भारत का ‘मार्स ऑरबिटर
मिशन’ के साथ ही एक पुराना सवाल फिर सामने है कि क्या भारत
जैसे विकासशील देश में, जहां भारी तादाद में लोग अब भी शिक्षा, स्वास्थ्य और
रोजगार जैसी बुनियादी जरूरतों के पूरा होने का इंतजार कर रहे हैं, वहां 450 करोड़
रुपये मंगल अभियान पर खर्च करना जायज है? ये एक सार्वकालिक
सवाल है और केवल भारत ही नहीं बल्कि अमेरिका जैसे विकसित देशों में भी वैज्ञानिक
समुदाय को इन सवालों का सामना करना पड़ता है। इस बार मंगलयान के साथ ये सवाल कुछ
ज्यादा ही जोरदारी के साथ उठाया गया। एक न्यूज चैनल ने तो बकायदा ये भी दिखाया कि
450 करोड़ रुपये में सरकार लोगों के लिए क्या-क्या काम कर सकती थी।
बात केवल मंगलयान की नहीं है। भारत के कुछ और साइंस
प्रोजेक्ट्स आने वाले वक्त में पूरे होने हैं, जिनकी लागत करोड़ों में है, मिसाल
के तौर पर तमिलनाडु के पास बन रही देश की पहली अंडरग्राउंड न्यट्रिनो लैब, जिसकी
लागत 150 करोड़ रुपये से ज्यादा है, उत्तराखंड के देवस्थल में एशिया के सबसे बड़े
13.5 मीटर के टेलिस्कोप की ऑब्जरवेटरी को बनाने का काम जारी है जिसकी लागत करीब
120 करोड़ रुपये है, चंद्रयान-2 जिसकी लागत 426 करोड़ रुपये है और इसके अलावा भारत
आर्कटिक और अंटार्कटिक में स्थायी स्टेशंस चला रहा है, जिसकी सालाना लागत भी कई सौ
करोड़ है। सवाल फिर वही कि क्या भारत को साइंस पर भारी खर्च करना चाहिए?
देश में बीएमडब्लू जैसी करोड़ों की कीमत वाली विदेशी गाड़ियों
के बढ़ते महंगे शौक की बात न भी करें तो मंगलयान और साइंस के दूसरे प्रोजेक्ट्स पर
हो रहे खर्च पर हाय-तौबा मचाने वाले लोग ये भूल जाते हैं भारत साइंस पर जितना खर्च
करता है, उससे कई गुना ज्यादा पैसा इस देश में लोग सिगरेट और शराब पर उड़ा रहे
हैं। भारत में सिगरेट का सालाना बाजार 720 अरब रुपये का है। आईटीसी जैसे सिगरेट के
बड़े ब्रांड इसे और विस्तार देने के लिए जल्दी ही 25000 करोड़ रुपये और खर्च करने
जा रहे हैं। शराब की बात करें तो देश में इस नशे का फुटकर बाजार 2100 अरब रुपये का
है। इस नशीले एश्वर्य में झूमते विजय माल्या जैसे लोग फार्मूला-वन और कैसीनो जैसी चीजों
को देश में ला रहे हैं और नई पीढ़ी के ‘रोल मॉडल’ बन रहे हैं। लोग सिगरेट और शराब पर एक साल में 2800 अरब रुपये से ज्यादा
उड़ा रहे हैं। ये रकम इस बार के केंद्रीय बजट में दर्शाये गए देश के कुल वास्तविक
खर्च से भी ज्यादा है।
जब भी हम साइंस पर खर्च करते हैं, अंतरिक्ष पर खर्च करते हैं
या किसी नई खोज के लिए खर्च करते हैं, तो हमेशा ये निवेश बोनस के साथ कई-कई
रास्तों से वापस हमारे पास लौटता है। ‘चंद्रयान’ देश के अंतरिक्ष अनुसंधान का टर्निंग प्वाइंट साबित हुआ था। चंद्रयान की
लागत 354 करोड़ रुपये थी, लेकिन जब चंद्रयान ने चंद्रमा पर पानी खोज निकाला तो
इससे देश को जो विश्वस्तरीय प्रतिष्ठा अर्जित हुई वो नासा और यूरोपियन स्पेस
एजेंसी को दशकों की मेहनत और अरबों डॉलर खर्च करके भी नहीं मिल सकी थी।
साइंस अनुसंधान पर होने वाला खर्च मानवता के लिए जीवन बीमा के
जैसा निवेश है, जो हमेशा मानवता के भविष्य को बेहतर और सुरक्षित बनाने के लिए किया
जाता है। यही वजह है कि 100 साल से ज्यादा वक्त और बीत जाने के बावजूद कैंसर पर
रिसर्च अब भी जारी है। एड्स पर विजय पाने की जंग भी पिछले 30 साल से लगातार जारी
है। इन लड़ाइयों पर अब तक अरबों डॉलर खर्च हो चुके हैं, वैज्ञानिकों की कई
पीढ़ियों ने बगैर किसी ठोस नतीजे के अपनी पूरी जिंदगी इन रोगों पर विजय पाने की
कोशिश में खपा दी है। लेकिन समय, पैसे और प्रतिभा के इस लंबे और लगातार निवेश के
बदौलत ही अब हमें इन रोगों की लड़ाईयों की अंधी सुरंगों के दूसरे सिरे पर उम्मीद
की रोशनी नजर आ रही है। एचआईवी पर काबू पा लिया गया है और कैंसर के खिलाफ भी
निर्णायक टीका बस आने को है।
भारत में जरूरत इस बात
की है कि वैज्ञानिक अनुसंधान पर होने वाले सकल खर्च को व्यवस्थित और जवाबदेह बनाया
जाए। मैंने जब सीएसआईआर के महानिदेशक समीर ब्रह्मचारी से पूछा कि पिछले 5 साल के
दौरान आपकी सबसे बड़ी उपलब्धि क्या रही? तो काफी
याद करने के बाद उन्होंने ‘ई-रिक्शा’
का नाम लिया। अब अगर देशभर में दर्जनों प्रयोगशालाओं और सरकारी वैज्ञानिकों की
भारी-भरकम फौज वाला संगठन सीएसआईआर करोड़ों के बजट को खर्च कर 5 साल में देश के
लिए बस ‘ई-रिक्शा’ ही बना सका है। तो
इससे देश में वैज्ञानिक अनुसंधान के नाम पर जो चल रहा है, उसका खुलासा होता है और
ये वाकई गहरी चिंता का विषय है। देश में वैज्ञानिकों को रिसर्च प्रोजेक्ट्स के नाम
पर लाखों-करोड़ों रुपये आवंटित करा दिए जाते हैं। इसके बाद ऐसी कोई एजेंसी नहीं है
जो वैज्ञानिकों से उनके प्रोजेक्ट्स के बारे में जवाब-तलब करे और पैसों की निगरानी
करे। 15 से 20 साल तक वैज्ञानिक प्रोजेक्ट्स चलते रहते हैं और साथ में कई सहायक
परियोजनाएं भी शुरू हो जाती हैं, विदेश यात्राएं चलती रहती हैं और पैसा बर्बाद
होता रहता है। अंत में कोई भी ठोस वैज्ञानिक खोज सामने नहीं आती। जरूरत इस बात की
है कि देश में वैज्ञानिक प्रोजेक्ट के लिए एक नियामक एजेंसी बने, जिसमें शीर्ष
वैज्ञानिक शामिल हों और जो ये तय करे कि प्रोजेक्ट्स तय समय सीमा में ही पूरे हों,
शोध कर रहे वैज्ञानिकों जवाबदेही तय हो, एक तय समयसीमा में शोध पूरे
हों और उन प्रोजेक्ट्स के नतीजों का फायदा केवल उस वैज्ञानिक या उसके परिवार को
नहीं बल्कि पूरे देश के लोगों को मिले।
संदीप निगम