रात के आसमान में किसी सबसे छोटे और सबसे धुंधले सितारे को देखने की कोशिश
कीजिए, ‘वॉयेजर-1’ के कैमरे से हमारा सूरज बिल्कुल वैसा ही नजर आता है। ‘वॉयेजर-1’ का सफर किसी खास सितारे
की ओर नहीं है, लेकिन फिरभी करीब 40,000 साल बाद ये 1.6 प्रकाशवर्ष दूर मौजूद सितारे
AC + 793888 (ये उस सितारे का वैज्ञानिक
कोड है) के करीब से गुजरेगा। इस सितारे की खास बात ये है कि ये 4,30,000 किलोमीटर
प्रति घंटे की रफ्तार से हमारे सौरमंडल की ओर बढ़ा चला आ रहा है। ‘वॉयेजर-1’ की रफ्तार अब 61400
किलोमीटर प्रति घंटे तक पहुंच चुकी है और इस रफ्तार से ये 74,438 साल में सूरज से सबसे
करीब के सितारे प्रॉक्सिमा सेंटौरी को भी पार कर जाएगा। सैद्धांतिक रूप से प्रकाश की
गति यानि 300,000 किलोमीटर प्रति सेकेंड की रफ्तार हासिल करने में ‘वॉयेजर-1’ को अभी 17522 साल और
लगेंगे। डीप स्पेस नेटवर्क में बैठे वैज्ञानिकों और ‘वॉयेजर-1’ के बीच संपर्क बनाए
रखने का काम रेडियो सिगनल्स करते हैं जो प्रकाश की गति से चलते हैं। सौरमंडल को पीछे
छोड़ गहन अंतरिक्ष में प्रवेश कर चुका ‘वॉयेजर-1’ मानव निर्मित ऐसा अकेला स्पेस प्रोब है जो
धरती से सबसे दूर यानि पृथ्वी से 17 अरब 96 करोड़ किलोमीटर से भी दूर जा चुका है।
मिशन का मकसद
70 के दशक के अंत में एक अदभुत खगोलीय घटना घटी। बृहस्पति,
शनि, यूरेनस और नेप्च्यून ऐसी विशेष स्थिति में आ रहे थे कि किसी एक स्पेसक्राफ्ट की
मदद से एक के बाद एक इन चारों ग्रहों के करीब से होकर गुजरा जा सकता था। इस तरह किसी
ग्रह के करीब से गुजर जाने को विज्ञान की भाषा में फ्लाई-बाई कहते हैं। सौरमंडल के
ग्रहों की ये स्थिति हर 177 साल बाद बनती है। नासा की जेट प्रोपल्शन लैब के एयरोस्पेस
इंजीनियर गैरी फ्लैंड्रो ने ग्रहों की बन रही इस खास स्थिति का अध्ययन कर एक अनोखी
बात खोज निकाली। गैरी ने गणित की मदद से समझाया कि अगर कोई स्पेसक्राफ्ट एक खास कोण
से बृहस्पति के करीब से गुजरता है तो इस ग्रह का गुरुत्वाकर्षण खिंचाव उसे एक ऐसी जबरदस्त
अतिरिक्त उछाल दे देगा, जिससे वो स्पेसक्राफ्ट बिना ईंधन खर्च किए सीधे शनि तक जा पहुंचेगा।
ब्रहस्पति की तरह शनि के गुरुत्वाकर्षण से मिली अतिरिक्त उछाल से उसे आगे के ग्रह यूरेनस
और नेपच्यून और उससे भी आगे जाना मुमकिन है। ये बिल्कुल नया विचार था, बेहद कम ईंधन
खर्च करके केवल गुरुत्वाकर्षण की उछाल का इस्तेमाल करके अंतरिक्ष में दूर-दराज का सफर
मुमकिन था। फौरन नासा ने एक ‘ग्रांड टूर’ की योजना बनाई जिसके तहत बृहस्पति, शनि और उससे आगे नेप्च्यून, प्लूटो तक अलग-अलग
जुड़वा स्पेसक्राफ्ट भेजे जाने थे। लेकिन इस ‘ग्रांड टूर’ योजना का बड़ा हिस्सा रद्द हो गया, क्योंकि अमेरिकी
कांग्रेस ने इतना फंड देने से इनकार कर दिया। केवल इतनी मंजूरी मिल पाई कि बस दो स्पेस
प्रोब भेजे जाएं। इस तरह नासा ने वॉयेजर मिशन पर काम शुरू किया, जिसके तहत दो प्रोब
वॉयेजर-1 और वॉयेजर-2 बृहस्पति और शनि को भेजे जाने थे।
जुड़वां मिशन
1977 में इन जुड़वा स्पेस प्रोब्स में वॉयेजर-2 को पहले
लांच किया गया। ग्रहों की अनोखी स्थिति को ध्यान में रखते हुए वॉयेजर-2 का प्रक्षेपण
ऐसे खास कोण पर किया गया ताकि ये बृहस्पति, शनि, यूरेनस और नेप्च्यून तक पहुंच सके।
वॉयेजर-1 की लांचिंग इसके जुड़वा प्रोब के कुछ दिन बाद हुई, लेकिन इसका प्रक्षेपण पथ
छोटा और तेज रखा गया, ताकि ये बृहस्पति और शनि पर वॉयेजर-2 से पहले पहुंच सके। वॉयेजर-1
को उच्च प्राथमिकता दी गई, क्योंकि इसे शनि के एक खास चंद्रमा टाइटन के भी बेहद करीब
से गुजरकर उसके वायुमंडल का अध्ययन भी करना था। 19 दिसंबर 1977 को वॉयेजर-2 को पीछे
छोड़ते हुए वॉयेजर-1 उससे आगे निकल गया। 14 जून 2012 को नासा ने बताया कि वॉयेजर-1
अब सौरमंडल के अंतिम छोर से भी आगे निकलकर गहन अंतरिक्ष में लगातार आगे बढ़ता चला जा
रहा है। ‘वॉयेजर-1’ और इसका जुड़वां स्पेसक्राफ्ट ‘वॉयेजर-2’ दोनों दो अलग-अलग दिशाओं में एक-दूसरे से
दूर चले जा रहे हैं और ‘वॉयेजर-1’ की रफ्तार ‘वॉयेजर-2’ की तुलना में 10 प्रतिशत ज्यादा है। दोनों की बीच की दूरी का अंदाजा इसी
से लगाया जा सकता है कि ‘पृथ्वी के कान’ डीप स्पेस नेटवर्क को
‘वॉयेजर-1’ से डेटा लेने के बाद
‘वॉयेजर-2’ को सुनने में 16.5
घंटे का समय लग जाता है।
722 किलो वजनी स्पेसक्राफ्ट
‘वॉयेजर-1’ ‘हेलियोस्फियर’ यानि सूर्यकिरणों की
पहुंच की सीमा वाले अंतरिक्ष के इलाके को पीछे छोड़कर ‘हेलियोशीथ’ यानि गहन ब्रह्मांड
में प्रवेश कर चुका है। ‘वॉयेजर-1’ जल्दी ही ‘इंटरस्टेलर स्पेस’ यानि अंतरिक्ष में
दो सितारों के बीच के इलाके में प्रवेश करने वाला है और इसी के साथ ‘वॉयेजर-1’ हमारे सौरमंडल से भी
आगे निकल जाने वाला पहला मानव निर्मित स्पेसक्राफ्ट बन जाएगा।
Very nice information
जवाब देंहटाएंbahut achhi gyanvardhak jaan kaari pata nahi 40000 varsh baad kya hoga
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