

शुक्रवार, 25 नवंबर 2011

धरती से दूर जिंदगी की संभावना?


दूसरे ग्रहों पर जीवन की संभावनाओं पर काम कर रहे वैज्ञानिकों ने एक सूची तैयार की है कि किन ग्रहों और किन चंद्रमाओं पर जीवन के लिए मददगार माहौल होने की संभावना सबसे ज्यादा है इस लिस्ट के मुताबिक हमारे सौरमंडल के शनि ग्रह का चंद्रमा टाइटन और हमारे सौर मंडल से बाहर का एक ग्रह 'ग्लीज़ 581जी' में जीवन के किसी स्वरूप के मौजूद होने या फिर जीवन के फलने-फूलने के लिए मददगार माहौल के होने की संभावना सबसे ज्यादा हो सकती है।
वैज्ञानिकों की एक अंतरराष्ट्रीय टीम ने दूसरे ग्रहों में जीवन की संभावना के लिए दो तरह की सूची तैयार की है। एक सूची उन ग्रहों और चंद्रमाओं की है जो भौगोलिक रूप से पृथ्वी जैसे हैं इसे 'अर्थ सिमिलरिटी इंडेक्स (ईएसआई)' का नाम दिया गया। दूसरी सूची उन ग्रहों-चंद्रमाओं की है जहां जीवन पनपने की संभावना सबसे ज्यादा है, इसे 'प्लैनेटरी हैबिटैबिलिटी इंडेक्स (पीएचआई)' का नाम दिया गया है। ये रिसर्च पेपर एस्ट्रोबायोलॉजी के एक जर्नल में प्रकाशित हुआ है।
इस शोधपत्र के सहलेखक, अमेरिका की वॉशिंगटन स्टेट यूनिवर्सिटी के डॉ डिर्क शुल्ज़ माकश कहते हैं, "चूंकि हम अपने अनुभवों से जानते हैं कि पृथ्वी जैसी परिस्थितियां हों तो वहां जीवन पनप सकता है, इसलिए पहला सवाल ये था कि क्या किसी और दुनिया में पृथ्वी जैसी परिस्थितियां हैं?"
डॉ.शुल्ज कहते हैं, "दूसरा सवाल ये था कि किसी और सौरमंडल में क्या कोई ऐसा ग्रह है जहां ऐसा मौसम है कि वहाँ किसी और रूप में जीवन पनप सकता है, चाहे उसकी जानकारी हमें हो या हो।" लिस्ट की पहली श्रेणी ईएसआई में उन ग्रहों को रखा गया जो पृथ्वी की तरह हैं, इसमें उनके आकार, घनत्व और अपने सितारे से उनकी दूरी को ध्यान में रखा गया। जबकि दूसरी सूची यानी पीएचआई में दूसरे पैमाने रखे गए, जैसे कि उस दुनिया का मौसम कैसा है? उसकी सतह चट्टानी है या बर्फ़ीली? वहां वायुमंडल है या चुंबकीय क्षेत्र? वैज्ञानिकों ने अपने शोध में ये भी अध्ययन किया कि क्या उस ग्रह या चंद्रमा में कोई कार्बनिक यौगिक पदार्थ मौजूद है या कोई ऐसा तरल पदार्थ मौजूद है जो व्यापक रासायनिक क्रिया करने में सक्षम हो?
ईएसआई यानी पृथ्वी से समानता वाली सूची में सबसे अधिक अंक 1.00 दिया गया, जो कि ज़ाहिर तौर पर पृथ्वी के लिए था लेकिन दूसरे नंबर पर ग्लीज़ 581जी आया जिसे 0.89 अंक मिले। इसके बाद इससे मिलता जुलता ही एक ग्रह ग्लीज़ 581डी आया जिसे 0.74 अंक मिले। ये दुनिया हमारी धरती से करीब 20.5 प्रकाश वर्ष दूर है। हमारे अपने सौर मंडल में जिन ग्रहों को सबसे ज़्यादा अंक मिले उनमें मंगल (0.70 अंक) और बुध (0.60 अंक) हैं। जबकि उन ग्रहों या चंद्रमाओं में जो पृथ्वी की तरह तो नहीं हैं लेकिन फिर भी वहां जीवन हो सकता है, सबसे अधिक 0.64 अंक मिले शनि के चंद्रमा टाइटन को, दूसरे मंगल (0.59 अंक) को और तीसरे बृहस्पति (0.47 अंक) को।
नासा के स्पेस टेलिस्कोप केप्लर ने अब तक एक हज़ार ऐसे ग्रहों या चंद्रमाओं का पता लगाया है जहां जीवन पनपने की संभावना हो सकती है। उनका कहना है कि भविष्य में जो टेलिस्कोप बनेंगे, उनमें ये क्षमता भी होगी कि वह किसी ग्रह में जैविक पदार्थों से निकलने वाली रौशनी को पहचान सके। उदाहरण के तौर पर क्लोरोफ़िल की उपस्थिति जो किसी भी पेड़-पौधे में मौजूद अहम तत्व होता है।

पृथ्वी से समानता सूचकांक

पृथ्वी -                1.00
ग्लीज़ 581जी -    8.89
ग्लीज़ 581डी -     0.74
ग्लीज़ 581सी -    0.70
मंगल -                0.70
बुध -                   0.60
एचडी 69830 -     0.60
55 सीएनसी सी - 0.56
चंद्रमा -               0.56
ग्लीज़ 581 -      0.53

जीवन पनपने की संभावना सूचकांक

टाइटन -             0.64
मंगल -               0.59
यूरोपा -              0.49
ग्लीज़ 581जी -   0.45
ग्लीज़ 581डी -    0.43
ग्लीज़ 581सी -   0.41
वृहस्पति -          0.37
शनि -                0.37
शुक्र -                 0.37
एन्सेलैड्स -       0.35