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शुक्रवार, 14 मार्च 2014

आज होली है, यारो!

 होली के अवसर पर दिल्ली के वरिष्ठ एस्ट्रोनॉमर और मेरे शिक्षक बलदेव राज दावर जी ने एक अद्भुत कविता रची है. ये कविता मानव और प्रकृति के संबंधों की कहानी है, ये कविता बंदर से मानव और मानव के महामानव बन जाने तक की विकासवाद की अदभुत झांकी भी है. होली के मौके पर सभी पाठक गणों को शुभकामनाओं के साथ वॉयेजर की छोटी सी भेंट - 

आज होली है, यारो!
आओ, अपने सारे कपड़े उतारो
और खड़े हो जाओ
एक विशाल और सपाट दर्पण के सामने;
और निहारो सिर से पैर तक
अपने नंगे और निहत्थे रूप को।
और ईर्षा करो बंदर से
जिसे अपनी शर्म ढकने के लिए चड्डी की जरूरत नहीं।
ईर्षा करो हिरन से
जिसके पास तन ढकने के लिए रेशमी रोमावली है - 
अंग-अंग पर मखमली शालाएं है।

और किस-किस से ईर्षा करोगे, यारो?
न तुम हाथी जैसे विशाल हो, न शेर जैसे शूरवीर
न लोमड़ी-से होशियार, न मोर-से मनोहर।
हंस की उड़ान, मधुमक्खी की सामाजिकता,
भौंरे की भावुकता और चींटी की साक्षरता
प्रकृति ने बेचारे मनुष्य को नहीं दी।

ढक लो, ढ़क लो, अपने भौंडे शरीर को।
छुपा के रखो अपनी कमज़ोरियां, लाचारियाँ।
तुम्हारी शक्ति केवल औज़ारों की शक्ति है।
केवल औजारों की बदौलत ही
आज तुम पैदल नहीं, निहत्थे नहीं, नंगे नहीं। 
तुम्हारे पास अस्त्र हैं, शस्त्र हैं, अद्भुत टेक्नोलॉजी है। 

तुम्हारे पैरों में पहिये हैं, आँखों पर ऐनक है,
गोदी में कंप्यूटर है, कानों पर मोबाइल है,
ज़ुबान पर माइक और उँगलियों में रिमोट। 
इशारों ही इशारों में, इस कठपुतली दुनिया को,
मन चाहे नाच नचा रहे हो।

तुम्हारे बनाये हुए हज़ारों नकली चाँद
पृथ्वी के आकाश में विचर रहे हैं।
तुम्हारे भेजे हुए छह पहियों वाले रोबोट
पड़ोसी ग्रहों पर चल-फिर रहे हैं।
अंतरिक्ष में ठहराई हुई तुम्हारी दूरबीनें
ब्रह्माण्ड के कोने-कोने की खोज-बीन कर रही हैं।

प्रकाश की गति से चलने वाले यंत्रों पर तुम सवार हो
पलक झपकने में तुम यहाँ भी हो, वहाँ भी हो,
मानो,एक साथ सब जगह विद्यमान हो।
पिछली दो-तीन सदियों में,
यह दुनिया नयी एक दुनिया हो गई है।
और तुम इस दुनिया के खुदा हो। 
तुम्हें सलाम।
शत-शत प्रणाम तुम्हारे औज़ारों को। 

- बलदेव राज दवार, होली,2014

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