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बुधवार, 24 सितंबर 2014

रोटी जरूरी है या मंगल और चांद पर जाना?...

हमें पहले क्या करना चाहिए? रोटी जरूरी है या मंगल और चांद पर जाना? इस मुद्दे पर इसरो चीफ के राधाकृष्णन के विचार, मंगलयान के मंगल की कक्षा में सफल प्रवेश के अवसर पर वॉयेजर की खास प्रस्तुति-

'इसरो में ये सवाल हमलोग हर दिन खुद से पूछते हैं. हम इस बारे में सोचते हैं कि हम जो कर रहे हैं इससे जनता को, सरकार को फायदा होता है या नहीं. इसरो का काम सिर्फ रॉकेट उड़ाना नहीं है. 24 सेटेलाइट हैं अंतरिक्ष में हमारे. बड़ा कम्यूनिकेशन इनफ्रास्ट्रक्चर बनाया है हमने. करीबन 200 ट्रांसपॉन्डर हैं जिनके जरिए मछुआरों की मदद हो रही है. उन्हें समुद्र में किस जगह पर ज्यादा मछली मिलेगी, इसकी जानकारी उपलब्ध कराते हैं हम.
 हम गलत अवधारणा में हैं कि इसरो का काम सिर्फ रॉकेट उड़ाना है. बल्कि हम जो काम करते हैं वो सीधे या फिर परोक्ष तौर पर देश की सरकार और जनता के हित में काम आता है. इसरो द्वारा भेजा गया रॉकेट और सेटेलाइट लोगों को रोटी देने का काम भी करता है. किसी किसान या फिर मछुआरे से पूछिए.
वैज्ञानिक समझ को बढ़ाने के साथ तकनीकी बेहतरी पर इसरो ने बहुत कुछ किया है. मिशन टू मून हो या मिशन टू मार्स, इसरो ने सिर्फ ये दो काम ही नहीं किए. हमने स्ट्रेटजिक मूवमेंट में भी अहम भूमिका निभाई है.
1960 से आज तक यही पूछा जाता है कि भारत जैसे गरीब देश को स्पेस में एयरक्राफ्ट भेजना चाहिए या नहीं? हर प्रोजेक्ट के साथ यही सवाल उठता है. ये सवाल उठते रहेंगे. पर मैं भी एक सवाल पूछना चाहता हूं कि क्या भारत जैसे देश को स्पेस साइंस में इनवेस्ट नहीं करना चाहिए, जो सुपरपावर बनना चाहता है?
फसलों से बेहतर उपज, तूफान की जानकारी, इस तरह की अहम जानकारियां जुटाने में हमारे सेटेलाइट काम में आ रहे हैं. तूफान फेलिन की जानकारी इनसेट सेटेलाइट से मिली. करीब 400 से ज्यादा तस्वीरें हमें मिलीं जिसके जरिए हजारों जानें बचाई जा सकीं. हमारे पास रॉकेट होने चाहिए क्योंकि सेटेलाइट्स को अंतरिक्ष में भेजना है. भूख मिटाना जरूरी है पर स्पेस साइंस को नजरअंदाज नहीं कर सकते. आखिरकार ये भी तो रोटी देने में मदद करता है.'
(इंडिया टुडे कॉन्क्लेव में Rockets vs Rotis में इसरो प्रमुख डॉ.के राधाकृष्णन के व्याख्यान के अंश)

...इसलिए, मंगल पर हमारा जाना जरूरी है!

 ‘मार्स ऑरबिटर मिशन’ की कामयाबी के साथ ही एक पुराना सवाल फिर सामने है कि क्या भारत जैसे विकासशील देश में, जहां भारी तादाद में लोग अब भी शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार जैसी बुनियादी जरूरतों के पूरा होने का इंतजार कर रहे हैं, वहां 450 करोड़ रुपये मंगल अभियान पर खर्च करना जायज है? ये एक सार्वकालिक सवाल है और केवल भारत ही नहीं बल्कि अमेरिका जैसे विकसित देशों में भी वैज्ञानिक समुदाय को इन सवालों का सामना करना पड़ता है. इस बार मंगलयान के साथ ये सवाल कुछ ज्यादा ही जोरदारी के साथ उठाया गया. एक न्यूज चैनल ने तो बकायदा ये भी दिखाया कि 450 करोड़ रुपये में सरकार लोगों के लिए क्या-क्या काम कर सकती थी.
बात केवल मंगलयान की नहीं है. भारत के कुछ और साइंस प्रोजेक्ट्स आने वाले वक्त में पूरे होने हैं, जिनकी लागत करोड़ों में है, मिसाल के तौर पर तमिलनाडु के पास बन रही देश की पहली अंडरग्राउंड न्यट्रिनो लैब, जिसकी लागत 150 करोड़ रुपये से ज्यादा है, उत्तराखंड के देवस्थल में एशिया के सबसे बड़े 13.5 मीटर के टेलिस्कोप की ऑब्जरवेटरी को बनाने का काम जारी है जिसकी लागत करीब 120 करोड़ रुपये है, चंद्रयान-2 जिसकी लागत 426 करोड़ रुपये है और इसके अलावा भारत आर्कटिक और अंटार्कटिक में स्थायी स्टेशंस चला रहा है, जिसकी सालाना लागत भी कई सौ करोड़ है. सवाल फिर वही कि क्या भारत को साइंस पर भारी खर्च करना चाहिए?
 देश में बीएमडब्लू जैसी करोड़ों की कीमत वाली विदेशी गाड़ियों के बढ़ते महंगे शौक की बात न भी करें तो मंगलयान और साइंस के दूसरे प्रोजेक्ट्स पर हो रहे खर्च पर हाय-तौबा मचाने वाले लोग ये भूल जाते हैं भारत साइंस पर जितना खर्च करता है, उससे कई गुना ज्यादा पैसा इस देश में लोग सिगरेट और शराब पर उड़ा रहे हैं. भारत में सिगरेट का सालाना बाजार 720 अरब रुपये का है. आईटीसी जैसे सिगरेट के बड़े ब्रांड इसे और विस्तार देने के लिए जल्दी ही 25000 करोड़ रुपये और खर्च करने जा रहे हैं. शराब की बात करें तो देश में इस नशे का फुटकर बाजार 2100 अरब रुपये का है. इस नशीले एश्वर्य में झूमते विजय माल्या जैसे लोग फार्मूला-वन और कैसीनो जैसी चीजों को देश में ला रहे हैं और नई पीढ़ी के ‘रोल मॉडल’ बन रहे हैं. लोग सिगरेट और शराब पर एक साल में 2800 अरब रुपये से ज्यादा उड़ा रहे हैं. ये रकम इस बार के केंद्रीय बजट में दर्शाये गए देश के कुल वास्तविक खर्च से भी ज्यादा है.
जब भी हम साइंस पर खर्च करते हैं, अंतरिक्ष पर खर्च करते हैं या किसी नई खोज के लिए खर्च करते हैं, तो हमेशा ये निवेश बोनस के साथ कई-कई रास्तों से वापस हमारे पास लौटता है. ‘चंद्रयान’ देश के अंतरिक्ष अनुसंधान का टर्निंग प्वाइंट साबित हुआ था. चंद्रयान की लागत 354 करोड़ रुपये थी, लेकिन जब चंद्रयान ने चंद्रमा पर पानी खोज निकाला तो इससे देश को जो विश्वस्तरीय प्रतिष्ठा अर्जित हुई वो नासा और यूरोपियन स्पेस एजेंसी को दशकों की मेहनत और अरबों डॉलर खर्च करके भी नहीं मिल सकी थी.
साइंस अनुसंधान पर होने वाला खर्च मानवता के लिए जीवन बीमा के जैसा निवेश है, जो हमेशा मानवता के भविष्य को बेहतर और सुरक्षित बनाने के लिए किया जाता है. यही वजह है कि 100 साल से ज्यादा वक्त और बीत जाने के बावजूद कैंसर पर रिसर्च अब भी जारी है. एड्स पर विजय पाने की जंग भी पिछले 30 साल से लगातार जारी है. इन लड़ाइयों पर अब तक अरबों डॉलर खर्च हो चुके हैं, वैज्ञानिकों की कई पीढ़ियों ने बगैर किसी ठोस नतीजे के अपनी पूरी जिंदगी इन रोगों पर विजय पाने की कोशिश में खपा दी है. लेकिन समय, पैसे और प्रतिभा के इस लंबे और लगातार निवेश के बदौलत ही अब हमें इन रोगों की लड़ाईयों की अंधी सुरंगों के दूसरे सिरे पर उम्मीद की रोशनी नजर आ रही है. एचआईवी पर काबू पा लिया गया है और कैंसर के खिलाफ भी निर्णायक टीका बस आने को है.
 भारत में जरूरत इस बात की है कि वैज्ञानिक अनुसंधान पर होने वाले सकल खर्च को व्यवस्थित और जवाबदेह बनाया जाए. मैंने जब सीएसआईआर के महानिदेशक समीर ब्रह्मचारी से पूछा कि पिछले 5 साल के दौरान आपकी सबसे बड़ी उपलब्धि क्या रही? तो काफी याद करने के बाद उन्होंने ‘ई-रिक्शा’ का नाम लिया. अब अगर देशभर में दर्जनों प्रयोगशालाओं और सरकारी वैज्ञानिकों की भारी-भरकम फौज वाला संगठन सीएसआईआर करोड़ों के बजट को खर्च कर 5 साल में देश के लिए बस ‘ई-रिक्शा’ ही बना सका है. तो इससे देश में वैज्ञानिक अनुसंधान के नाम पर जो चल रहा है, उसका खुलासा होता है और ये वाकई गहरी चिंता का विषय है. देश में वैज्ञानिकों को रिसर्च प्रोजेक्ट्स के नाम पर लाखों-करोड़ों रुपये आवंटित करा दिए जाते हैं. इसके बाद ऐसी कोई एजेंसी नहीं है जो वैज्ञानिकों से उनके प्रोजेक्ट्स के बारे में जवाब-तलब करे और पैसों की निगरानी करे. 15 से 20 साल तक वैज्ञानिक प्रोजेक्ट्स चलते रहते हैं और साथ में कई सहायक परियोजनाएं भी शुरू हो जाती हैं, विदेश यात्राएं चलती रहती हैं और पैसा बर्बाद होता रहता है. अंत में कोई भी ठोस वैज्ञानिक खोज सामने नहीं आती. जरूरत इस बात की है कि देश में वैज्ञानिक प्रोजेक्ट के लिए एक नियामक एजेंसी बने, जिसमें शीर्ष वैज्ञानिक शामिल हों और जो ये तय करे कि प्रोजेक्ट्स तय समय सीमा में ही पूरे हों, शोध कर रहे वैज्ञानिकों जवाबदेही तय हो, एक तय समयसीमा में शोध पूरे हों और उन प्रोजेक्ट्स के नतीजों का फायदा केवल उस वैज्ञानिक या उसके परिवार को नहीं बल्कि पूरे देश के लोगों को मिले.
संदीप निगम

मंगलवार, 23 सितंबर 2014

भारत...अब मंगल की कक्षा में

भारत अब मंगल की कक्षा में पहुंच चुका है. देश ने सीमित संसाधनों में असाधारण उपलब्धि अर्जित की है. मंगलयान ने भारत को दुनिया के ऐसे पहले देश का गौरव दिला दिया है मंगल पर पहुंचने की जिसकी पहली ही कोशिश कामयाब रही है.
भारत के मंगल अभियान का निर्णायक चरण 24 सितंबर को सुबह यान को धीमा करने के साथ ही शुरू हो गया था. मंगलयान की गति धीमी करनी थी ताकि ये मंगल की कक्षा में गुरूत्वाकर्षण से खुद-बखुद खिंचा चला जाए और वहां स्थापित हो जाए.
मंगलयान से धरती तक डेटा पहुंचने में करीब 12:30 मिनट का समय लग रहा है. सुबह लगभग 8.00 बजे इसरो को मंगलयान से सिग्नल प्राप्त हुआ और ये सुनिश्चित हो पाया कि मंगलयान मंगल की कक्षा में स्थापित हो गया है.
मंगलयान का आकार लगभग एक नैनो कार जितना है, तथा संपूर्ण मार्स ऑरबिटर मिशन की लागत कुल 450 करोड़ रुपये या छह करोड़ 70 लाख अमेरिकी डॉलर रही है, जो एक रिकॉर्ड है. यह मिशन भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गेनाइज़ेशन या इसरो) ने 15 महीने के रिकॉर्ड समय में तैयार किया.

नासा का मैवेन पहले पहुंचा
भारत के पहले मंगलयान से 48 घंटे पहले नासा का 'मैवेन' ने मंगल की कक्षा में प्रवेश किया. 'मैवेन' लाल ग्रह यानी मंगल के वातावरण का अध्ययन करेगा. 'मैवेन' से मिलने वाले आँकड़ों से वैज्ञानिकों को मंगल के वर्तमान और अतीत के वातावरण की परिस्थितियों का बेहतर मॉडल विकसित करने में मदद मिलेगी.

मंगलयान के महानायक

के. राधाकृष्णन -
इसरो के चेयरमैन और स्पेस डिपार्टमेंट के सेक्रेट्री के पद पर कार्यरत हैं. इस मिशन का नेतृत्व इन्हीं के पास है और इसरो की हर एक एक्टिविटी की जिम्मेदारी इन्हीं के पास है.

एम. अन्नादुरई - इस मिशन के प्रोग्राम के डायरेक्टर के पद पर कार्यरत हैं. इन्होंने इसरो 1982 में ज्वाइन किया था और कई प्रोजेक्टों का नेतृत्व किया है. इनके पास बजट मैनेजमेंट, शैड्यूल और संसाधनों की जिम्मेदारी है. ये चंद्रयान-1 के प्रोजेक्ट डायरेक्ट भी रहे हैं.

एस. रामाकृष्णन - विक्रमसाराबाई स्पेस सेंटर के डायरेक्टर हैं और लॉन्च अथोरिजन बोर्ड के सदस्य हैं. उन्होंने 1972 में इसरो ज्वाइन किया था और और पीएसएलवी को बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.

एसके शिवकुमार - इसरो सैटेलाइट सेंटर के डायरेक्टर हैं. इन्होंने 1976 में इसरो ज्वाइन किया था और इनका कई भारतीय सैटेलाइट मिशनों में योगदान रहा है.

इनके अलावा पी. उन्नीकृष्णन, चंद्रराथन, एएस किरण कुमार, एमवाईएस प्रसाद, एस अरूणन, बी जयाकुमार, एमएस पन्नीरसेल्वम, वी केशव राजू, वी कोटेश्वर राव का भी इस मिशन में अहम योगदान रहा.

गुरुवार, 6 सितंबर 2012

मंगल ग्रह पर जीवन की खोज


क्या बुध और शुक्र की तरह मंगल ग्रह भी बेजान है? या फिर धरती की तरह वहां भी जीवन का विकास हुआ और जिंदगी की धड़कन अब भी वहां गूंज रही है? ये सवाल विज्ञान की बड़ी गुत्थियों में से एक है। नासा का मार्स साइंस लैबोरेटरी मिशन इस गुत्थी को हल करने की दिशा में हमारी सबसे बड़ी पहल है। मार्स साइंस लैबोरेटरी मिशन जो क्यूरियोसिटी के नाम से भी लोकप्रिय है मंगल ग्रह पर सफलतापूर्वक लैंड करने के बाद मंगल की मिट्टी में जीवन की तलाश के अपने अभियान की शुरुआत कर दी है।
ऐसा नहीं है कि हरे रंग का कोई छोटा अजनबी मंगलवासी उत्सुकता में भरकर बस के आकार वाले हमारे रोबोट से हैलो कहने के लिए अपने किसी बिल से निकलकर सामने आ खड़ा होगा और ऐसा भी नहीं है कि क्यूरियोसिटी जब मंगल की मिट्टी के सैंपल लेगा तो उसमें केंचुए जैसे मंगल के जीव खोज लिए जाएंगे। तो फिर आखिर हम मंगल पर क्या खोज रहे हैं?  क्यूरियोसिटी का लक्ष्य क्या है? और किस चीज के मिलने की उम्मीद  में हम मंगल की मिट्टी खंगाल रहे हैं?
नासा के नए मिशन मार्स साइंस लैबोरेटरी या क्यूरियोसिटी के साथ हम मंगल की मिट्टी में ऑर्गेनिक यानि कार्बनिक यौगिकों को खोज रहे हैं, जो उस लाल ग्रह पर हमारी पृथ्वी के जैसे जीवन या बैक्टीरिया जैसे उसके शुरुआती स्वरूप की मौजूदगी का सबसे बड़ा सबूत होगा। मंगल ग्रह पर जीवन के खोए सूत्रों की पहचान ही करीब एक टन की इस सबसे आधुनिक रोबोटिक लैबोरेटरी का लक्ष्य है। और हमें उम्मीद है कि मंगल की मिट्टी में हमें जीवन के कुछ ऐसे निशान मिल सकते हैं, जो शायद जीव विज्ञान के हमारे अब तक के ज्ञान से बाहर हों।
36 साल पहले मंगल ने पृथ्वी वासियों को बुरी तरह चौंकाया था। नासा का ऑरबिटर मिशन वाइकिंग-1 अपने बाद लांच किए जाने वाले लैंडर मिशऩ वाइकिंग-2 को लैंड कराने के लिए मंगल पर सही जगह की तलाश कर रहा था। तभी वो मंगल के साइडोनिया इलाके के ऊपर से गुजरा, वाइकिंग-1 ने वहां की एक ऐसी तस्वीर भेजी कि नासा वैज्ञानिकों के साथ सारी दुनिया चौंक उठी । मंगल की जमीन से एक विशाल इंसानी चेहरा आसमान की ओर देख रहा था। ये भावशून्य मानव चेहरा मंगल की जमीन पर दो मील के दायरे में फैला था। क्या मंगल ग्रह इस चेहरे के जरिए हम पृथ्वीवासियों को कोई संदेश दे रहा था?  मंगल पर मानव चेहरे की सनसनी ज्यादा वक्त तक कायम नहीं रह सकी, क्योंकि वैज्ञानिकों ने बाद में बताया कि ये मानव चेहरा मंगल का एक पठार है जो डूबते सूरज के साथ धूप-छांव के खेल की वजह से मानव चेहरे जैसा आभास दे रहा है। सनसनी भले ही खत्म हो गई ,लेकिन वाइकिंग-1 की ये तस्वीर, मंगल पर जीवन की तलाश का प्रतीक बन गई।

मंगल से आई उल्काएं

प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के 9 साल बाद का वक्त, अंग्रेज भारत पर अपनी पकड़ मजबूत करने में जुटे थे। उथल-पुथल से भरे राजनीतिक-सामाजिक हालात के बीच भारत के बिहार में गया जिले के करीब एक छोटे से कस्बे शेरघाटी में कुछ ऐसा हुआ कि वो उस वक्त के वैज्ञानिकों के बीच चर्चा का विषय बन गया। 25 अगस्त 1865 की एक शाम, शेरघाटी के आसमान पर गहरे बादल छाए थे और रुक-रुक कर बारिश का दौर जारी था, कि तभी तेज आवाज के साथ पूरा कस्बा कांप उठा, आवाज भी ऐसी मानो किसी ने आसमान चीर दिया हो। घबराए हुए लोग भागकर घर से बाहर आ गए और सैकड़ों निगाहें आसमान की ओर उठ गईं। लपटों से घिरा एक दहकता हुआ अग्निपिंड क्षितिज के एक ओर से दूसरी ओर बढ़ा चला जा रहा था। पुलिस की मदद लेकर कुछ हिम्मतवाले लोग सामने खेतों में उस जगह की ओर दौड़े जहां वो पिंड गिरा था। आसमान से एक बड़ी उल्का गिरी थी, जिसका वजन 5 किलो था, पुलिस ने उसे तुरंत कब्जे में लेकर कलेक्टर साहब को भिजवा दिया, जहां से वो उल्कापिंड लंदन पहुंचकर लंबे वक्त तक ब्रिटिश म्यूजियम की शोभा बढ़ाता रहा। वक्त बदला और विज्ञान की प्रगति के साथ वैज्ञानिकों की दिलचस्पी उस शेरघाटी उल्का में बढ़ी। आधुनिक युग में बकायदा उसकी रेडियोमीट्रिक डेटिंग वैज्ञानिक जांच की गई, तो पता चला कि इसका जन्म 4 अरब 10 करोड़ साल पहले मंगल ग्रह पर किसी ज्वालामुखी के लावे से हुआ था। मंगल ग्रह पर किसी विशाल उल्का के गिरने से उठी धूल और पथरीले मलबे के गुबार के साथ ये पत्थर भी मंगल ग्रह से छिटक कर संयोग से पृथ्वी, वो भी भारत के कस्बे शेरघाटी में आ गिरा था। पृथ्वी पर हमें मिली ये मंगल की सबसे पुरानी उल्का है। शेरघाटी उल्का की हाल की जांच से पता चला है कि इसमें कुछ ऐसे रासायनिक तत्व हैं जिनका संबंध किसी खास बैक्टीरिया से हो सकता है।
मंगल ग्रह से छिटके ऐसे पत्थरों के 34 नमूने अमेरिकन स्पेस एजेंसी नासा के पास सुरक्षित हैं। मंगल ग्रह से पत्थरों का छिटककर धरती पर आ गिरना कुदरत का दुर्लभ संयोग है और विज्ञान विशेषतौर पर मंगल ग्रह के अध्ययन के लिए ये नमूने किसी बेशकीमती खजाने से कम नहीं। ऐसी ही एक उल्का दिसंबर 1984 को अंटार्कटिक में वैज्ञानिकों की एक टीम को मिली थी। जब इसकी जांच की गई तो पता लगा कि ये उल्का करीब दो करोड़ साल पहले मंगल ग्रह से आई थी और खोजे जाने से पहले, यानि 11,000 साल तक अंटार्कटिक का बर्फ में पड़ी रही थी। इस उल्का का नाम रखा गया ALH84001 , नासा की लैब में जब इसकी जांच की गई तो इसमें एक खास तत्व मैगनेटाइट मिला, धरती पर कुछ खास बैक्टीरिया ही इस खास तत्व को बनाते हैं। जब इस उल्का को काटा गया तो इसमें एक ही आकार के ऐसे सूक्ष्म क्रिस्टल्स की लड़ी सी सजी मिली जो सीधे-सीधे किसी बैक्टीरिया की ओर इशारा कर रही थी। तो क्या मंगल ग्रह पर जीवन बैक्टीरिया के रूप में मौजूद है? इस सवाल की सनसनी पूरे विज्ञान जगत में महसूस की गई। नवंबर 2009 को नासा वैज्ञानिकों ने बताया कि अंटार्कटिक में मिली उल्का ALH84001 के सूक्ष्म जांच के बाद हम कह सकते हैं कि मंगल ग्रह पर कभी जीवन मौजूद था।
 
मंगल पर खोई जिंदगी की कड़ियां

जीने के क्रम में हर जीव रोज कचरा निकालता है, निर्जीव चीजें कचरा नहीं निकालतीं। जीवन का हर स्वरूप यहां तक कि बैक्टीरिया भी कचरे के रूप में कुछ ऐसे खास रसायन पीछे छोड़ता है, जो जीवन की तलाश में सूत्र का काम करते हैं। मंगल पर जिंदगी के कचरे, जीवन के इन्हीं खोए सूत्रों की तलाश ही क्यूरियोसिटी का मिशन है। अब तक हम जीवन के उस स्वरूप से ही परिचित हैं, जिसे हमने अपने चारोंओर, इस पृथ्वी के जल, थल और नभ में विचरते देखा है। धरती के भीतर बैक्टीरिया के रूप से लेकर पेड़-पौधे और सकल जीव जगत तक जिंदगी का हर रूप प्रमुख तौर पर केवल 4 तत्वों - हाइड्रोजन, ऑक्सीजन, नाइट्रोजन और कार्बन से संयोग से ही बना है। पृथ्वी पर निर्जीव और सजीव के साथ ये संपूर्ण सृष्टि केवल दो यौगिकों के रूप में हमारे सामने है, पहली इनऑर्गेनिक यानि अकार्बनिक यौगिक और दूसरी ऑर्गेनिक यानि कार्बनिक यौगिक। इनऑर्गेनिक यानि अकार्बनिक यौगिक का मतलब ऐसी चीजों से है जो कार्बन से नहीं बनीं, यानि जो जलने पर कोयले में नहीं बदल जातीं। ऑर्गेनिक यानि कार्बनिक यौगिक का अर्थ ऐसी सभी चीजों से है जो कार्बन से बनीं हैं और जलने पर वापस कार्बन यानि कोयले में बदल जाती हैं। इस धरती पर बैक्टीरिया से लेकर पेड़-पौधे और मछली, पंछी, मानव तक जिंदगी का हर स्वरूप कार्बन से बना है। हम पृथ्वी पर जिंदगी के जिन स्वरूपों से परिचित हैं वो सभी ऑर्गेनिक यानि कार्बनिक हैं।

मंगल पर जिंदगी की खोज

मंगल पर जिंदगी के इसी जाने-पहचाने ऑर्गेनिक स्वरूप की खोज की कहानी शुरू होती है 1976 से जब नासा के वाइकिंग-2 मिशन ने मंगल ग्रह पर लैंड कर उसकी मिट्टी के नमूने पहली बार जांचे थे। वाइकिंग-2 ने अपनी  रोबोटिक आर्म के सिरे पर बनी चम्मच जैसी संरचना से मंगल की मिट्टी का नमूना उठाया और उसे अपने टेस्ट चैंबर में मौजूद कार्बन-14 न्यूट्रिएंट्स के साथ मिलाया। नासा के कंट्रोल रूम में मौजूद वैज्ञानिकों की टीम करोड़ों किलोमीटर दूर मंगल ग्रह पर हो रहे इस प्रयोग को दम साधे देख रही थी। वैज्ञानिकों की इस टीम में गिल्बर्ट लेविन भी मौजूद थे, लेविन और उनकी टीम ने मंगल पर जीवन की खोज करने वाले इस प्रयोग के उपकरणों को बनाया था, जिसे वाइकिंग अब मंगल पर आजमा रहा था। सबको इंतजार था वाइकिंग के नतीजों का।
वाइकिंग ने मंगल की मिट्टी के नमूने के परीक्षण का नतीजा नासा कंट्रोल रूम को भेजना शुरू किया और अगले ही पल गिल्बर्ट लेविन और उनकी टीम खुशी में भरकर चीख उठी और तमाम वैज्ञानिक अपनी सीटों से उठकर तालियां बजाने लगे। वाइकिंग बता रहा था कि उसने मंगल की मिट्टी से फूटती मीथेन गैस खोजी है। मंगल पर जिंदगी की तलाश की ये पहली कोशिश थी जिसका नतीजा पॉजिटिव था। मंगल पर मीथेन गैस का मिलना सीधे-सीधे इस ओर इशारा था कि वहां इस गैस को बनाने वाले बैक्टीरिया मौजूद हैं। वाइकिंग पर लगे गिल्बर्ट लेविन के उपकरणों ने शानदार काम किया था। मंगल पर जिंदगी की खोज के लिए इस खास प्रयोग की रूपरेखा तय करने वाले और महान एस्ट्रोफिजिसिस्ट डॉ. कार्ल सगान ने मंगल ग्रह पर जिंदगी के रासायनिक हस्ताक्षर की पहली खोज के लिए फोन करके गिल्बर्ट लेविन और उनकी टीम को बधाई दी।
खुशी में झूम रहे लेविन ने शैम्पेन मंगवाई, लेकिन वो बोतल खोली नहीं जा सकी, अगले ही पल सबके चेहरों के भाव बदल गए और कंट्रोल रूम में ठंडी खामोशी छा गई। क्योंकि वाइकिंग अब दूसरे उपकरण से परीक्षण के नतीजे भेज रहा था, जिसे मंगल पर ऑर्गेनिक कणों यानि कार्बन या उसके यौगिकों की पहचान करने के लिए वाइकिंग पर लगाया गया था। सबको यकीन था कि मीथेन की खोज के बाद मंगल की मिट्टी में ऑर्गेनिक यानि कार्बनिक यौगिक जरूर मिल जाएंगे, जो मंगल पर जीवन की मौजूदगी का सबसे बड़ा सबूत साबित होंगे। लेकिन वाइकिंग के दूसरे उपकरण के परीक्षण नतीजे निगेटिव थे। वाइकिंग के उपकरण मंगल की मिट्टी के नमूने में कार्बनिक यौगिकों यानि ऑर्गेनिक कंपाउंड्स को नहीं खोज सके। कार्बन नहीं तो जिंदगी भी नहीं। उस वक्त के नासा प्रमुख ने बयान जारी कर कहा कि वाइकिंग ने मंगल की मिट्टी का परीक्षण किया और वहां हमें जिंदगी का कोई निशान नहीं मिला।
 तो क्या गिल्बर्ट लेविन के उपकरणों के नतीजे गलत थे? 36 साल बाद अब भी गिल्बर्ट लेविन ये मानने को तैयार नहीं हैं। वाइकिंग मिशन के उस परीक्षण ने उनकी जिंदगी ही बदल कर रख दी। वाइकिंग पर लगे अपने उपकरणों के नतीजों को सही साबित करना और हर मंच पर पूरी जोरदारी के साथ ये कहना कि मंगल ग्रह पर जिंदगी मौजूद है, उनकी जिंदगी का लक्ष्य बन गया है। गिल्बर्ट मंगल पर जीवन के जिस रूप के मौजूद होने की वकालत कर रहे हैं, वैज्ञानिकों ने उसका नामकरण भी उनके नाम पर करते हुएगिलेविनिया स्ट्राटा रख दिया है। गिलेविनिया स्ट्राटा मीथेन बनाने वाला मंगल ग्रह का एक ऐसा बैक्टीरिया है, जिसपर गिल्बर्ट लेविन को तो यकीन है, लेकिन नासा को अभी उसकी खोज करनी बाकी है। 
मंगल पर नासा का नया मिशन मार्स साइंस लैबोरेटरी या क्यूरियोसिटी के लैंड होते ही गिल्बर्ट एक बार फिर सक्रिय हो उठे हैं। वो हर मंच पर पूरे यकीन के साथ कह रहे हैं कि क्यूरियोसिटी उन्हीं नतीजों की एक बार फिर पुष्टि करेगा जो वाइकिंग मिशन के साथ गए उनके उपकरणों ने 36 साल पहले भेजे थे। मंगल पर जीवन मौजूद है इस पर यकीन करने वाले गिल्बर्ट अकेले नहीं हैं, लॉस एंजिल्स की यूनिवर्सिटी आफ साउदर्न कैलीफोर्निया के सेल बायोलॉजिस्ट जो मिलर ने वाइकिंग के उस पुराने डेटा का फिर से विश्लेषण किया है और उनका मानना है कि मंगल की मिट्टी से फूटती मीथेन वहांसरकाडियन साइकिल यानि दिन और रात के चक्र पर आधारित जीव की ओर इशारा कर रही है, जिसका केवल एक ही मतलब है कि मंगल जिंदा है।
गिल्बर्ट नासा से मांग कर रहे हैं कि अगर क्यूरियोसिटी मंगल पर मीथेन खोज निकालती है तो 36 साल पुराने उनके वाइकिंग प्रयोग के डेटा की दोबारा जांच की जानी चाहिए। गिल्बर्ट कहते हैं, मंगल पर अब तक गए नासा के किसी भी मिशऩ ने वाइकिंग के मेरे प्रयोग के नतीजों का खंडन नहीं किया है। मुझे पूरा यकीन है कि मंगल की मिट्टी में ऑर्गेनिक यानि कार्बनिक यौगिक खोज निकालने में क्यूरियोसिटी कायमाब रहेगा। तब नासा को 36 साल पुराने वाइकिंग के नतीजों का फिर से विश्लेषण करना ही होगा।  
वॉशिंगटन में कार्नेगी इंस्टीट्यूट फार साइंस में भूवैज्ञानिक रॉबर्ट हैजेन कहते हैं, गिल्बर्ट के दावे आधारहीन नहीं हैं, वाइकिंग मिशऩ पर उनके उपकरणों के नतीजे चौंकानेवाले हैं, जिन्हें अब तक ठीक-ठीक समझने की कोशिश भी नहीं की गई है। वाइकिंग मिशन से पहले और काफी हद तक अब भी हम भोजन को पचाने वाले कार्बनिक जीवन को ही असली जिंदगी समझकर खोज रहे हैं। जबकि हो सकता है कि जीवन का एक अकार्बनिक रूप भी मौजूद हो। 

शुक्रवार, 4 जून 2010

बिना खिड़की का घर, सीलबंद दरवाजा और 520 दिन

आपसे अगर कहा जाए कि घर के किसी एक कमरे में आपको रोजमर्रा की जरूरत की सारी चीजें दी जाएंगी, लेकिन शर्त यकी कि आपके खिड़की-दरवाजे सीलबंद कर दिए जाएंगे, तो ऐसे जेलनुमा घर में आप कितने दिन तक रह सकते हैं? शायद एक हफ्ते, या फिर ज्यादा से ज्यादा एक महीना...लेकिन अगर इसके बाद भी आपको वहीं रहना पड़े तो....?
पहले मंगलयात्रियों को लेकर रूस और यूरोपियन स्पेस एजेंसी के एक मिलेजुले प्रयोग 'मार्स 500' के तहत छह लोगों को डिब्बेनुमा एक ऐसे घर में बंद कर दिया गया है, जिसमें एक भी खिड़की नहीं है। इन छह प्रायोगिक मंगलयात्रियों में तीन रूसी, दो यूरोपियन और एक चीन का है। इन्हें मार्स 500 स्टेशन में भेजकर स्टेशन का अकेला दरवाजा सीलबंद कर दिया गया है। इस प्रयोग का मकसद ये पता लगाना है कि मंगल जाने वाले भविष्य के किसी स्पेसशिप पर सवार मंगलयात्रियों के दिलोदिमाग पर करीब छह महीने लंबा ये सफर कैसा असर डालेगा? घर-परिवार-धरती से दूर चार-पांच लोगों की टीम स्पेसशिप के सीलबंद माहौल में आपस में कैसा बर्ताव करेगी? और ये अकेलापन और उबाऊ माहौल मंगलयात्रियों की मनोदशा और उनकी सेहत पर कितना असर डालेगा? मार्स 500 प्रयोग के तहत ये सभी छह लोग बिल्कुल उसी तरह रोजमर्रा का कामकाज करेंगे मानो वो मंगल के लंबे सफर पर हों।
इस प्रयोग में जान-बूझकर किसी भी महिला को शामिल नहीं किया गया है, क्योंकि डर इस बात का है कि टीम में किसी महिला के होने से टीम गुटों में बंट सकती है, आपस में मतभेद उत्पन्न हो सकते हैं और यौन संबंध भी बन सकते हैं। ये सारी बातें मार्स 500 के प्रयोग को मकसद से भटका सकती हैं। बहरहाल महिलाओं ने मार्स 500 के आयोजकों पर लिंग के आधार भेदभाव का आरोप लगाया है।

मंगलवार, 11 मई 2010

मंगल से पृथ्वी और चंद्रमा


देखिए, शानदार तस्वीर अंतरिक्ष के अंधेरे में खोई आधी पृथ्वी और आधे चंद्रमा की। ये तस्वीर बेहद खास है, क्योंकि हमारी पृथ्वी और उसके चंद्रमा की किसी दूसरे ग्रह से ली गई ये पहली तस्वीर है। इस तस्वीर को लिया है मंगल ग्रह की कक्षा में मौजूद नासा के स्पेसक्राफ्ट मार्स रिकॉनिसां ऑरबिटर ने। इस तस्वीर में चंद्रमा की तरह हमारी धरती भी कलाओं यानि आधी कटी हुई नजर आ रही है। हमारी धरती भी अपेक्षाकृत रूप से सूरज के नजदीक है, इसीलिए चंद्रमा, शुक्र और बुध की तरह धरती भी कलाएं बदलती नजर आती है, ये बात और है कि धरती की कलाओं को देखने के लिए मंगल जैसे किसी दूसरे ग्रह पर जाना जरूरी है।
मार्स रिकॉनिसां ऑरबिटर ने ये तस्वीर 2007 में खींची थी, और उस वक्त हमारी धरती मंगल ग्रह से 8 करोड़ 80 लाख मील दूर थी। नासा ने ये तस्वीर अब जारी की है। खास बात ये कि मंगल ग्रह से हम धरती की पूरी गोल तस्वीर तभी देख सकते हैं, जब धरती सूरज के पीछे की ओर से गुजर रही हो। लेकिन उस स्थिति में मंगल से धरती की दूरी इतनी ज्यादा बढ़ जाएगी कि पृथ्वी हमें एक नीले चमकदार सितारे जैसी ही नजर आएगी। जैसा कि ऊपर की दूसरी तस्वीर में दिखाया गया है।

रविवार, 21 जून 2009

बस कुछ दिन और, हम भी होंगे मंगल पर !

चंद्रमा पर पहुंचने के बाद अब मंगल तक पहुंचना हमारे लिए नामुमकिन नहीं रहा। बैंगलोर के इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ एस्ट्रोफिजिक्स के साइंटिस्ट आजकल एक ऐसे नए स्पेसक्राफ्ट की डिजाइन पर काम कर रहे हैं, जिसका इस्तेमाल मंगल तक जाने में किया जा सके। खास बात ये कि हमें मंगल तक जाने वाले इस स्पेसक्राफ्ट का इंजन सोलर या फिर आयन बेस्ड
भारत ने 2025 तक मंगल तक पहुंचने का लक्ष्य तय किया है। और इसे साकार कर दिखाने के काम में जुटे हैं इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एस्ट्रोफिजिक्स के वैज्ञानिक। मंगल तक जाने वाले इस स्पेसक्राफ्ट की डिजाइन के काम में जुटे थ्योरी गुप के प्रोफेसर सी. शिवराम ने बताया कि हमारे पास लंबी दूरी तक स्पेसक्राफ्ट भेजने की शुरुआती तकनीक मौजूद है। उन्होंने कहा कि इस मुद्दे पर काम किया जाना है कि ये स्पेसक्राफ्ट किस तरह का हो क्योंकि इसे मंगल तक जाने में आठ महीनों का लंबा सफर तय करना पडे़गा। शिवराम दो ऐसे मॉडल्स पर काम कर रहे हैं जिनमें ऊर्जा और समय दोनों की बचत होगी। मार्स स्पेसक्राफ्ट का पहला मॉडल है सोलर सेल मॉडल, इसमें स्पेसक्राफ्ट के साथ नाव के पाल जैसी संरचनाएं लगी होंगी। सूरज की किरणों में मौजूद फोटॉन्स जब इनसे टकराएंगे तो इस टक्कर के मिलने वाले बल से ये स्पेसक्राफ्ट आगे बढ़ेगा। लेकिन इसके लिए बहुत अच्छे किस्म के सोलर स्टोरेज डिवाइस की जरूरत है। लेकिन इस पर अभी काफी काम की जरूरत है क्योंकि फिलहाल सोलर स्टोरेज और डिस्ट्रिब्यूशन बहुत महंगा है। इसी वजह से सोलर तकनीक में जोर फिलहाल इसकी लागत घटाने पर है। शिवराम का दूसरा मॉडल आयन इंजन पर आधारित है। वो बताते हैं, आयन दरअसल उच्च संवेग वाले चार्ज्ड पार्टिकल होते हैं। इनकी मदद से तेज और लंबी फ्लाइट मुमकिन हो है। फिलहाल, इन दोनों इंजनों पर रॉकिट डायनॉमिक्स के तहत इसरो के सहयोग से काम हो रहा है।

मंगलवार, 28 अप्रैल 2009

मंगल पर जिंदगी के निशान, बस 10 साल के भीतर


पृथ्वी से बाहर जीवन की तलाश अगले दशक में पूरी होने वाली है। ये तलाश पूरी हो रही है इस जवाब के साथ कि जिंदगी केवल पृथ्वी तक ही सीमित नहीं है। पृथ्वी के अलावा जिंदगी की मौजूदगी के सबसे शक्तिशाली निशान हमें मिले हैं अपने पड़ोसी ग्रह मंगल से। मंगल पर मौजूद नासा के फीनिक्स मिशन के मुख्य वैज्ञानिक पीटर स्मिथ का मानना है कि अगले दशक तक हम मंगल में जिंदगी के निशान खोजने में कामयाब रहेंगे।
पीटर स्मिथ यूनिवर्सिटी आफ एरीजोना के प्रोफेसर हैं और उन्होंने मंगल पर जीवन के निशान खोजने के लिए भेजे गए फीनिक्स मार्स मिशन में शामिल साइंटिस्टों की टीम का नेतृत्व भी किया था। अप्रैल के दूसरे हफ्ते में यूनिवर्सिटी आफ डेलावेयर में अपने व्याख्यान के दौरान उन्होंने ये कहकर श्रोताओं में सनसनी फैला दी कि मंगल पर जिंदगी के निशान अगले दशक में मिल सकते हैं। उन्होंने ये भी कहा कि उनके इस यकीन और आत्मविश्वास की वजह हैं वो अदभुत सुराग जो फीनिक्स ने हमें भेजे हैं। उन्होंने कहा कि मंगल पर जिंदगी की खोज, इस दुनिया और मानव सभ्यता के इतिहास की सबसे बड़ी खोज होगी। बहुत मुमकिन है कि मंगल पर जाने वाला अगला मिशन ‘मार्स साइंस लैबोरेटरी’ ही हमें ये सबसे बड़ी खबर भेज दे।
फीनिक्स मिशन मंगल के उत्तरी ध्रुवीय इलाके में 2007 को भेजा गया था, लेकिन सात महीने तक एक ही जगह पर काम करने के बाद फीनिक्स अचानक स्लीप मोड में चला गया। इस साल अक्टूबर में वैज्ञानिक फीनिक्स को दोबारा जगाने की कोशिश करेंगे, लेकिन फीनिक्स अब दोबारा जागेगा, इसकी संभावना कम ही है।

सोमवार, 13 अप्रैल 2009

मंगल की धूल में डीएनए की तलाश


मंगल ग्रह पर एक नए अभियान भेजने की योजना बनाई जा रही है जो मंगल की धूल में मौजूद जीवन के डीएनए पहचानेगा। मंगल की धरती के नीचे छिपा पानी की बर्फ का विशाल भंडार और मंगल के वातावरण में मिला मीथेन के बादल की खोज से इस ग्रह पर जीवन की मौजूदगी के संकेत और मजबूत हुए हैं, क्योंकि बैक्टीरिया जैसे कई सूक्ष्मजीव मीथेन पैदा करते हैं।
हॉवर्ड मेडिकल स्कूल के बायोलॉजिस्ट गैरी रवकुन और उनके सहयोगी मंगल पर डीएनए ढूंढकर उसकी सीक्वेंसिंग करने के प्रोजेक्ट पर काम कर रहे हैं। इसके लिए उनका प्लान अगले 10 सालों के दौरान मंगल पर एक डीएनए एंप्लीफायर और सीक्वेंसर भेजने का है। उन्हें भरोसा है कि मंगल पर मिलने वाले जीवन के निशान पृथ्वी के जैव विकास के दौरान लाल ग्रह से उसके संबंध को दिखाएंगे। इस वजह से इनके जिनेटिक कोड भी समान होंगे। इस खोज के लिए एक प्रोजेक्ट चल रहा है जिसका नाम है सर्च फॉर एक्स्ट्रा टेरेस्ट्रियल जीनोम्स या एसईटीजी। अमेरिकी स्पेस एजेंसी नासा भी इसे सपोर्ट कर रही है। इसके लिए मंगल पर भेजे जाने वाली लैब के प्रोटोटाइप या नमूने पर काम चल रहा है। फिलहाल इसे 2018 में लॉन्च करने का विचार है। यह रोबॉटिक लैब मंगल की सतह पर जाकर मिट्टी या बर्फ का सैंपल खोद कर उसका एक डाई के साथ मिक्सचर बनाएगी। इस डाई की खासियत यह है कि यह डीएनए के संपर्क में आते ही चमकने लगती है। जैसी ही मिक्सचर का कोई हिस्सा चमकेगा उसे डीएनए एंप्लीफिकेशन के लिए भेजा जाएगा। सुनने में यह आसान लग रहा है लेकिन ऐसा करना काफी मुश्किल है। फिलहाल वैज्ञानिक इस कोशिश में लगे हैं कि इस लैब का आकार इतना छोटा रखा जाए कि यह मार्स लैंडर के साथ मंगल तक जा सके।

रविवार, 22 मार्च 2009

तलाश मंगल पर जीवन की !


मंगल ग्रह अब भी हमारे लिए एक अनसुलझी पहेली जैसा ही है। ये तस्वीर है मंगल पर मौजूद एक पठार की जिससे मीथेन गैस फूट रही है, वैज्ञानिकों का मानना है कि ये पठार दलदली है और इसकी गहराई में बैक्टीरिया जैसे सूक्ष्मजीवों के रूप में जिंदगी के निशान मौजूद हो सकते हैं। माना जा रहा है कि मंगल के बैक्टीरिया ही इस पठार से फूटने वाली मीथेन गैस को पैदा कर रहे हैं। मंगल पर इस जैसे तीन दलदली पठार खोजे गए हैं, जिनसे बुलबुले के रूप में मीथेन गैस फूट रही है। वैज्ञानिकों का मानना है कि इन पठारों से कुछ किलोमीटर नीचे माहौल जरूर कुछ ऐसा होगा जहां अपने तरल रूप में पानी और उसकी नमी में फलते-फूलते बैक्टीरिया मौजूद होंगे।
क्या मंगल पर जीवन है ? हम इस सवाल का जवाब तलाशने में जुटे हैं और अब तक हमें इतना ही पता चला है कि मंगल पर पानी अपने तरल रूप में मौजूद है। हर सुबह मंगल के ध्रुवीय इलाकों पर ओस की चादर बिछ जाती है। यहीं नासा के मिशन फीनिक्स ने हमें पृथ्वी से दूर पहली बार पानी की बूंद की झलक दिखाई थी। फीनिक्स ने हमें ये भी बताया था कि मंगल का पानी थोड़ा खारा है, मंगल की मिट्टी जहरीली नहीं है और करीब पृथ्वी की मिट्टी जैसी ही है, जिसमें पेड़-पौधे उगाए जा सकते हैं। यानि मंगल का माहौल इतना घातक नहीं है कि जीवन वहां पनप ही न सके। मंगल पर जिंदगी के खिलाफ बस दो ही चीजें हैं, एक तो शून्य से नीचे का तापमान और दूसरा सूरज के खतरनाक विकिरण से नहाई मंगल की धरती। हां, मंगल की धरती पर बसने का ख्याल कुछ ठीक नहीं, यहां हमें कई मुश्किलों का सामना करना होगा। लेकिन अगर हम मंगल की धरती के नीचे जाएं तो सारी मुश्किलें आसान होती नजर आती हैं। मंगल की धरती पर धूल-गर्द की ऊपरी पर्त के नीचे कई मीटर मोटी ठोस बर्फ की चादर मौजूद है। विकिरण कोई भी हो, वो बर्फ पर असर नहीं करता, इसलिए बर्फ की इस चादर के नीचे मौजूद मंगल की वो अनदेखी दुनिया सूरज के विकिरण से बेअसर है और यही वजह है कि मंगल पर शोध कर रहे वैज्ञानिकों का मानना है कि मंगल पर अगर कहीं जीवन मौजूद है तो वो यहीं होगा।

मंगलवार, 3 मार्च 2009

सफर को तैयार, अनोखे मंगल यात्री !

हम सदियों से मंगल ग्रह पर जीवन की खोज कर रहे हैं, लेकिन हमें अब तक कुछ खास कामयाबी नहीं मिली है। मंगल ग्रह पर जिंदगी की खोज ने अब एक नया मोड़ ले लिया है। हम अब खुद वहां जाने की तैयारियां कर रहे हैं। लेकिन हमसे पहले कुछ खास अंतरिक्षयात्री मंगल के चंद्रमा फोबे पर भेजे जाएंगे। ये खास अंतरिक्षयात्री होंगे हमारे आसपास पाए जाने वाले बैक्टीरिया, बीजाणु और कुछ कीट-पतंगों के साथ हमारी जानी-पहचानी फफूंदी। इन खास धरतीवासियों को मंगल के चंद्रमा पर भेजने का काम कर रही हैं रूसी स्पेस एजेंसी और अमेरिकी प्लेनेटेरी सोसाइटी। इस खास प्रयोग के पीछे मकसद ये जानना है कि धरती के बाहर तीन साल के सफर के दौरान अंतरिक्ष जीवन के इन स्वरूपों पर क्या असर डालता है। मंगल के दो चंद्रमा हैं फोबे और डिमॉस, खास बात ये कि दोनों ही मंगल के प्राकृतिक चंद्रमा नहीं हैं, ये दोनों विशाल उल्काएं हैं जो मंगल के गुरुत्वाकर्षण से खिंचकर उसके करीब आ गईं और अब दो चंद्रमा बनकर उसके चक्कर काट रहे हैं। मंगल के इन दो चंद्रमाओं पर माहौल मंगल के मुकाबले कहीं ज्यादा सख्त और जीवन के लिए बेहद मुश्किल है। मंगल भेजे जा रहे, जिंदगी के ये स्वरूप धरती पर बेहद विपरीत स्थितियों में भी खुद को बचाने में कामयाब रहे हैं। अब देखना ये है कि मंगल के चंद्रमा फोबे का माहौल इनपर क्या असर डालता है। ये प्रयोग बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके नतीजों से हमें मंगल पर जाने वाले पहले मानव मिशन को तैयार करने में मदद मिलेगी।

शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2009

मंगल पर हिंदी के पांच साल




हमारी भाषा हिंदी मंगल ग्रह पर मौजूद है, इतना ही नहीं, हाल ही में हिंदी ने मंगल ग्रह पर मौजूदगी के पांच साल भी पूरे कर लिए हैं। मंगल पर हिंदी भाषा ही नहीं, बल्कि भारतीय मिट्टी से ढलकर बनी एक अंतरिक्षयात्री का नाम भी मंगल ग्रह पर मौजूद है और मंगल पर हमारे इस गौरव की मौजूदगी के भी पांच साल पूरे हो चुके हैं। मंगल पर हमारे देश की ये दोनों निशानियां ले गए हैं नासा के जुड़वां रोबो जियोलॉजिस्ट रोवर्स जिनके नाम हैं स्पिरिट और अपॉरचुनिटी। जनवरी 2004 में मंगल की लाल धरती पर सबसे पहले स्पिरिट ने 4 तारीख को लैंड किया और 25 तारीख को अपॉरचुनिटी ने। इन दोनों रोबोट्स को मंगल के दो बिल्कुल विपरीत इलाकों पर लैंड कराया गया था, ताकि मंगल के इन दोनों हिस्सों की ज्यादा से ज्यादा जानकारी मिल सके। लेकिन इन रोबोट्स जियोलॉजिस्ट्स ने मंगल पर काम करना शुरू किया था 3 फरवरी 2004 को। सबसे हैरानी की बात तो ये कि नासा ने इन रोबोट्स को मंगल पर केवल छह महीने के लिए भेजा था, लेकिन मंगल पर कई शानदार खोज करने के बाद अब स्पिरिट और अपॉरचुनिटी मंगल पर पांच साल पूरे कर चुके हैं। मंगल की लाल जमीन पर दौड़ते फिर रहे रोबो जियोलॉजिस्ट्स स्प्रिट और अपॉरचुनिटी पर एक खास डायल लगा है। इसे स्पेस शटल कोलंबिया हादसे में जान गंवाने वाले अंतरिक्षयात्रियों के सम्मान में लगाया गया है। इस डायल पर कल्पना चावला समेत कोलंबिया मिशन के सातों अंतरिक्षयात्रियों के नाम लिखे हुए हैं। मंगल पर पांच साल से काम कर रहे रोबो जियोलॉजिस्ट्स स्प्रिट और अपॉरचुनिटी के साथ एक सौरघड़ी भी भेजी गई है। इस सौरघड़ी के किनारे ये देखिए हमारी भाषा हिंदी में लिखा इस ग्रह का नाम चमक रहा है, मंगल। इस सौरघड़ी के किनारों पर दुनिया की 24 दूसरी भाषाओं में भी इस ग्रह का नाम लिखा है। मजेदार बात तो ये कि इनमें दो ऐसी भाषाएं भी हैं जिन्हें बोलने वाली सभ्यताएं सदियों पहले खत्म हो चुकी हैं। ये सभ्यताएं हैं सुमेरिया और माया। इन लुप्त भाषाओं को मंगल भेजने की वजह ये है कि इन सभ्यताओं की कलाकृतियों और चित्रों में अंतरिक्ष और किसी दूसरी दुनिया से आए लोगों का जिक्र मिलता है।मंगल पर भारत का कोई मिशन जाने में अभी काफी वक्त है, लेकिन भारतीयता मंगल पर पहुंच चुकी है। खास बात ये कि मंगल पर भारत की निशानियां भेजने में हमारे किसी राजनेता या इसरो का योगदान नहीं है, बल्कि भारतीयता को मंगल पर भेजा है नासा और कारनेल यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने।