क्या बुध और शुक्र की तरह मंगल ग्रह भी
बेजान है? या फिर धरती की तरह वहां भी जीवन का विकास हुआ और जिंदगी की धड़कन अब भी वहां गूंज रही है? ये सवाल विज्ञान की बड़ी गुत्थियों में से एक है। नासा का मार्स साइंस
लैबोरेटरी मिशन इस गुत्थी को हल करने की दिशा में हमारी सबसे बड़ी पहल है। मार्स
साइंस लैबोरेटरी मिशन जो क्यूरियोसिटी के नाम से भी लोकप्रिय है मंगल ग्रह पर
सफलतापूर्वक लैंड करने के बाद मंगल की मिट्टी में जीवन की तलाश के अपने अभियान की
शुरुआत कर दी है।
ऐसा नहीं है कि हरे रंग का कोई छोटा अजनबी
मंगलवासी उत्सुकता में भरकर बस के आकार वाले हमारे रोबोट से हैलो कहने के लिए अपने
किसी बिल से निकलकर सामने आ खड़ा होगा और ऐसा भी नहीं है कि क्यूरियोसिटी जब मंगल
की मिट्टी के सैंपल लेगा तो उसमें केंचुए जैसे मंगल के जीव खोज लिए जाएंगे। तो फिर
आखिर हम मंगल पर क्या खोज रहे हैं? क्यूरियोसिटी का लक्ष्य
क्या है? और किस चीज के मिलने की उम्मीद में हम मंगल की मिट्टी खंगाल रहे हैं?
नासा के नए मिशन मार्स साइंस लैबोरेटरी या
क्यूरियोसिटी के साथ हम मंगल की मिट्टी में ऑर्गेनिक यानि कार्बनिक यौगिकों को खोज
रहे हैं, जो उस लाल ग्रह पर हमारी पृथ्वी के जैसे जीवन या बैक्टीरिया जैसे उसके
शुरुआती स्वरूप की मौजूदगी का सबसे बड़ा सबूत होगा। मंगल ग्रह पर जीवन के खोए
सूत्रों की पहचान ही करीब एक टन की इस सबसे आधुनिक रोबोटिक लैबोरेटरी का लक्ष्य
है। और हमें उम्मीद है कि मंगल की मिट्टी में हमें जीवन के कुछ ऐसे निशान मिल सकते
हैं, जो शायद जीव विज्ञान के हमारे अब तक के ज्ञान से बाहर हों।
36 साल पहले मंगल ने पृथ्वी वासियों को
बुरी तरह चौंकाया था। नासा का ऑरबिटर मिशन वाइकिंग-1 अपने बाद लांच किए जाने वाले
लैंडर मिशऩ वाइकिंग-2 को लैंड कराने के लिए मंगल पर सही जगह की तलाश कर रहा था।
तभी वो मंगल के साइडोनिया इलाके के ऊपर से गुजरा, वाइकिंग-1 ने वहां की एक ऐसी
तस्वीर भेजी कि नासा वैज्ञानिकों के साथ सारी दुनिया चौंक उठी । मंगल की जमीन से
एक विशाल इंसानी चेहरा आसमान की ओर देख रहा था। ये भावशून्य मानव चेहरा मंगल की
जमीन पर दो मील के दायरे में फैला था। क्या मंगल ग्रह इस चेहरे के जरिए हम
पृथ्वीवासियों को कोई संदेश दे रहा था? मंगल पर मानव चेहरे की सनसनी ज्यादा वक्त तक
कायम नहीं रह सकी, क्योंकि वैज्ञानिकों ने बाद में बताया कि ये मानव चेहरा मंगल का
एक पठार है जो डूबते सूरज के साथ धूप-छांव के खेल की वजह से मानव चेहरे जैसा आभास
दे रहा है। सनसनी भले ही खत्म हो गई ,लेकिन वाइकिंग-1 की ये तस्वीर, मंगल पर जीवन
की तलाश का प्रतीक बन गई।
मंगल से आई उल्काएं
प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के 9 साल बाद का
वक्त, अंग्रेज भारत पर अपनी पकड़ मजबूत करने में जुटे थे। उथल-पुथल से भरे
राजनीतिक-सामाजिक हालात के बीच भारत के बिहार में गया जिले के करीब एक छोटे से
कस्बे शेरघाटी में कुछ ऐसा हुआ कि वो उस वक्त के
वैज्ञानिकों के बीच चर्चा का विषय बन गया। 25
अगस्त 1865 की एक शाम, शेरघाटी के आसमान पर गहरे बादल छाए थे और रुक-रुक कर बारिश
का दौर जारी था, कि तभी तेज आवाज के साथ पूरा कस्बा कांप उठा, आवाज भी ऐसी मानो
किसी ने आसमान चीर दिया हो। घबराए हुए लोग भागकर घर से बाहर आ गए और सैकड़ों
निगाहें आसमान की ओर उठ गईं। लपटों से घिरा एक दहकता हुआ अग्निपिंड क्षितिज के एक
ओर से दूसरी ओर बढ़ा चला जा रहा था। पुलिस की मदद लेकर कुछ हिम्मतवाले लोग सामने
खेतों में उस जगह की ओर दौड़े जहां वो पिंड गिरा था। आसमान से एक बड़ी उल्का गिरी
थी, जिसका वजन 5 किलो था, पुलिस ने उसे तुरंत कब्जे में लेकर कलेक्टर साहब को
भिजवा दिया, जहां से वो उल्कापिंड लंदन पहुंचकर लंबे वक्त तक ब्रिटिश म्यूजियम की
शोभा बढ़ाता रहा। वक्त बदला और विज्ञान की प्रगति के साथ वैज्ञानिकों की दिलचस्पी
उस शेरघाटी उल्का में बढ़ी। आधुनिक युग में बकायदा उसकी रेडियोमीट्रिक डेटिंग वैज्ञानिक
जांच की गई, तो पता चला कि इसका जन्म 4 अरब 10 करोड़ साल पहले मंगल ग्रह पर किसी
ज्वालामुखी के लावे से हुआ था। मंगल ग्रह पर किसी विशाल उल्का के गिरने से उठी धूल
और पथरीले मलबे के गुबार के साथ ये पत्थर भी मंगल ग्रह से छिटक कर संयोग से पृथ्वी,
वो भी भारत के कस्बे शेरघाटी में आ गिरा था। पृथ्वी पर हमें मिली ये मंगल की सबसे
पुरानी उल्का है। शेरघाटी उल्का की हाल की जांच से पता चला है कि इसमें कुछ ऐसे
रासायनिक तत्व हैं जिनका संबंध किसी खास बैक्टीरिया से हो सकता है।
मंगल ग्रह से छिटके ऐसे पत्थरों के 34 नमूने
अमेरिकन स्पेस एजेंसी नासा के पास सुरक्षित हैं। मंगल ग्रह से पत्थरों का छिटककर
धरती पर आ गिरना कुदरत का दुर्लभ संयोग है और विज्ञान विशेषतौर पर मंगल ग्रह के
अध्ययन के लिए ये नमूने किसी बेशकीमती खजाने से कम नहीं। ऐसी ही एक उल्का दिसंबर
1984 को अंटार्कटिक में वैज्ञानिकों की एक टीम को मिली थी। जब इसकी जांच की गई तो
पता लगा कि ये उल्का करीब दो करोड़ साल पहले मंगल ग्रह से आई थी और खोजे जाने से
पहले, यानि 11,000 साल तक अंटार्कटिक का बर्फ में पड़ी रही थी। इस उल्का का नाम
रखा गया ALH84001 , नासा की लैब में जब इसकी जांच की गई तो
इसमें एक खास तत्व मैगनेटाइट मिला, धरती पर कुछ खास बैक्टीरिया ही इस खास तत्व को
बनाते हैं। जब इस उल्का को काटा गया तो इसमें एक ही आकार के ऐसे सूक्ष्म
क्रिस्टल्स की लड़ी सी सजी मिली जो सीधे-सीधे किसी बैक्टीरिया की ओर इशारा कर रही
थी। तो क्या मंगल ग्रह पर जीवन बैक्टीरिया के रूप में मौजूद है? इस सवाल की सनसनी पूरे विज्ञान जगत में महसूस की गई। नवंबर 2009 को नासा
वैज्ञानिकों ने बताया कि अंटार्कटिक में मिली उल्का ALH84001
के सूक्ष्म जांच के बाद हम कह सकते हैं कि मंगल ग्रह पर कभी जीवन मौजूद था।
मंगल पर खोई जिंदगी की कड़ियां
जीने के क्रम में हर जीव रोज कचरा निकालता
है, निर्जीव चीजें कचरा नहीं निकालतीं। जीवन का हर स्वरूप यहां तक कि बैक्टीरिया
भी कचरे के रूप में कुछ ऐसे खास रसायन पीछे छोड़ता है, जो जीवन की तलाश में सूत्र
का काम करते हैं। मंगल पर जिंदगी के कचरे, जीवन के इन्हीं खोए सूत्रों की तलाश ही
क्यूरियोसिटी का मिशन है। अब तक हम जीवन के उस स्वरूप से ही परिचित हैं, जिसे हमने
अपने चारोंओर, इस पृथ्वी के जल, थल और नभ में विचरते देखा है। धरती के भीतर
बैक्टीरिया के रूप से लेकर पेड़-पौधे और सकल जीव जगत तक जिंदगी का हर रूप प्रमुख
तौर पर केवल 4 तत्वों - हाइड्रोजन, ऑक्सीजन, नाइट्रोजन और कार्बन से संयोग से ही बना
है। पृथ्वी पर निर्जीव और सजीव के साथ ये संपूर्ण सृष्टि केवल दो यौगिकों के रूप
में हमारे सामने है, पहली इनऑर्गेनिक यानि अकार्बनिक यौगिक और दूसरी ऑर्गेनिक यानि
कार्बनिक यौगिक। इनऑर्गेनिक यानि अकार्बनिक यौगिक का मतलब ऐसी चीजों से है जो
कार्बन से नहीं बनीं, यानि जो जलने पर कोयले में नहीं बदल जातीं। ऑर्गेनिक यानि
कार्बनिक यौगिक का अर्थ ऐसी सभी चीजों से है जो कार्बन से बनीं हैं और जलने पर वापस
कार्बन यानि कोयले में बदल जाती हैं। इस धरती पर बैक्टीरिया से लेकर पेड़-पौधे और
मछली, पंछी, मानव तक जिंदगी का हर स्वरूप कार्बन से बना है। हम पृथ्वी पर जिंदगी
के जिन स्वरूपों से परिचित हैं वो सभी ऑर्गेनिक यानि कार्बनिक हैं।
मंगल पर जिंदगी की खोज
मंगल पर जिंदगी के इसी जाने-पहचाने
ऑर्गेनिक स्वरूप की खोज की कहानी शुरू होती है 1976 से जब नासा के वाइकिंग-2 मिशन
ने मंगल ग्रह पर लैंड कर उसकी मिट्टी के नमूने पहली बार जांचे थे। वाइकिंग-2 ने
अपनी रोबोटिक आर्म के सिरे पर बनी चम्मच
जैसी संरचना से मंगल की मिट्टी का नमूना उठाया और उसे अपने टेस्ट चैंबर में मौजूद
कार्बन-14 न्यूट्रिएंट्स के साथ मिलाया। नासा के कंट्रोल रूम में मौजूद वैज्ञानिकों
की टीम करोड़ों किलोमीटर दूर मंगल ग्रह पर हो रहे इस प्रयोग को दम साधे देख रही
थी। वैज्ञानिकों की इस टीम में गिल्बर्ट लेविन भी मौजूद थे, लेविन और उनकी टीम ने
मंगल पर जीवन की खोज करने वाले इस प्रयोग के उपकरणों को बनाया था, जिसे वाइकिंग अब
मंगल पर आजमा रहा था। सबको इंतजार था वाइकिंग के नतीजों का।
वाइकिंग ने मंगल की मिट्टी के नमूने के
परीक्षण का नतीजा नासा कंट्रोल रूम को भेजना शुरू किया और अगले ही पल गिल्बर्ट
लेविन और उनकी टीम खुशी में भरकर चीख उठी और तमाम वैज्ञानिक अपनी सीटों से उठकर
तालियां बजाने लगे। वाइकिंग बता रहा था कि उसने मंगल की मिट्टी से फूटती मीथेन गैस
खोजी है। मंगल पर जिंदगी की तलाश की ये पहली कोशिश थी जिसका नतीजा पॉजिटिव था।
मंगल पर मीथेन गैस का मिलना सीधे-सीधे इस ओर इशारा था कि वहां इस गैस को बनाने
वाले बैक्टीरिया मौजूद हैं। वाइकिंग पर लगे गिल्बर्ट लेविन के उपकरणों ने शानदार
काम किया था। मंगल पर जिंदगी की खोज के लिए इस खास प्रयोग की रूपरेखा तय करने वाले
और महान एस्ट्रोफिजिसिस्ट डॉ. कार्ल सगान ने मंगल ग्रह पर जिंदगी के रासायनिक
हस्ताक्षर की पहली खोज के लिए फोन करके गिल्बर्ट लेविन और उनकी टीम को बधाई दी।
खुशी में झूम रहे लेविन ने शैम्पेन
मंगवाई, लेकिन वो बोतल खोली नहीं जा सकी, अगले ही पल सबके चेहरों के भाव बदल गए और
कंट्रोल रूम में ठंडी खामोशी छा गई। क्योंकि वाइकिंग अब दूसरे उपकरण से परीक्षण के
नतीजे भेज रहा था, जिसे मंगल पर ऑर्गेनिक कणों यानि कार्बन या उसके यौगिकों की
पहचान करने के लिए वाइकिंग पर लगाया गया था। सबको यकीन था कि मीथेन की खोज के बाद
मंगल की मिट्टी में ऑर्गेनिक यानि कार्बनिक यौगिक जरूर मिल जाएंगे, जो मंगल पर
जीवन की मौजूदगी का सबसे बड़ा सबूत साबित होंगे। लेकिन वाइकिंग के दूसरे उपकरण के परीक्षण
नतीजे निगेटिव थे। वाइकिंग के उपकरण मंगल की मिट्टी के नमूने में कार्बनिक यौगिकों
यानि ऑर्गेनिक कंपाउंड्स को नहीं खोज सके। कार्बन नहीं तो जिंदगी भी नहीं। उस वक्त
के नासा प्रमुख ने बयान जारी कर कहा कि वाइकिंग ने मंगल की मिट्टी का परीक्षण किया
और वहां हमें जिंदगी का कोई निशान नहीं मिला।
तो क्या गिल्बर्ट लेविन के उपकरणों के नतीजे गलत
थे? 36 साल बाद अब भी गिल्बर्ट लेविन ये मानने को
तैयार नहीं हैं। वाइकिंग मिशन के उस परीक्षण ने उनकी जिंदगी ही बदल कर रख दी।
वाइकिंग पर लगे अपने उपकरणों के नतीजों को सही साबित करना और हर मंच पर पूरी
जोरदारी के साथ ये कहना कि मंगल ग्रह पर जिंदगी मौजूद है, उनकी जिंदगी का लक्ष्य
बन गया है। गिल्बर्ट मंगल पर जीवन के जिस रूप के मौजूद होने की वकालत कर रहे हैं,
वैज्ञानिकों ने उसका नामकरण भी उनके नाम पर करते हुए “गिलेविनिया
स्ट्राटा” रख दिया है। “गिलेविनिया
स्ट्राटा” मीथेन बनाने वाला मंगल ग्रह का एक ऐसा बैक्टीरिया
है, जिसपर गिल्बर्ट लेविन को तो यकीन है, लेकिन नासा को अभी उसकी खोज करनी बाकी
है।
मंगल पर नासा का नया मिशन मार्स साइंस
लैबोरेटरी या क्यूरियोसिटी के लैंड होते ही गिल्बर्ट एक बार फिर सक्रिय हो उठे
हैं। वो हर मंच पर पूरे यकीन के साथ कह रहे हैं कि क्यूरियोसिटी उन्हीं नतीजों की
एक बार फिर पुष्टि करेगा जो वाइकिंग मिशन के साथ गए उनके उपकरणों ने 36 साल पहले
भेजे थे। मंगल पर जीवन मौजूद है इस पर यकीन करने वाले गिल्बर्ट अकेले नहीं हैं,
लॉस एंजिल्स की यूनिवर्सिटी आफ साउदर्न कैलीफोर्निया के सेल बायोलॉजिस्ट जो मिलर
ने वाइकिंग के उस पुराने डेटा का फिर से विश्लेषण किया है और उनका मानना है कि
मंगल की मिट्टी से फूटती मीथेन वहां ‘सरकाडियन साइकिल’ यानि दिन और रात के चक्र पर आधारित जीव की ओर इशारा कर रही है, जिसका
केवल एक ही मतलब है कि मंगल जिंदा है।
गिल्बर्ट नासा से मांग कर रहे हैं कि अगर
क्यूरियोसिटी मंगल पर मीथेन खोज निकालती है तो 36 साल पुराने उनके वाइकिंग प्रयोग
के डेटा की दोबारा जांच की जानी चाहिए। गिल्बर्ट कहते हैं, “मंगल
पर अब तक गए नासा के किसी भी मिशऩ ने वाइकिंग के मेरे प्रयोग के नतीजों का खंडन
नहीं किया है। मुझे पूरा यकीन है कि मंगल की मिट्टी में ऑर्गेनिक यानि कार्बनिक
यौगिक खोज निकालने में क्यूरियोसिटी कायमाब रहेगा। तब नासा को 36 साल पुराने
वाइकिंग के नतीजों का फिर से विश्लेषण करना ही होगा।”
वॉशिंगटन में कार्नेगी इंस्टीट्यूट फार
साइंस में भूवैज्ञानिक रॉबर्ट हैजेन कहते हैं, “
गिल्बर्ट के दावे आधारहीन नहीं हैं, वाइकिंग मिशऩ पर
उनके उपकरणों के नतीजे चौंकानेवाले हैं, जिन्हें अब तक ठीक-ठीक समझने की कोशिश भी
नहीं की गई है। वाइकिंग मिशन से पहले और काफी हद तक अब भी हम भोजन को पचाने वाले
कार्बनिक जीवन को ही असली जिंदगी समझकर खोज रहे हैं। जबकि हो सकता है कि जीवन का
एक अकार्बनिक रूप भी मौजूद हो।
भाई आपका ब्लाग बहुत ही पसंद आया अंतरीक्ष और इलियन के बारे में बहुत ही अच्छी जानकारियाँ दी है पर मेने अभी डिस्कवरी साइंस पर प्रोग्राम देखा जिस में कहा ह की एक अंतरिक्स यान जो दूसरे ग्रह का ह हमारे सोरमंडल के पास ह और तिन महीने में हमारी धरती पर आ रहा हैं जिसने हमें कई रेडियो सिग्नल भी भेजे ह इसमें कितनी सचाई ह या ये बात पूरी तरह बकवास ह कृपया हमे जानकारी दे ....धन्यवाद
जवाब देंहटाएंAmezing knowlege. And amezing blog ever i seen. Thanks for posting so amezing articals.
जवाब देंहटाएंbadiya.......apake blag bahut acche hai..
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