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शनिवार, 31 जुलाई 2010
'उनको' मनाइए चंद्रमा के फूल से!
आने वाले कल में आप ये सब वाकई कर पाएंगे, क्योंकि चंद्रमा के अध्ययन में जुटे विशेषज्ञों ने सिफारिश की है कि भविष्य में चंद्रमा पर जाने वाले अभियानों का मुख्य मकसद 'चंद्रमा पर खेती' की शुरुआत करना होना चाहिए। इन चंद्र-वैज्ञानिकों का मानना है कि चंद्रमा की धूल से बेशकीमती तत्व हासिल करने में पेड़-पौधे हमारी सबसे ज्यादा मदद कर सकते हैं।
नासा के अपोलो कार्यक्रम के दौरान चंद्रमा से लाए गए धूल और मिट्टी के नमूनों के परीक्षण से साबित हो चुका है कि चंद्रमा की धूल में कोई भी ऐसा जहरीला तत्व मौजूद नहीं है, जो मानवों, जानवरों या फिर पेड़-पौधों के लिए किसी भी तरह से नुकसानदेह हो। अपोलो कार्यक्रम के दौरान एक खास मिशन शुरू किया गया था, जिसका मकसद ये जानना था कि चंद्रमा की मिट्टी पाकर पेड़-पौधे किस तरह की प्रतिक्रिया करते हैं? लेकिन अपोलो मिशन के साथ ही ये कार्यक्रम भी बीच में ही बंद कर दिया गया। अब यूनिवर्सिटी आफ फ्लोरिडा फिर से इस कार्यक्रम की शुरुआत कर रही है। वैज्ञानिकों की दिलचस्पी ये जानने में है कि पौधे चंद्रमा की मिट्टी से पोषक तत्व किस तरह से लेते हैं?
सोमवार, 19 जुलाई 2010
'मानव का ये छोटा सा कदम, संपूर्ण मानवता की बहुत बड़ी छलांग है'
20 जुलाई को चंद्रमा पर पहले मानव मिशन की 41वीं वर्षगांठ है। इस अवसर पर 'वॉयेजर' की दो विशेष प्रस्तुतियां -
मुझे याद है, जब मैं छोटा बच्चा था तो लकड़ी के एयरक्राफ्ट बनाया करता था। हवा में उड़ते और कलाबाजियां खाते प्लेन्स की वो तस्वीर मेरे दिमाग में अब भी ताजा है, जिन्हें मैंने बचपन में अपने पिता के साथ एयरशो में देखा था। हम सभी वाकई बड़े खुशनसीब हैं, कि कुदरत ने हमारे लिए वक्त का ऐसा दौर चुना जब इतिहास मानव जाति की तकदीर का फैसला कर रहा था। मैं उन सब लोगों का शुक्रिया अदा करता हूं, जिनकी मेहनत और लगन की वजह से अपोलो-11 कार्यक्रम मुमकिन हो सका और हम सब इतिहास के उस गौरवशाली पन्ने पर अपनी मौजूदगी दर्ज करा सके।
मिशन अपोलो-11 नासा के अंतरिक्ष अभियानों के इतिहास का सबसे ज्यादा प्रचारित अभियान था। इसे लेकर लोगों की अपेक्षाएं बुलंदी पर थीं। अकसर लोग मुझसे पूछते हैं कि अभियान की तैयारी के दौरान मीडिया हाइप और लोगों की अपेक्षाओं को लेकर क्या मैं किसी तरह के मानसिक दबाव से गुजर रहा था? इसका जवाब मैं आज देता हूं, हमारे अभियान को लेकर बाहर की तमाम हलचल से मैंने पीठ मोड़ ली थी। मेरा पूरा ध्यान उन तीन से चार लाख लोगों की मिलीजुली मेहनत पर था, जो इस मिशन को कामयाब बनाने के लिए दिन-रात काम में जुटे थे।
मिशन की तैयारी के दौरान विचार-विमर्श का एक लंबा दौर इस बात को लेकर भी चला कि चंद्रमा पर पहुंचकर हम क्या-क्या करेंगे। तमाम लोगों ने अपने-अपने सुझाव दिए। कुछ का कहना था कि हमें वहां यूनाईटेड नेशंस का झंडा लगाना चाहिए। तो वहीं कुछ लोग चाह रहे थे कि चंद्रमा पर कई देशों के छोटे-छोटे झंडे वहां लगाए जाएं। आखिर में ये फैसला लिया गया और मुझे लगता है कि कांग्रेस ने भी इसमें अपनी भूमिका निभाई कि अपोलो-11 कोई यूनाईटेड नेशंस का मिशन नहीं था और हम कोई वहां किसी मालिकाना हक का दावा करने नहीं जा रहे थे, लेकिन हम चाहते थे कि लोगों को पता चले कि हम यहां हैं, इसलिए हमने तय किया कि अपना राष्ट्रीय ध्वज ही वहां लगाएंगे। अमेरिका के झंडे को वहां लगाना मेरा काम था, चंद्रमा पर इसे लगाया जाना चाहिए या नहीं, इन बातों पर मेरा ध्यान बिल्कुल भी नहीं था। मुझे गर्व है कि अपने देश का झंडा चंद्रमा पर पहली बार मैंने लगाया।
चंद्रमा ने हमें कई तरह से हैरानी में डाल दिया। वहां की कई चीजों से मैं गहरे ताज्जुब में पड़ गया। सबसे ज्यादा हैरानी मुझे वहां के क्षितिज को देखकर हुई, धरती के मुकाबले चंद्रमा का क्षितिज हमारे बेहद करीब था। हमारे कदमों के साथ उड़ती चंद्रमा की धूल, जिसतरह उठकर वापस गिर रही थी, मैं उसे भी देखकर हैरान था। धरती पर आप धूल पर पैर पटकें तो वो उड़कर गुबार की शक्ल में छा जाएगी, लेकिन चंद्रमा पर ऐसा नहीं हो रहा था। हमारे पैर पटकने से धूल उठ रही थी लेकिन कोई गुबार सा नहीं बन रहा था। धरती पर धूल का गुबार वायुमंडल की वजह से बनता है, चंद्रमा पर वायुमंडल न होने से धूल हमारे पैरों के आसपास ही छिटक रही थी। चंद्रमा पर धूल तेजी से जमीन पर वापस गिरकर एक नई पर्त बना देती थी। ऐसा लगता था मानो इस धूल को एक हफ्ते पहले उडा़या गया था। ये वाकई हैरतंगेज था, मैंने ऐसा पहले कभी कुछ देखा-सुना नहीं था।
पब्लिक एड्रेस के दौरान लोग सवाल पूछते हैं कि क्या चीन की दीवार और मोंटाना के फोर्ट रेक डैम जैसी इंसानों की बनाई चीजें हमें चंद्रमा से नजर आ रही थीं या नहीं? ये सब अफवाह है और कुछ नहीं, चंद्रमा के क्षितिज से ऊपर हमें नीली पृथ्वी नजर आ रही थी। हमें महाद्वीप और ग्रीनलैंड दिख रहे थे। पृथ्वी लाइब्रेरी में रखे किसी ग्लोब के जैसी लग रही थी। हमें अंटार्कटिक नहीं दिखा, क्योंकि वो हिस्सा बादलों से ढंका था। पृथ्वी के घूमने के साथ हमें अफ्रीका साफ नजर आ रहा था। सूरज की किरणें किसी चीज से परावर्तित हो रहीं थीं, शायद चाड झील से हमने भारत और एशिया भी देखा। लेकिन हमें चंद्रमा से इंसान की बनाई चीन की दीवार या कोई दूसरी चीज नजर नहीं आई। हां, कई लोग ऐसी बातें करते हैं, लेकिन मैं अब तक किसी ऐसे अंतरिक्षयात्री से नहीं मिला जिसे अंतरिक्ष से मानव निर्मित दीवार या इमारतें दिखाई दी हों। यहां तक कि मैंने बाद में स्पेस शटल के साथ जाने वाले अंतरिक्षयात्रियों से भी पूछा, लेकिन चीन की दीवार या कोई दूसरी चीज किसी को अंतरिक्ष से अब तक नजर नहीं आई है।
अंत में मैं अपनी पुरानी इच्छा व्यक्त करना चाहूंगा, मैं मंगल पर जाने वाले अंतरिक्षयात्रियों के मिशन में शामिल होना चाहता हूं। मैं मंगल जाना चाहता हूं। मुझे लगता है, अब हम मंगल के सफर पर जा सकते हैं। हम मंगल को नजरअंदाज नहीं कर सकते, आज नहीं तो कल हमें मंगल पर जाना ही होगा।
- नील आर्मस्ट्रांग
कमांडर, मिशन अपोलो-11
( कमांडर नील आर्मस्ट्रांग के शब्दों में मिशन अपोलो-11 की यादें)
‘सलाखों से झांकता चंद्रमा’
गुरुवार, 15 जुलाई 2010
सितारों के जन्म का राज खुला
उगते सूरज को देखिए, ये अधेड़ उम्र का एक सितारा है। कभी सोंचा है कि सूरज जैसे आसमान के इन लाखों-करोड़ों सितारों का जन्म कैसे होता है? जानते हैं, ये ऐसा सवाल है जो सदियों तक वैज्ञानिकों को परेशान करता रहा है। तमाम सिद्धांतों के बावजूद हम अब तक सही-सही ये नहीं जानते थे कि आाखिर सितारे जन्म कैसे लेते हैं। लेकिन एक ताजा खोज ने इस सवाल का जवाब दे दिया है।
मिशगन यूनिवर्सिटी के एस्ट्रोनॉमर और नासा सगान एक्सोप्लेनेट के फेलो डॉ. स्टीफन क्राउस बताते हैं कि लंबे वक्त से दुनियाभर के वैज्ञानिक ये जानने की कोशिश कर रहे हैं कि बड़े, विशाल सितारे जन्म कैसे लेते हैं? क्योंकि चारों ओर गर्म गैसों और धूल से घिरे ऐसे सितारे बढ़ने और फैलने के लिए बहुत ज्यादा जगह लेते हैं। इन बादलों से उन्हें अलग करके देखना बहुत मुश्किल है। चारों ओर दहकती गैसों और धूल के बादलों से घिरी विशाल सितारों की नर्सरी में झांकने के लिए डॉ. क्राउस की टीम ने चिली में मौजूद यूरोपियन साउदर्न ऑब्जरवेटरी के वेरी लॉर्ज टेलिस्कोप इंटरफेरोमीटर का इस्तेमाल किया। वैज्ञानिकों की टीम ने इसे धनु राशि के तारामंडलों में हमसे करीब 10,000 प्रकाश वर्ष दूर मौजूद सितारे IRAS 13481-6124 की ओर फोकस किया। हमारे सूरज के मुकाबले सितारा IRAS 13481-6124 करीब 20 गुना ज्यादा विशाल है। डॉ. क्राउस बताते हैं कि ये एक अनोखा एक्सपेरीमेंट था और इससे हमें इस विशाल सितारे की नर्सरी के अंदरूनी हिस्से की बहुत साफ तस्वीरें मिली हैं। इस एक्सपेरीमेंट से वैज्ञानिकों की इस टीम के हाथ एक ‘जैकपॉट’ नतीजा लगा है। दहकती हुई गैसों और तपते हुए गैस के विशाल बाहल एक विशाल शिशु सितारे को चारों ओर से घेरे हुए थे। विशाल सितारे की नर्सरी के भीतर का ये अदभुत नजारा पहली बार देखा गया। डॉ. क्राउस ने बताया कि गर्म गैसों और धूल की ये डिस्क बिल्कुल वैसी ही थी, जैसी की आमतौर पर छोटे और सामान्य सितारों की नर्सरी को घेरे हुए नजर आती है। यानि विशाल सितारों के जन्म की प्रक्रिया और छोटे-सामान्य सितारों के जन्म लेने की प्रक्रिया बिल्कुल एक है। ये बेहद अनोखी खोज है, हम सभी वैज्ञानिक तो खुशी में भरकर चीख उठे थे। डॉ. क्राउस की टीम की इस खोज ने साबित कर दिया है कि विशाल सितारों का जन्म दो या दो से ज्यादा सितारों के एक-दूसरे में समा जाने से नहीं होता, बल्कि विशाल सितारे में तपती हुई गैसों और दहकते धूल के बादलों के गर्भ से उसी तरह जन्म लेते हैं जैसे कि छोटे और सामान्य सितारों का जन्म होता है। इस खोज का महत्व इससे भी बड़ा है, डॉ. क्राउस की टीम की इस खोज से पता चलता है कि सूरज जैसे सामान्य सितारे के परिवार में मौजूद हमारी धरती की तरह विशाल सितारों के परिवार में भी पृथ्वी जैसे जीवित ग्रहों की मौजूदगी मुमकिन हो सकती है।
भारतीय मानव मिशन का रोडमैप और शुरुआती प्लान तैयार
इसरो ने अंतरिक्ष में मानव भेजने के अपने पहले मिशन का रोडमैप और एक शुरुआती प्लान तैयार कर लिया है। इस प्लान के मुताबिक 2013 में पृथ्वी की कक्षा में एक पीएसएलवी लांच वेहेकिल की मदद से एक मानव विहीन 'क्रू-मोड्यूल' स्थापित किया जाएगा। इसरो की योजना है कि दो भारतीयों को पहली अंतरिक्षयात्रा पर भेजा जाए इस दिशा में 'क्रू-मोड्यूल' को कक्षा में स्थापित करना एक महत्वपूर्ण चरण साबित होगा।
इसरो की योजना है कि दो अंतरिक्षयात्रियों को अंतरिक्ष भेजा जाए और वो अपने 'क्रू-मोड्यूल' में रहते हुए एक हफ्ते तक पृथ्वी की कक्षा में परिक्रमा करते रहें। इस सिलसिले में श्रीहरिकोटा स्पेसपोर्ट में एक नया और तीसरा लांच पैड बनाने के लिए इसरो ने 1000 करोड़ की लागत का एक प्रोजेक्ट केंद्र सरकार को मंजूरी के लिए भेजा है। इस तीसरे लांच पैड का इस्तेमाल केवल मानव मिशन के लिए ही किया जाएगा। इसरो से मिली जानकारी के मुताबिक अंतरिक्षयात्रियों के मॉड्यूल की डिजाइन का काम पूरा हो चुका है। इसमें लाइफ सपोर्ट सिस्टम्स, थर्मल प्रूफिंग यानि तापरोधिता और कोई आपात स्थिति की सूरत में अंतरिक्षयात्रियों के लिए एक 'स्केप सिस्टम' को भी शामिल किया गया है। इतना ही नहीं भारतीय अंतरिक्षयात्री कार्यक्रम कुछ ऐसे असरदार ढंग से तैयार किया जा रहा है कि लांच पैड पर ही कोई गड़बड़ी सामने आने पर अंतिम वक्त में भी पूरी लांचिंग को ही रद्द किया जा सके। अंतरिक्षयात्रियों को ले जाने के लिए खास रॉकेट्स भी डिजाइन किए जा रहे हैं, जिनका नाम होगा- ह्यूमन रेटेड वेहेकिल्स।
अंतरिक्षयात्री लैंडिंग यानि घर वापसी कैसे करेंगे इसके लिए दो तरफा तैयारी की जा रही है। सबसे पहले एक सुरक्षित री-इंट्री तकनीक विकसित की जा रही है और दूसरा ये कि जमीन पर लैंडिंग के लिए खास डिजाइन और निर्माण पर भी काम जारी है। ये सारी तैयारियां भारतीय अंतरिक्षयात्री कार्यक्रम के पहले चरण की हैं। दूसरे चरण में अंतरिक्षयात्रियों के लिए खास स्पेसक्राफ्ट विकसित किया जाएगा और तीसरे, यानि अंतिम चरण में अंतरिक्षयात्रियों का चुनाव कर उन्हें अंतरिक्षयात्रा का प्रशिक्षण दिया जाएगा।
कहानी स्टुडसैट की
तीन साल पहले इसरो के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. डी.वी.ए. राघवमूर्ति कॉलेज के कुछ स्टूडेंट्स को बता रहे थे कि अंतरिक्ष की खोज कितनी रोमांचक है और हमें साइंस क्यों पढ़नी चाहिए। स्मॉल सेटेलाइट्स प्रोजेक्ट के प्रोजेक्ट डायरेक्टर डॉ. राघवमूर्ति का ये व्याख्यान छात्रों को इतना प्रेरक लगा कि सत्र से खत्म होने पर छात्रों की एक टीम ने उनसे मुलाकात की और पूछा कि हम एक छोटा सेटेलाइट बनाना चाहते हैं, इस काम में हम इसरो की मदद कैसे ले सकते हैं? स्टुडसैट की कहानी बस यहीं से शुरू होती है। हाल ही में देश के बेहद महत्वपूर्ण सेटेलाइट कार्टोसेट-2 बी के साथ भेजे गए चार सेटेलाइट्स में बैंगलोर और हैदराबाद के छात्रों का बनाया ये नन्हा सेटेलाइट 'स्टुडसैट' भी शामिल था। स्टुडसैट के बारे में ताजा अपडेट ये है कि बैंगलोर के सेटेलाइट सेंटर के निदेशक टी.के. एलेक्स ने खबर दी है कि ग्राउंड स्टेशन को स्टुडसैट के सिगनल्स रिसीव होने लगे हैं।
इस छोटे से सेटेलाइट्स को बैंगलोर के चार और हैदराबाद के तीन इंजीनियरिंग कॉलेजेज के 35 स्टूडेंट्स ने मिलकर बनाया है। स्टुडेंट्स ने नासा के साथ मिलकर स्टुडसैट में एक इमैजिंग कैमरा और कई आधुनिक उपकरण लगाए हैं। स्टूडेंट साइंटिस्ट्स की टीम से जुड़ी बैंगलोर इंजीनियरिंग कालेज की एक छात्रा श्वेता प्रसाद को स्टुडसैट प्रोजेक्ट से इस कदर लगाव हो गया कि इस टीम के साथ काम करने के लिए उन्होंने एक बढ़िया सैलरी वाले एक शानदार जॉब का ऑफर ही ठुकरा दिया।
स्टुडसैट की कामयाबी ने देश में साइंस स्टूडेंट्स के बीच एक्सपेरीमेंट और इनोवेशन का एक नया दौर शुरू कर दिया है। आईआईटी कानपुर के स्टूडेंट्स अपने तीन किलो के सेटेलाइट 'जुगनू' के बाद अब दूसरे सेटेलाइट की डिजाइन पर काम कर रहे हैं। आईआईटी मुंबई के स्टूडेंट्स 'प्रधान' नाम के अपने सेटेलाइट को बनाने में जुटे हैं। अन्ना यूनिवर्सिटी के 40 किलो के सेटेलाइट 'अनुसैट' की कामयाबी के बाद चेन्नई की एसआरएम यूनिवर्सिटी और सत्यभामा यूनिवर्सिटी के स्टूडेंट्स भी 10 किलो से कम दो सेटेलाइट्स को विकसित करने में जुटे हैं।
स्टुडसैट काम कैसे करेगा
दिन का सितारा- ‘टाइको सुपरनोवा’
आप जो तस्वीर देख रहे हैं ये तस्वीर है ‘टाइको सुपरनोवा’ की। इस तस्वीर के बाईं ओर ऊपर की ओर जो लाल रंग का वृत्त सा नजर आ रहा है इसे ध्यान से देखिए, ये एक सितारे के अवशेष हैं, और इसका नाम है SN 1572. इस सुपरनोवा की खोज एस्ट्रोनॉमर टाइको ब्राह ने की थी, इसीलिए उनके नाम पर ही इसका नाम ‘टाइको का सुपरनोवा’ रख दिया गया।
1572 का नवंबर महीना था, कि तभी दिन के आसमान में एक तेज चमकदार सितारा सा नजर आया, ये बिल्कुल अनोखी घटना थी। आजकल रात में नजर आने वाले शुक्र ग्रह जैसा तेज चमकदार सितारा दिन के आसमान में नजर आ रहा था। इसे देखा तो कई लोगों ने लेकिन इसे खोजना शुरू किया डेनमार्क के एस्ट्रोनॉमर टाइको ब्राह ने। उन्होंने पता लगाया कि ये एक सुपरनोवा है, जिसका धमाका और उससे निकली चमक इतनी जबरदस्त थी कि धरती से वो दिन के वक्त भी आसमान में नजर आ रही थी। दिन से आसमान पर ये सुपरनोवा अगले दो साल तक दिखाई देता रहा और फिर मंद होते-होते गायब हो गया। 1950 में इस सुपरनोवा अवशेषों को आधुनिक वैज्ञानिकों ने टेलिस्कोप की मदद से फिर से देखा। और इस सुपरनोवा की ये ताजा तस्वीर ली है नासा के स्पिटजर स्पेस टेलिस्कोप ने। इस तस्वीर में नजर आ रहे चमकीले हिस्से दरअसल धूल और गैस के गहरे बादल हैं, जो सुपरनोवा धमाके से निकली शॉक-वेव की वजह से बेहद गर्म होकर चमक उठे हैं।
हमसे करीब 3500 प्रकाश वर्ष दूर मौजूद और करीब 35 प्रकाशवर्ष तक बिखरे सुपरनोवा के इस अवशेष में उमड़ती-घुमड़ती गर्म गैसें और घनी धूल के इस गुबार में अब एक नए सितारे के जन्म लेने की प्रक्रिया जारी है।
रविवार, 11 जुलाई 2010
14 जुलाई को आसमान में 4 ग्रह एकसाथ
14 जुलाई की शाम जैसे ही सूरज डूबेगा, पश्चिम दिशा में हमें क्षितिज से बस थोड़ा ही ऊपर हमें बुध ग्रह चमकता नजर आएगा। बुध से बाईं ओर थोडा ऊपर पतला से अर्धचंद्र और उसके ठीक ऊपर तेज चमकदार शुक्र ग्रह नजर आएगा। चंद्रमा के ठीक सामने देखेंगे तो एक सितारा नजर आएगा, जिसका नाम है रेगुलस। रेगुलस सितारा सिंह राशि के तारामंडलों में से एक है और इसे पहचानने का तरीका ये है कि शुक्र ग्रह, रेगुलस और चंद्रमा तीनों आपको एक समबाहु त्रिभुज सा बनाते नजर आएंगे। अब आप चंद्रमा और शुक्र से बाईं ओर थोड़ा और ऊपर नजर डालिए, यहां मौजूद मंगल ग्रह एक नारंगी सितारे जैसा नजर आएगा। मंगल से भी थोड़ा बाईं ओर ऊपर आपको एक और सितारा नजर आएगा, ये कोई सितारा नहीं बल्कि ये होगा हमारे सौरमंडल का सबसे खूबसूरत ग्रह शनि।
14 जुलाई को कुल मिलाकर चार ग्रह और इनके बीच सजीला चंद्रमा आपको एकसाथ पश्चिमी आसमान में नजर आएंगे। इन्हें आप बगैर किसी टेलिस्कोप की मदद से यूं ही आसानी से देख सकते हैं। लेकिन अगर आपके पास टेलिस्कोप भी हो, तो फिर कहने ही क्या।
उल्काओं की दुनिया में मिशन रोसेटा
1852 में खोजी गई 100 किलोमीटर से भी विशाल उल्का 'ल्यूटेशिया' धरती से देखने पर अंधेरे आसमान में रोशनी के एक छोटे से बिंदु के रूप में नजर आती है। इस विशाल उल्का की इतनी साफ और इतने करीब से तस्वीर पहली बार ली गई है और इस तस्वीर को लेते वक्त स्पेसक्राफ्ट रोसेटा इस उल्का से करीब 3100 किलोमीटर दूर था। मंगल और बृहस्पति के बीच मौजूद उल्काओं की बेल्ट ही 'ल्यूटेशिया' का घर है। 2004 में धरती से रवाना हुआ मिशन रोसेटा अब उल्का 'ल्यूटेशिया' के घर जा पहुंचा है और 52,142 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से चलते हुए रविवार रात करीब पौने दस बजे ये स्पेसक्राफ्ट इस विशाल उल्का के सबसे करीब से गुजर रहा है। मिशन रोसेटा करीब दो घंटे तक उल्का 'ल्यूटेशिया' के चक्कर लगाएगा और उसकी तस्वीरें और दूसरे वैज्ञानिक अध्ययन कर तमाम डेटा धरती को भेज देगा। मिशन रोसेटा के लिए उल्का 'ल्यूटेशिया' बस एक पड़ाव भर है, इसकी असली मंजिल 'कॉमेट 67पी/ कुर्व्यूमोव-गेरासिमेंको' नाम का एक धूमकेतु है। मिशन रोसेटा अपनी मंजिल इस धूमकेतु पर 2014 को पहुंचेगा। यहां पहुंचकर रोसेटा एक लैंडर को इस धूमकेतु पर उतारेगा और इस धूमकेतु से धूल और बर्फ के सैंपल लेकर उसे हमारे पास वापस भेज देगा।
उल्काओं और धूमकेतु दरअसल टाइम कैप्सूल्स हैं, यानि यहां उस वक्त का वो सारा पदार्थ मौजूद है, जब हमारे सौरमंडल का निर्माण हो रहा था। ग्रहों और चंद्रमाओं के बनने के दौरान जो कुछ बचा रह गया वो पदार्थ उल्का और धूमकेतु की शक्ल में सौरमंडल में आवारा घूम रहा है। इसीलिए उल्काओं और धूमकेतुओं का मिशन हकीकत में खुद को जानने और अपनी दुनिया को समझने का मिशन है।
स्पेन की 'ला-रोजा' अंतरिक्ष में
14वें यूरोपियन बैलून फेस्टिवल के दौरान स्पैनिश टीम के फैन्स को अपनी टीम की जर्सी 'ला-रोजा' को बैलून की मदद में अंतरिक्ष भेजने का अनोखा आइडिया सूझा। बस फिर क्या था, फाइनल मैच में जीत की कामना के साथ स्पैनिश टीम की जर्सी को एक बैलून में बांधकर उड़ा दिया गया। इस बैलून में ट्रैकिंग डिवाइस के साथ कैमरे भी लगे थे। ये तस्वीर बैलून में लगे कैमरे ने तब खींची जब बैलून धरती से 33 किलोमीटर की ऊंचाई पर पहुंच चुका था। करीब चार घंटे की उड़ान के बाद बैलून को वापस उतार लिया गया। स्पैनिश टीम की जर्सी को अंतरिक्ष की ऊंचाई तक पहुंचाकर स्पेन की फुटबाल टीम के समर्थकों ने फिर जमकर जश्न भी मनाया।
मंगलवार, 6 जुलाई 2010
रोजवेल यूएफओ राज(?) के 63 साल
लेकिन रोजवेल घटना के राज जानने के बजाय मेरी दिलचस्पी ये जानने में ज्यादा है कि अगर वाकई रोजवेल के रेगिस्तान में कोई यूएफओ गिरी थी, तो आखिर वो आई कहां से होगी? यूएफओलॉजिस्ट इस सवाल का जवाब भी देते हैं, उनके मुताबिक रोजवेल की यूएफओ हमसे करीब 39 प्रकाश वर्ष दूर दक्षिणी आसमान में मौजूद डबल स्टार सिस्टम 'जेटा रेटिकुली' की परिक्रमा कर रहे किसी ग्रह से आई थी।
एलियन्स को लेकर बेकार ही परेशान हैं हॉकिंग
हॉकिंग इसके जरिए मेरे रोजमर्रा के काम के एक संभावित नतीजे का अनुमान लगाने की कोशिश कर रहे हैं। मैं दुनियाभर में फैले तमाम सहयोगियों के साथ एक छोटे से मिशन में जुटा हूं, जिसे दुनिया- सर्च फॉर एक्स्ट्रा टेरेस्टि्रियल इंटेलिजेंस यानि 'सेटी' के नाम से जानती है।
अगर किसी दिन हमें अपने मिशन में कामयाबी मिल गई, यानि हमें एलियन्स के सिगनल्स मिल गए, तो जरा सोचिए, क्या होगा? क्या ऐसे में हमें एलियन्स के सिगनल्स का जवाब देना चाहिए? क्योंकि हमारा ब्रॉडकास्ट दूर सितारों पर रहने वाले उन एलियन्स के सामने धरती का पूरा पता जाहिर कर देगा। हॉकिंग के शब्दों में ऐसे में हमारे सिगनल्स पकड़ते ही एलियन्स की हमलावर सेना धरती की ओर कूच कर देगी।
एलियन सभ्यता से कोई रेडियो सिगनल या मैसेज मिलने पर हमें क्या करना चाहिए? सेटी प्रोजेक्ट में काम करने वाले वैज्ञानिकों की एक टीम, इंटरनेशनल एकेडमी आफ एस्ट्रोनॉटिक्स में तीन साल से इस सवाल का जवाब तलाशने की कोशिश कर रही है।
सच्चाई तो ये है कि अनजान सभ्यताओं की तलाश में अपनी ओर से रेडियो सिगनल्स को भेजना बंद कर देना कोई समझदारी नहीं होगी। बल्कि मैं तो ये कहूंगा कि अपने सिगनल्स को रोक देने के लिए अब बहुत देर हो चुकी है। पिछले 60 साल से हम अपने टीवी, रेडियो और राडार सिगनल्स के जरिए, सितारों भरे आसमान में अपनी मौजूदगी का खुल्लम-खुल्ला प्रचार कर रहे हैं। अक्टूबर 1951 में पहली बार ब्राडकास्ट हुआ मशहूर टेलीविजन कार्यक्रम 'आई लव लूसी' भी अब तक 6000 से ज्यादा स्टार सिस्टम्स को पार कर चुका होगा और हर दिन एक नए सौरमंडल को पार करता चला जा रहा है। हमारे टीवी प्रेग्राम के रेडियो सिगनल के रेडिएशन को पकड़ना कोई मुश्किल काम नहीं है। हालांकि दूरी के साथ ये सिगनल कमजोर पड़ते जाएंगे, लेकिन सबसे नजदीक की एलियन सभ्यता भी अगर 1000 प्रकाश वर्ष के दायरे में है तो वो इस सिगनल को पकड़ लेगें, बशर्ते उनकी एंटीना टेक्नोलॉजी हमसे एक या दो सदी आगे की हो।
अगर एलियन सभ्यताएं हमारे स्तर तक भी विकसित हुईं तो वो भले ही हमारे टेलीविजन और राडार सिगन्स को न पकड़ पाएं, लेकिन सेटी प्रोजेक्ट के तहत हम जो रेडियो सिगनल जानबूझकर भेजते हैं, इन्हें वो आसानी से पकड़ सकती हैं। ऐसे में अपने जैसी सभ्यताओं से भला क्या डरना?
असली बात ये कि अगर कोई एलियन सभ्यता वाकई खतरनाक है, तो हम उन्हें सिगनल भेजें या न भेजें, इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। ऐसी सभ्यता अपने सूरज का इस्तेमाल एक ग्रेविटेशनल लेंस की तरह करके हमारे शहरों की सड़कों पर जलने वाले नाइट स्ट्रीट लैम्प्स तक की रोशनी भी आसानी से देख सकती हैं। ऐसे में हॉकिंग की चेतावनी का क्या मतलब है?
- सेथ शॉस्टैक
(लेखक सेटी इस्टीट्यूट के वरिष्ठ वैज्ञानिक और इंटरनेशनल एकेडमी आफ एस्ट्रोनॉटिक्स के चेयरमैन हैं)
सोमवार, 5 जुलाई 2010
धरती के गुरुत्वाकर्षण में एक बड़ा छेद
मिशन गोस ने श्रीलंका से आगे, हमारे हिंद महासागर में एक ऐसी जगह खोजी है, जहां से अगर आप गुजरेंगे तो आपका वजन अचानक काफी कम हो जाएगा। ऐसा इसलिए, क्योंकि हिंद महासागर के बीचोबीच, ये वो जगह है, जहां धरती के गुरुत्वाकर्षण में एक बड़ा छेद मौजूद है। ये खबर अपने आप में बिल्कुल नई और अनोखी है, क्योंकि गुरुत्वाकर्षण के बारे में हमेशा से ये माना जाता था कि पूरी धरती का गुरुत्वाकर्षण लगभग एक सा ही है।
नासा के गुरुत्वाकर्षण मिशन गोस से मिले डाटा से धरती के गुरुत्वाकर्षण में छेद की खोज की है कैलीफोर्निया इंस्टीट्यूट आफ टेक्नोलॉजी के वैज्ञानिकों ने। वैज्ञानिकों के मुताबिक धरती के गुरुत्वाकर्षण में छेद की वजह ये है कि धरती की ऊपरी पर्त की दो प्लेटें, हिंदमहासागर के बीचोबीच से एक-दूसरे को नीचे धकेलते हुए धरती के कोर में समाती जा रही हैं। वैज्ञानिक गुरुत्वाकर्षण में छेद के असर का पता लगाने में जुटे हैं।
देश की तीसरी आंख - कार्टोसेट-2 बी
कार्टोसेट प्रोजेक्ट को मुख्यतौर पर भारत के किसी भी शहर, किसी भी मोहल्ले या सड़क को अंतरिक्ष से देखने के लिए डिजाइन किया गया है। कार्टोसेट -2 बी कहीं ज्यादा संवेदनशील है। कार्टोसेट के जरिए हम देश में कहीं भी स्थिर खड़ी या फिर चल रही 80 सेंटीमीटर के आकार वाली किसी भी चीज की बिल्कुल साफ तस्वीर अंतरिक्ष से देख सकते हैं और उसे फॉलो कर सकते हैं। यानि अगर कोई नेता कहीं जाता है तो कार्टोसेट-2बी की लांचिंग के बाद अब उसकी कार की निगरानी अंतरिक्ष से ही की जा सकेगी। ऐसा ही हम किसी आतंकवादी या अपराधी के लिए भी कर सकेंगे। हमारा कद भी 80 सेंटीमीटर से बड़ा होता है, इसलिए कार्टोसेट-2बी के जरिए अंतरिक्ष से ही किसी भी खास आदमी की हरकतों पर नजर रखना अब संभव होगा।
कार्टोसेट - 2 बी सुरक्षा एजेंसियों के लिए खास तौर पर मददगार साबित होगा और इसकी मदद से सीमाओं की निगरानी और घुसपैठ की रोकथाम अब कहीं ज्यादा असरदार तरीके से की जा सकेगी। फिलहाल इसरो ने अपनी रिलीज में कहा है कि कार्टोसेट-2 बी की मदद से इंफ्रास्ट्रक्चर यानि आधारभूत ढांचे के विकास और शहरीकरण की योजनाएं बनाने में मदद मिलेगी।
690 किलो वजनी कार्टोसेट -2बी को लांच वेहेकिल पीएसएलवी के जरिए अंतरिक्ष भेजा जाएगा। इसके साथ ही 117 किलो वजनी अल्जीरिया के एक सेटेलाइट 'अल्सेट' और कनाडा और स्विटजरलैंड के दो नैनो सेटेलाइट्स एनएलएस 6.1 और एनएलएस 6.2 को भी अंतरिक्ष भेजा जा रहा है। लेकिन पीएसएलवी के इन हाई टेक्नोलॉजी सेटेलाइट्स के साथ बेंगलौर और हैदराबाद इंजीनियरिंग कालेज के छात्रों का बनाया एक नैनो सेटेलाइट 'स्टुडसेट' को भी लांच किया जा रहा है। यानि रॉकेट पीएसएलवी की एक लांचिंग के साथ ही पांच सेटेलाइट्स को एकसाथ अंतरिक्ष भेजा जा रहा है। इसरो के लिए मल्टिपल लांचिंग कोई नई बात नहीं इससे पहले 2008 में सिंगल लांच के साथ 10 सेटेलाइट्स को अंतरिक्ष भेजकर इसरो वर्ल्ड रिकार्ड बना चुका है।