डार्विन को १८ जून १८५८ को मिला पत्र, अल्फ्रेड रसल वॉलेस ने लिखा था। वॉलेस ने अपने पत्र में, प्राणियों की उत्पत्ति के बारे में उसी सिद्धांत को लिखा था जिस पर डार्विन स्वयं पहुँचे थे। लेकिन, वॉलेस के पास, इसके लिए तथ्य नहीं थे। इस सिद्धांत को विश्वसनीयता का जामा पहनाने के लिए, तथ्य डार्विन के ही पास थे। १ जुलाई १८५८ को, डार्विन और वॉलेस के संयुक्त नाम से, एक पेपर लंदन की लिनियन सोसाइटी में पढ़ा गया। इस पेपर में इस सिद्धांत की व्याख्या की गयी थी। मोटे तौर पर यह बताता है -'Evolution is result of chance mutation and natural selection, where survival of the fittest played crucial role.'प्राणी जगत का विकास संयोगिक उत्तपरिर्वन, प्राकृतिक वरण, और योग्यतम की उत्तर जीविका पर आधारित है। डार्विन बेहतरीन व्यक्तित्व के भी मालिक थे डार्विन के लिए यह आसान था कि वह वॉलेस का पत्र छिपा जाते और तथ्यों के साथ सिद्धांत को अपने नाम से प्रकाशित कर देते। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। डार्विन के विचार गुलामी के भी विरूद्ध थे जबकि बीगल के कप्तान फिट्ज़रॉय की राय में यह गलत नहीं था। वे इसकी सफाई देते थे। फिट्ज़रॉय के इन विचारों के लिये, डार्विन ने उसकी निन्दा भी की। इसके कारण बीगल से उसकी नौकरी जाते, जाते बची। ब्राज़ील में उन्हें वहां के जंगलों की सुंदरता तो भायी पर गुलामी ने दुखी किया। वहां से निकलने के बाद डार्विन ने कहा - 'I thank God I shall never again visit a slave country ' मैं भगवान को धन्यवाद दूँगा कि मुझे फिर कभी ग़ुलामों के देश में न जाना पड़े।
साभार - उन्मुक्त (http://unmukt-hindi.blogspot.com/2009/05/charles-darwin-religious-fervour.html)
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