17 वीं सदी में महान वैज्ञानिक इसाक न्यूटन ने एक ऐसा प्रयोग किया जिसने साइंस की धारा ही बदल दी। उन्होंने अपनी प्रयोगशाला के सभी खिड़की दरवाजे बंद कर दिए। फिरभी प्रयोगशाला में पूरा अंधेरा नहीं हो सका, क्योंकि खिड़की की एक दरार से सूरज की किरण भीतर आ रही थी। न्यूटन ने मुस्कराते हुए शीशे का एक छोटा प्रिज्म उठाया और उसे सूरज की उस किरण के सामने ले गए। एक जादू सा हो गया और सूरज की रोशनी का रहस्य सामने आ गया। सामने रखे एक सफेद बोर्ड पर इंद्रधनुष खिल उठा, दरअसल शीशे के प्रिज्म ने सूरज की रोशनी में मौजूद सात उन रंगों को अलग कर दिया था। हमारी आंख जो कुछ भी देखती है वो इन सात रंगों की सीमा में ही सिमटा रहता है। न्यूटन ने सूरज की रोशनी में छिपे इन सात रंगों को स्पेक्ट्रम कहा, और फिजिक्स में एक नई शुरुआत हो गई।
हमारा सूरज और एक साधारण अणु ये दोनों ही स्पेक्ट्रम के प्राकृतिक स्रोत हैं। आज स्पेक्ट्रम का इस्तेमाल हम हर रोज जाने-अनजाने करते रहते हैं, टीवी के रिमोट से लेकर लैपटॉप पर वॉयरलेस इंटरनेट, माइक्रोवेव ओवेन, खिली-खिली धूप और मोबाइल फोन तक सब स्पेक्ट्रम का ही कमाल है। न्यूटन ने हमें स्पेक्ट्रम के गुण के बारे में बताया लेकिन स्पेक्ट्रम की वजह को गहराई से समझा महान भारतीय वैज्ञानिक सर सी.वी. रमन ने। रमन ने अगर इलेक्ट्रोमैग्नेटिक स्पेक्ट्रम का राज नहीं समझा होता तो आज न तो रिमोट होता और न मोबाइल फोन। हर अणु परमाणुओं सो बनता है और हर परमाणु के केंद्र में एक नाभिक होता है, जिसमें प्रोटान और न्यूट्रॉन होते हैं और अलग-अलग कक्षाओं में परिक्रमा करते इलेक्ट्रान चारों ओर से नाभिक को घेरे रहते हैं। अब शुरू होता है असली खेल, जब परमाणु को गर्म किया जाता है तो नाभिक की परिक्रमा करते इलेक्ट्रान अपनी कक्षा से छलांग लगाकर और ऊपर वाली कक्षा में पहुंच जाते हैं। इसी तरह जब परमाणु को ठंडा किया जाता है तो नाभिक की परिक्रमा कर रहे इलेक्ट्रान निचली कक्षाओं में गिर जाते हैं। सबसे खास बात ये कि नाभिक के चारोंओर घूमता इलेक्ट्रान जब भी अपनी कक्षा से ऊपर छलांग लगाता है या नीचे गिरता है, उस वक्त वो खास स्पेक्ट्रम छोड़ता है। इसे कहते हैं इलेक्ट्रोमैग्नेटिक स्पेक्ट्रम। रमन ने पता लगाया कि कुदरत में मौजूद सभी धातुओं, खनिजों, गैसों और तरल का स्पेक्ट्रम बिल्कुल अलग-अलग होता है। ये स्पेक्ट्रम बिल्कुल उंगलियों के निशान जैसा होता है यानि हर तत्व का स्पेक्ट्रम बिल्कुल अलग और अनोखा। इस खोज के लिए रमन को भौतिकी के नोबेल से सम्मानित किया गया और तत्वों से निकलने वाले स्पेक्ट्रम को रमन इफेक्ट कहा गया। आज रमन इफेक्ट से ही हम चंद्रमा और मंगल ग्रह मौजूद खनिजों का पता लगा रहे हैं, और खोजे जा रहे नए ग्रहों के बारे में यहीं बैठे-बैठे बता सकते हैं कि वहां पानी है या नहीं, या उसका वातवरण कैसा है।
इलेक्ट्रोमैगनेटिक रेडिएशन की वजह जानने के बाद अब मनचाही स्पेक्ट्रम को हासिल करना आसान हो गया, और यहीं से स्पेक्ट्रम के कारोबारी इस्तेमाल की शुरुआत हुई। फ्रीक्वेंसी और वेवलेंथ हर इलेक्ट्रोमैग्नेटिक रेडिएशन की खास पहचान होती है, और इसी के आधार पर इलेक्ट्रोमैग्नेटिक रेडिएशन को रेडियो, माइक्रोवेव, इंफ्रारेड, विजिबिल, अल्ट्रावॉयलेट, एक्स-रे और गामा-रे की पहचान की गई। ये सारी स्पेक्ट्रम, जिन्हें हम रेडिएशन भी कह सकते हैं, इनमें से कुछ हमें कोई नुकसान नहीं पहुंचाती और हमारे बेहद काम की हैं, जैसे रेडियो जिससे हम टीवी के प्रोग्राम्स देखते हैं, माइक्रोवेव जिससे सेटेलाइट संचार और ओवन से लेकर मोबाइल फोन तक काम करते हैं और इंफ्रारेड जिसपर सभी रिमोट काम करते हैं। समुद्र के किनारे की धूप में 53 फीसदी इन्फ्रारेड, 44 फीसदी दिखाई देने वाली रोशनी और 3 फीसदी अल्ट्रावॉयलेट किरणें होती हैं। अल्ट्रावॉयलेट, एक्स-रे और गामा-रे स्पेक्ट्रम बेहद खतरनाक हैं और इनके संपर्क में कुछ देर रहने से ही हम बीमार पड़ सकते हैं।
मोबाइल, सेटेलाइट और टेलीविजन इन तीनों में माइक्रोवेव और रेडियो इलेक्ट्रोमैग्नेटिक स्पेक्ट्रम का इस्तेमाल किया जाता है। अब सवाल ये कि आखिर इसका कारोबारी इस्तेमाल कैसे होता है? दरअसल किसी स्पेक्ट्रम का कारोबारी इस्तेमाल इन बातों से तय होता है कि उसकी तरंग की लंबाई कितनी है, उसकी फ्रिक्वेंसी (वेवलेंथ या साइकल प्रति सेकंड) क्या है और वो कितनी ऊर्जा कितनी दूर तक साथ ले जा सकती है।
रेडियो वेव स्पेक्ट्रम से लंबी दूरी तय की जा सकती हैं और वह भी बिना किसी दिक्कत के। रेडियो वेव स्पेक्ट्रम की तरंगें काफी लंबी होती हैं। इनकी वेवलेंथ 1 किलोमीटर से लेकर 10 सेंटीमीटर तक की होती है और फ्रिक्वेंसी भी 3 किलोहट्र्ज (3,000 साइकिल प्रति सेकंड) से लेकर 3 गीगाहट्र्ज (3 अरब साइकिल प्रति सेकेंड) तक के बीच होती है। रेडियो तरंगों को सबसे ज्यादा असर भाप और आयन से होता है। साथ ही, इन पर सोलर फ्लेयर और एक्सरे किरणों के विस्फोट का भी असर होता है। साथ ही, पहाड़ों की वजह से भी रेडियो तरंगों से संचार में काफी असर पड़ सकता है। छोटी फ्रिक्वेंसी मकानों और पेड़ों को भी पार कर सकती हैं। साथ ही, ये पहाड़ों के किनारे से भी निकल सकती हैं।
माइक्रोवेव स्पेक्ट्रम का सबसे फायदेमंद इस्तेमाल दूरसंचार और इंटरनेट में होता है। दूरसंचार और ब्रॉडबैंड के लिए 700-900 मेगाहट्र्ज की छोटी फ्रिक्वेंसी काफी फायदेमंद होती हैं। सेंटीमीटर और मिलीमीटर की रेंज वाली माइक्रोवेव्स की फ्रिक्वेंसी 300 गीगाहट्र्ज तक हो सकती है। इसके अलग-अलग प्रकार के इस्तेमाल को देखते हुए इसे अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है। खाना पकाने वाले माइक्रोवेव में सैकड़ों वॉट बिजली का इस्तेमाल आरएफ वेवलेंथ को पैदा करने में होता है। ये वेवलेंथ 32 सेमी (915 मेगाहट्र्ज) से लेकर 12 सेमी (2.45 मेगाहट्र्ज) तक के होते हैं। छोटी ऊर्जा स्रोतों वाले उपकरणों से पैदा होने वाले माइक्रोवेव का इस्तेमाल संचार के साधनों के रूप में होता है और ये काफी कम ऊर्जा पैदा करते हैं। इन्फ्रारेड वेव छोटी होती हैं और वे काफी गर्म होती हैं। लंबी दूरी वाले इन्फ्रारेड बैंड्स का इस्तेमाल रिमोट कंट्रोल के लिए होता है। साथ ही, इनका इस्तेमाल बहुत कम गर्मी पैदा करने वाले बल्बों में होता है।
किस स्पेक्ट्रम पर हम बात करेंगे और किस स्पेक्ट्रम पर सेटेलाइट डेटा भेजे जाएंगे, इस जैसे तमाम मुद्दों की बागडोर संभाल रखी है इंटरनेशनल कम्युनिकेशन यूनियन ने। संयु्क्त राष्ट्र की इस इकाई ने सभी सदस्य देशों को अलग-अलग स्पेक्ट्रम के बैंड्स आवंटित कर रखे हैं। इसमें कोई देश मनमानी या एक-दूसरे के कामकाज में बाधा नहीं पहुंचा सकता। इन नियमों के तहत 1980 में 1-जी यानि फर्स्ट जनरेशन वायरलेस टेक्नोलॉजी की शुरुआत हुई, पहले पहल जिसका इस्तेमाल कार फोन में किया गया। 2-जी यानी सेकेंड जनरेशन वायरलेस टेलीफोन टेक्नोलॉजी की शुरुआत 1990 में हुई। 1991 में पहली बार फिनलैंड में रेडियोलिंजा कंपनी की ओर से जीएसएम मोबाइल सर्विस में 2-जी टेक्नोलॉजी का कारोबारी इस्तेमाल शुरू हुआ। डाटा ट्रांसफरिंग, टेक्स विथ रेडियो सिग्नल्स आदि सुविधाओं से हुई शुरुआत में जल्दी ही सीडीएमए का प्रवेश भी हो गया। अब आ गई है बारी 3-जी यानि थर्ड जनरेशन मोबाइल टेक्नोलॉजी की। 3-जी में डाटा का हस्तांतरण तेजी से होता है और नेटवर्क भी अच्छा होता है। 2जी स्पेक्ट्रम की बात करें तो ये हमारी सरकार के पास इंटरनेशनल टेलीकम्युनिकेशंस यूनियन से आवंटित एक खास रेडियो वेव बैंड है। सिग्नल भेजने के लिए मोबाइल कंपनियों को फ्रिक्वेंसी रेंज की जरूरत थी। सरकार ने लाइसेंस फी लेकर स्पेक्ट्रम मोबाइल सर्विस प्रोवाइडर्स को जारी किए।
खास बात ये कि 2-जी और 3-जी के स्पेक्ट्रम में कोई खास अंतर नहीं है। बस सरकार के नियमन और इंटरनेशनल टेलीकम्युनिकेशंस यूनियन ने सदस्य देशों के बीच बेहतर तारतम्यता के तहत इसके लिए अलग स्पेक्ट्रम घोषित किया गया है। दोनों नेटवर्क 800-900 और 1800-1900 मेगाहट्र्ज पर काम करते हैं और कर सकते हैं। कमाई में इजाफे को देखते हुए अनुमानों के मुताबिक 900 मेगाहट्र्ज के 3जी में 2.1 गीगाहट्र्ज से कम लागत लगती है। फिनलैंड, आइसलैंड, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, थाईलैंड, वेनुजुएला, डेनमार्क और स्वीडन में तो 900 मेगाहट्र्ज (2जी स्पेक्ट्रम) पर ही 3जी नेटवर्क मौजूद है। फ्रांस भी अब 2जी की जगह 3जी को बढ़ावा दे रहा है। इससे पता चलता है कि भारत में सरकारी और रक्षा इस्तेमालों की वजह से स्पेक्ट्रम की कितनी ज्यादा किल्लत है। हमें अपनी जरूरतों, लैंडलाइन फोनों की कम पहुंच और लागत को देखते हुए अपनी क्षमता के विस्तार के नए तरीकों की तलाश करनी होगी। दूसरे मुल्कों में कंपनियां इस स्पेक्ट्रम का अपनी इच्छा के मुताबिक इस्तेमाल करने के लिए मुक्त हैं, जबकि अपने मुल्क में इस बारे में कोई तस्वीर ही स्पष्ट नहीं है। हमारी नीतियों कम कीमत पर ज्यादा अच्छी कवरेज या क्षमता के बारे में स्थिति को स्पष्ट कर सकती हैं। इससे लोगों को कम कीमत पर अच्छी सेवा मिलेगी।
बहुत अच्छी जानकारी है।
जवाब देंहटाएंwoww.....my doubt is clear
हटाएंthanks so much
Thanks
जवाब देंहटाएंThanks a lot
जवाब देंहटाएंThanks
जवाब देंहटाएंThanks sir
जवाब देंहटाएंThanks
जवाब देंहटाएंBahut achchhi bat hai
जवाब देंहटाएंबहुत ही उम्दा जानकारी आज के नये जेनरेशन के लिये।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यबाद !