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गुरुवार, 16 दिसंबर 2010

भारत से आन सान सू की का गहरा रिश्ता

भारत हमें बात कहने के मौके दे - सू की


साइंस की बुनियाद आजादी और लोकतांत्रिक अधिकारों में है। इसलिए हम 'वॉयेजर' पर प्रस्तुत कर रहे हैं म्यांमार में नागरिकों की आजादी और लोकतंत्र के लिए संघर्ष कर रही हमारे वक्त की महान नेता आन सान सू की पर विशेष सामग्री।
कम ही लोग जानते होंगे कि दिल्ली स्थित कांग्रेस हेडक्वॉर्टर से म्यांमार की लोकतांत्रिक नेता आन सान सू की का गहरा रिश्ता रहा है। दिल्ली के जिस बंगले में वो रहा करती थीं, आज वहां कांग्रेस का मुख्यालय है। यही नहीं जो कमरा आज राहुल गांधी का है, वही कमरा कभी म्यांमार की महान नेता आन सान सू की का हुआ करता था। सू की जब 15 साल की थीं, तब वो राजधानी दिल्ली के 24 अकबर रोड में रहती थीं जो कि उनकी मां दाव किन की को अलॉट किया गया था। उनकी मां भारत में म्यांमार की राजदूत थीं। लेखक-पत्रकार रशीद किदवई ने अपनी नई किताब '24 अकबर रोड' में इसका जिक्र है। 1911 से 1925 के बीच बने इस बंगले का नाम तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने दाव किन की के सम्मान में 'बर्मा हाउस' रखा था। सू की ने अपने बचपन में खुद के लिए जिस कमरे को चुना था, वो अब कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी का कमरा है। सू ने इस कमरे को इसलिए चुना था क्योंकि इसमें एक बड़ा पियानो रखा था और हर शाम को पियानो टीचर उन्हें इसे बजाना सिखाता था। दिल्ली के इस बंगले में सीखा पियानो बाद में अपने देश में लोकतंत्र के संघर्ष के दौरान उनके बड़े काम आया।
कई साल बाद, रंगून में एक झील के किनारे मौजूद एक खस्ताहाल घर से पियानों की धुनें वहां से गुजरने वालों का ध्यान खींचने लगीं...इन धुनों को सुनकर लोगों को पता चला कि बर्मा की फौजी हुकूमत ने उनकी नेता आन सान सू की को इस जगह नजरबंद किया है...निराशा और अकेलेपन के उस दौर में सू के लिए एकमात्र राहत पियानो ही था...और नजरबंदी में डिप्रेशन से बचने के लिए वो कई-कई घंटों तक पियानो बजाती रहती थीं।
दिल्ली के 24 अकबर रोड में ही सू की ने जापानी तरीके से फूलों को सजाना भी सीखा। यहां के बगीचे में वो संजय गांधी और राजीव गांधी के साथ खेलती थीं। संजय और राजीव उनके अच्छे दोस्त थे...जिनमें से एक का जन्म सू की से एक साल पहले और दूसरे का उनसे एक साल बाद हुआ था। वो अक्सर दोनों के साथ राष्ट्रपति भवन में देखी जातीं थीं, जहां राष्ट्रपति के अंगरक्षकों से वो घोड़े की सवारी करना सीखती थीं। सू की ने अपनी स्कूल की पढ़ाई दिल्ली के सेंट जोसफ गिरजाघर के पास मौजूद जीसस एंड मैरी कॉन्वेंट स्कूल से की थी। सू ने इसके बाद लेडी श्रीराम कॉलेज से पॉलिटिकल साइंस में ग्रेजुएशन की। ऑक्सफोर्ड शिक्षित सू की राजनीति में बहुत बाद में आईं। उनका ज्यादातर वक्त भारत और ब्रिटेन में बीता। म्यांमार के मुक्ति नेता जनरल आंग सान जिनकी हत्या 1947 में ही कर दी गई थी, की बेटी 1988 में अपनी मां की देखभाल के लिए यांगून लौटीं और फिर अपने देश की मिट्टी की होकर रह गईं।
म्यांमार में लोकतंत्र के लिए संघर्ष कर रहीं आंग सान सू की को इस साल 13 नवंबर को नजरबंदी से रिहा कर दिया गया। परंपरागत जैकेट पहने सू जब अपने मकान के गेट पर आईं तो उनके चेहरे पर मुस्कान थी। उन्होंने अपने बालों में फूल लगा रखा था। उन्होंने अपनी बर्मी भाषा में घर के बाहर मौजूद अपने समर्थकों का धन्यवाद किया जिनकी संख्या धीरे-धीरे 5000 तक पहुंच गई थी। नोबल शांति पुरस्कार विजेता 65 वर्षीय सू ने इस बार करीब साढ़े सात साल की नजरबंदी काटी है। पहले भी कई बार उन्हें नजरबंद किया जा चुका है। उनकी रिहाई के वक्त वहां मौजूद उनकी एक प्रबल समर्थक नैंग विन ने कहा, 'मैं उन्हें अपनी मां मानती हूं, बहन मानती हूं, दादी मानती हूं क्योंकि वह हमारी आजादी के नायक जनरल आन सान की बेटी हैं। उनमें भी तो उन्हीं का खून है।' सैन्य शासन के विरोध का जोखिम उठाते हुए उनके समर्थकों ने उनकी तस्वीर वाली टी-शर्ट पहन रखी थी जिस पर लिखा था-'आंग सान सू की, हम तुम्हारे साथ हैं'। इस समय म्यांमार में करीब 2200 राजनीतिक कैदी हैं।
अपने देश म्यांमार में लोकतंत्र के लिए संघर्ष के दौरान उन्हें बहुत बड़ी व्यक्तिगत क्षति भी हुई। उनके ब्रिटिश विद्वान पति माइकल एरिस की 1999 में मौत हो गई। कैंसर से जुझ रहे एरिस को बर्मा की फौजी हुकूमत ने अपनी पत्नी से मिलने आने देने के लिए वीजा नहीं दिया। सू की ने पति से मिलने के लिए देश से बाहर जाने से इनकार कर दिया क्योंकि यह तय था कि यदि वह जाती हैं तो उन्हें वापस नहीं लौटने दिया जाता।
नजरबंदी से रिहाई के बाद आन सान सूकी अपनी मुहिम को मजबूत करने में जुटी हैं...और बर्मा में लोकतंत्र की स्थापना में वो भारत और चीन से खास मदद चाहती हैं...'वॉयजर' पेश करता है, सू ची का खास इंटरव्यू जिसे लिया है डॉयचे वेले ने

आजकल आपकी दिनचर्या क्या रहती है?

मेरा दिन तो बहुत-बहुत व्यस्त रहता है। आज ही की बात करें तो सुबह मेरी दो तीन अपॉइंटमेंट्स थीं, फिर दोपहर में भी दो जगह जाना था और देखिए रात हो गई है लेकिन अब भी मेरा काम खत्म नहीं हुआ है।

कैसी अपॉइंटमेंट्स होती हैं?

मैं राजनयिकों से मिल रही हूं। राजनीतिक दलों से और बाकी लोगों से मिल रही हूं, फिर हमारी पार्टी नेशनल लीग ऑफ डेमोक्रैसी की बैठकें भी होती हैं। फोन पर भी लोगों से बात होती है, उन पत्रकारों से भी मिलना होता है जो बर्मा आने में कामयाब हो गए हैं।

नजरबंदी से रिहा होने के बाद आपने शहर में सबसे बड़ा बदलाव क्या पाया?

मुझे लगता है कि मोबाइल फोन की तादाद। जैसे ही मैं बाहर निकली मैंने देखा कि लोग मोबाइल फोन से तस्वीरें ले रहे थे। इसका मतलब है कम्यूनिकेशन में सुधार हुआ है।

और बर्मा का समाज? उसमें आपने कुछ बदलाव पाए?

महंगाई बहुत बढ़ गई है और लोग इस बात को लेकर बहुत परेशान हैं। हर आदमी बढ़ती कीमतों की बात करता है। नौजवानों के नजरिए में भी काफी सुधार हुआ है। वे राजनीति प्रक्रिया का हिस्सा बनना चाहते हैं और वे पहले से बहुत ज्यादा तेज और सक्रिय हैं।

जब आप रिहा हुईं तो बहुत सारे नौजवान आपसे मिलने आए। बर्मा के नौजवानों से आपकी क्या उम्मीदें हैं?

उन्हें समझना होगा कि देश में बदलाव उन्हीं को लाना है और उन्हें मुझ पर या एनएलडी पर निर्भर नहीं रहना है। हम अपनी तरफ से पूरी कोशिश करेंगे, लेकिन मैं चाहती हूं कि उनके अंदर इतना आत्मविश्वास पैदा हो कि वे खुद यह सब कर सकें।

आप अपनी पार्टी एनएलडी का क्या भविष्य देखती हैं?

हमारे साथ लोगों का पूरा समर्थन है इसलिए हम राजनीतिक ताकत के रूप में खड़े रहेंगे। अधिकारी हमारी पार्टी का रजिस्ट्रेशन रद्द करने की कोशिश कर रहे हैं और इसके खिलाफ मैं अदालत में भी लड़ रही हूं। लेकिन वह कानूनी मसला है। राजनीतिक सच्चाई यही है कि हमें खुद पर भरोसा है, लोग हमारे साथ हैं और यही हमें बर्मा की सबसे बड़ी विपक्षी ताकत बनाता है।

क्या आपने रिहा होने के बाद सरकार से संपर्क किया है?

नहीं, अभी तो नहीं, हालांकि अपने हर भाषण में मैं उन्हें संदेश तो दे ही रही हूं। हर इंटरव्यू में मैंने यह बात कही है कि मैं बातचीत चाहती हूं। मुझे लगता है कि हमें मतभेदों पर बात करनी चाहिए और एक समझौते पर पहुंचना चाहिए।

लेकिन आपने बातचीत को शुरू करने के लिए कोई ठोस कदम क्यों नहीं उठाया?

हम सही वक्त का इंतजार कर रहे हैं जो ज्यादा दूर नहीं है।

बर्मा में कई नस्ली अल्पसंख्यक समुदाय हैं जिनके बहुसंख्यकों से संबंध तनावपूर्ण रहे हैं। आप उन समुदायों तक कैसे पहुंचना चाहती हैं?

उनसे संपर्क की हमारी कोशिश सालों से चल रही है और मैं दावा कर सकती हूं कि हमें कामयाबी मिली है। 1990 में चुनाव लड़ने वाली पार्टियों से हमारे मजबूत संबंध हैं।

चीन के लिऊ शियाओबो को मिला शांति का नोबेल एक बड़ा विवाद बन गया है। आप खुद नोबेल जीत चुकी हैं. आप इस बारे में क्या कहेंगी?

नॉर्वे की नोबेल कमेटी की मैं इज्जत करती हूं और मुझे यकीन है कि लिऊ को पुरस्कार के लिए चुनने के पीछे अहम वजह रही होंगी। मैं तो लिऊ के बारे में ज्यादा नहीं जानती क्योंकि पिछले सात साल से मैं नजरबंद थी। जितना भी मैं जानती हूं बस रेडियो पर ही सुना है, लेकिन नोबेल कमेटी ने उन्हें चुना है तो उसके कारण होंगे।

यूरोप में लोग सोच रहे हैं कि बर्मा की मदद के लिए क्या करें। उन्हें क्या सलाह है?

पहले तो बड़ी मदद यही होगी कि सारे यूरोपीय देश एक सुर में बात करें। यूरोपीय संघ में ही अलग अलग आवाजें सुनाई देती हैं और मुझे लगता है कि इससे बर्मा का विपक्ष कमजोर होता है। अगर यूरोपीय देश मिलकर कुछ कदम उठाने के लिए मांग करें, मसलन राजनीतिक कैदियों की रिहाई, राजनीतिक प्रक्रिया में दूसरों को शामिल किया जाना और बातचीत वगैरह, तो बड़ी मदद होगी।

क्या किसी खास देश को आप ज्यादा सक्रिय देखना चाहेंगी?

आप जर्मनी से मुझसे बात कर रहे हैं तो मैं चाहूंगी कि जर्मनी ही ज्यादा सक्रिय हो।

बर्मा पर लगे प्रतिबंधों की बात करें, तो आपने कहा है कि इनके बारे में राय बनाने के लिए आपको वक्त चाहिए. आप क्या सोच रही हैं?

अब तक मुझे नहीं पता है कि अंतरराष्ट्रीय आर्थिक प्रतिबंधों ने लोगों की जिंदगी पर कितना असर डाला है। लेकिन आवाजें उठ रही हैं जिन्हें सुना जाना चाहिए। इसलिए अभी हमें सच का पता लगाना है। अभी मुझे रिहा हुए एक महीना ही हुआ है और इस मुद्दे पर मैं ज्यादा नहीं जान पाई हूं। मैं आईएमएफ और एडीबी की ताजा रिपोर्ट पढ़ने का इंतजार कर रही हूं।

बर्मा में पश्चिम का कितना असर है? और इससे तुलना करें तो आप भारत और चीन की भूमिका को कैसे देखती हैं?

मुझे लगता है कि चीन और भारत और पश्चिम की भूमिकाएं अलग अलग हैं। मैं नहीं चाहती कि इनमें प्रभाव डालने के लिए किसी तरह का मुकाबला हो। ऐसा नहीं है कि अपना भाग्य हम खुद नहीं बना सकते। लेकिन भारत और चीन हमारे नजदीकी पड़ोसी हैं, तो उन्हें बाकी देशों के मुकाबले कुछ फायदे तो हैं।

यानी पश्चिम की तरफ से बर्मा के लिए जो किया जाता है वो ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है?

नहीं, बिल्कुल महत्वपूर्ण है। लेकिन यह निर्भर करता है कि पश्चिम की तरफ से क्या कदम उठाए जा रहे हैं। इसीलिए मैंने पहले कहा कि पश्चिमी देश अपनी कोशिशों में समन्वय लाएं, उससे हमें ज्यादा मदद मिलेगी।

भारत और चीन से आपकी क्या उम्मीदें हैं?

हम चाहेंगे कि वे हमें प्रक्रिया का हिस्सा बनाएं। मसलन हम चाहेंगे कि भारत और चीन सबसे पहले तो हमें अपनी बात कहने का मौका दें। दोनों के साथ हमारा संपर्क बहुत सीमित है। चीन के मुकाबले भारत सरकार से हमारा संपर्क ज्यादा है। असल में चीन की सरकार से तो कोई संपर्क है ही नहीं। हम चाहते हैं कि उनसे संपर्क हो और वे हमारी बात सुनें कि हम उन्हें पड़ोसी के तौर पर कैसे देखते हैं और उनसे दोस्ती करना चाहते हैं।

आने वाले हफ्ते में आपकी क्या योजनाएं हैं?

एक इंसान है जिससे दुनिया में मुझे सबसे ज्यादा डर लगता है। वो है मेरी अपॉइंटमेंट बुक रखने वाला। बस वही बताएगा कि क्या करना है।

इंटरव्यू: थॉमस बैर्थलाइन
साभार - http://www.dw-world.de/dw/article/0,,6345469,00.html

2 टिप्‍पणियां:

  1. संदीप जी
    नमस्कार

    आपका ब्लाग दो दिन पहले संयोग से नज़र आया और इन तीन दिनों में मैं शुरू से अंत तक पूरी सामग्री से गुज़र गया. बहुत बहुत बधाई और हिंदी में साइंस को जीवित रखने की इस कोशिश के लिए आभार भी.
    एक पूर्ण आस्तिक, आस्थावादी और धार्मिक होने के बावजूद मैं कहना चाहूंगा कि हिंदी में साइंस को बनाए रखने के लिए इस तरह के प्रयासों का स्वागत है. मेरी निजी राय है कि धार्मिकता, ईश्वरीय आस्था और साइंस साथ-साथ चल सकते हैं, बशर्ते हम पूरी दुनिया को निरा वैग्यानिक न बनाना चाहें, जो सिर्फ़ आज के तथ्यों को सच माने.
    लेकिन निश्चित तौर पर, भारत में वैग्यानिक नज़रिए की ज़रूरत है. हिंदी में साइंस से संबंधित सामग्री उपलब्ध कराने की ज़रूरत है और बच्चों में विग्यान को लेकर उत्सुकता बढाने की ज़रूरत है, न कि साइंस की पढाई के नाम पर सिर्फ़ डाक्टर और इंजीनियर बनाने की.
    आपने व्यक्तिगत रुचि से बहुत अच्छा काम किया है और लगातार सक्रिय भी रहे हैं. अनुरोध है कि यदि व्यावसायिक व्यस्तता के बावजूद आप और नियमित रूप से पोस्ट कर सकें तथा साइंस के विषयों का दायरा बढा सकें, तो हिंदी पढने वालों के बीच साइंस की बुझती मशाल को नई ऊर्जा मिलेगी. धन्यवाद.
    विवेक गुप्ता
    भोपाल

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  2. नववर्ष की शुभकामनाओं के साथ उत्साहवर्धन के लिए धन्यवाद। आपके विचारों का मैं खुले दिल से स्वागत करता हूं, निश्चित तौर पर आने वाले दिनों में आपको और भी बेहतर सामग्री पढ़ने को मिलेगी।

    - संदीप निगम

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