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रविवार, 20 अप्रैल 2014

... गुडबॉय गैबी!

मशहूर उपन्यासकार और नोबेल पुरस्कार से सम्मानित लेखक गैब्रियल गार्सिया मार्केज़ का 87 साल की उम्र में मैक्सिको में निधन हो गया . मार्क़ेज की गिनती स्पैनिश भाषा के महान लेखकों में होती है. उनके कालजयी उपन्यास 'वन हन्ड्रेड ईयर्स ऑफ़ सॉलीट्यूड' के जादुई यथार्थवाद ने लोगों को अपना मुरीद बना दिया था. स्वतंत्र लोकतांत्रिक मूल्यों और सबसे निचले तबके को इंसाफ दिलाने के संघर्ष के साथ मार्केज़ रोजमर्रा की जिंदगी के छोटे-बड़े विरोधाभासों के बीच आम आदमी की कहानी कहते थे. इन मूल्यों के बगैर किसी भी समाज में कला और रचनात्मक विज्ञान का विकास संभव नहीं. अपने पाठकों के लिए 'वॉयेजर' साभार पेश करता है बीबीसी हिंदी के संपादक निधीश त्यागी की लिखी एक श्रद्धांजलि.

'बहुत साल बाद, जब वे फ़ायरिंग स्क्वॉड के सामने खड़े थे, कर्नल ऑरेलिनो बुएंदिया को वह दोपहर याद आ रही थी, जब उनके पिता उन्हें बर्फ़ दिखलाने ले गए थे.'
'वन हंड्रेड इयर्स ऑफ़ सॉलिट्यूड' का ये पहला वाक्य है. एक वाक्य में सौ साल हैं, बारूद की आने वाली गंध है, जो मिट्टी और मृत्यु में मिलने वाली है और जन्म के कुछ सालों बाद का वह एक बच्चे का बर्फ़ को लेकर कौतुक, दोपहर में ठंड को महसूसने का रोमांच और पिता की उंगली पकड़ने का आश्वस्तिबोध है. एक कालपात्र में सब कुछ समेटे हुए. एक पल में सौ साल समेटने की क्रिया.

ढाई करोड़ प्रतियाँ बिकने वाला यह उपन्यास इसके आगे शुरू होता है. इस गतिशील क्रिया में. फैलता-सिकुड़ता-समेटता. देश और काल को, स्मृति और कल्पना को, तथ्य और उसकी उड़ान को. मार्केज़ के साथ वे वाक्य नहीं गए हैं. वे यहीं हैं. हमें उलट और पलट कर पढ़ते रहने के लिए. लेखक के चले जाने के बाद भी.

अवसान के समय सबसे पहले विशेषण हत्थे चढ़ते हैं. जैसे मार्केज़ के मरने पर नोबेल पुरस्कार, जादुई यथार्थवाद, उनकी बहुतेरी में से एक किताब वन हंड्रेड इयर्स ऑफ़ सॉलिट्यूड, कोलम्बिया, कैंसर, स्मृतिलोप... विशेषणों की फ़ेहरिस्त बढ़ती जाती है.

हर मृत्यु में हम अपना थोड़ा सा हिस्सा कम होते देखते हैं कुछ दिनों के लिए. पर गैब्रियल गार्सिया मार्केज़ उर्फ़ गैबो एक ऐसा नाम है, जिसके लिए ये सारे विशेषण छोटे पड़ते रहेंगे. उन क्रियाशील वाक्यों के मुक़ाबले जो उन्हें लिख गए, उनके बाद भी पढ़ें जाने के लिए.

उनकी अपनी ज़िंदगी है और अपना सफ़र. आप अगली बार जब मार्केज़ का लिखा कुछ पढ़ेंगे तो क्या वे अपनी रंग-छवि-अर्थ छोड़कर आपके भीतर कुलबुलाना या साँस लेना बंद कर देंगे?

मृत्यु के बरक्स जीवन एक क्रिया की तरह है. जितना जीवन मार्केज़ के वाक्यों में हैं, जितनी ऑक्सीजन आत्मा के लिए, जितनी शिद्दत, जुम्बिश, बदमाशियां एक क्रिया की तरह हमें, हमारे पढ़ने और पढ़ने के ज़रिए हमारे होने को घटित करती है और मुमकिन भी. चाहे वह मृत्यु के बारे हो या प्रेम की या फिर जंग और तानाशाहों की.

वे हमारे बुनियादी सरोकारों को ज़मीन बनाकर आसमान नापते हैं उसे इतनी अति तक ले जाते हुए जहाँ सच या वास्तविकता भले ही धुँध में घुलने लगती है, पर सत्य या ट्रुथ अपने असल अवतार में सामने आता है. जो हर पाठक का अपना है और शायद अलग भी.

हर अच्छे कथ्य की तरह मार्केज़ के वाक्य आपको पलट कर पढ़ते हैं, आपकी अपनी सहजता, आपके अपने निरस्त्र मनुष्य में. एक क्रिया में साँस लेता हुआ, आगे बढ़ता हुआ. उन भाषाओं में भी जो मार्केज़ की नहीं थी अपने हस्ताक्षर कथ्य के साथ.

कितने ही हिंदुस्तानियों के लिए पाब्लो नेरूदा प्यार की कविताओं में देश और दुनिया के बाक़ी कवियों के मुक़ाबले ज़्यादा सगे, अपने और दिल के क़रीब लगते हैं. लेटिन अमेरिका से हमारी ज़िंदगी में आया दूसरा सबसे महत्वपूर्ण नाम गैबरियल गार्सिया मार्केज़ का है.

अपने नोबेल पुरस्कार समारोह क्लिक करें भाषण की शुरूआत वे एंतोनियो पिगाफेटा नाम के नाविक की किताब का ज़िक्र से करते हैं. पिगाफेटा दुनिया का समुद्र के रास्ते चक्कर लगाने वाले मैगेलन का सहयोगी था. जब वे दक्षिण अमेरिकी हिस्सों में आए तो जो सबसे पहला इंसान दिखलाई दिया, उसके सामने इन यूरोपीय नाविकों ने आईना कर दिया. पिगाफेटा के मुताबिक़ वह इंसान अपनी की शक्ल देखने से आतंकित हो अपने होश खो बैठा.

मार्केज़ का लिखा भी एक आईना है, जिसमें दुनिया ख़ुद को देखती है. अपनी असामान्यताओं के साथ, क्रूरताओं के साथ, किम्वंदतियों के साथ और आश्चर्य के साथ.

एक क्लिक करें इंटरव्यू में वे कहते हैं कि लोग भले ही उनके काम को जादुई यथार्थवाद के नाम पर फंतासियों की तरह देखते हैं, पर उन्होंने एक भी वाक्य ऐसा नहीं लिखा, जिसमें उनकी अपनी हक़ीकत का अंश न हो. कहीं बारिश महीनों से रुकने का नाम नहीं ले रही, कहीं गाँव का गाँव अपनी याददाश्त खो चुका है, कहीं अनिद्रा का शिकार.

इन असामान्य और छोटे सचों का विस्तार अपनी पेचीदगियाँ लेकर आता है, जो दूसरी असामान्यताओं को उधेड़ता है. मार्केज़ के लिखे ये छोटे-छोटे सच संसार के पार जाकर हमसे पहचान बढ़ाते हैं, हमें मुस्कुराने और चकित होने और मायूस होने पर मजबूर करते हैं.

उनका कहना भी था कि वे किसी साहित्य और आलोचक और अनजाने लोगों को ध्यान में रखकर नहीं लिखते. वे सिर्फ़ इसलिए लिखते हैं कि उनके दोस्त उनसे और ज़्यादा मुहब्बत करें. इसीलिए उनका जो लिखा है वह सिर पर रखे नहीं, दिल पर रखे बोझ की तरह है, जो एक इंसान दूसरे से क़िस्सागोई की सहजता से साझा कर हल्का हो जाना चाहता है. मनुष्य होने की तमाम कमज़ोरियों के साथ बेझिझक अंदाज से शब्दचित्र बनाते हुए.

पत्रकारिता और साहित्य के बीच के रिश्ते के बारे में वह क्लिक करें यहाँ बताते हैं कि साहित्य के लिए ज़मीनी सच से जुड़े रहना ज़रूरी है, जो पत्रकारिता मुमकिन करवाती है. लेटिन अमेरिकी पत्रकारिता में वे पुरानी घटनाओं को पुनर्संयोजित कर बहुत ही प्रभावी तरीक़े से पेश करने वाले सबसे माहिर लोगों में जाने जाते थे. लेटिन अमेरिका में इसे रेफ्रितो (फिर से छौंकी हुई) स्टाइल की पत्रकारिता कहते हैं.

जहाज़ दुर्घटना में बच गये नाविक की ऋंखलाबद्ध कहानी न सिर्फ़ इसकी एक बड़ी मिसाल है, बल्कि बाद में किताब 'द स्टोरी ऑफ़ ए शिपरैक्ड सेलर' भी बनकर आई. वेलकोस नाम का ये नाविक दस दिन तक समुद्र में डूबता-उतराता रहा था, जिसका मार्केज़ ने लगातार पाँच दिन छह-छह घंटे इंटरव्यू किया और उसी के शब्दों में आपबीती की तरह रिपोर्ट लिखी.

वे ये भी कहते हैं कि जहाँ एक ग़लत तथ्य पत्रकारिता की विश्वसनीयता दाँव पर लगा देता है, वहीं एक अकेला सच साहित्य को खड़े होने की ज़मीन देता है. मार्केज़ के मुताबिक़ अगर आप लोगों से ये कहें कि हाथी आसमान में उड़ रहे थे, तो कोई आपपर भरोसा नहीं करेगा. पर अगर आप ये कहें कि आसमान में चार सौ पच्चीस हाथी उड़ रहे हैं, तो लोग शायद आपकी बात मान लें.

यह मिसाल देने वाले न तो लेखक आसानी से मिलेंगे और न ही पत्रकार. पर मार्केज़ गप मारने से ज़्यादा ज़ोर उस विस्तार पर दे रहे हैं, जो उनके रिपोर्ताज में भी दिखता है. 'न्यूज़ ऑफ़ ए किडनैपिंग' एक अपहरण की घटना के ज़रिए एक देश, समय, राजनीति, सत्ता, ड्रग लॉर्ड पाब्लो एस्कोबार पर लिखी गई किताब है, उस सच के जो दिहाड़ी पत्रकारिता के टुकड़ा-टुकड़ा सच में अक्सर ठीक से दर्ज नहीं होता.

'लव इन द टाइम ऑफ कोलेरा' उनकी दूसरी सबसे लोकप्रिय किताब है. शायद प्यार पर लिखा गया दुनिया का सबसे सुंदर उपन्यास भी. मार्केज़ के वाक्य अगर भारत और लेटिन अमेरिका से दूर दुनिया की दूसरी जगहों पर अपना जादू दिखलाते रहते हैं, तो यही उनका हासिल है. उनके लिखे वाक्य अपनी ज़मीन और अपने वक़्त से बाहर जाकर किसी और समय किसी और जगह के लोगों को पढ़ सकते हैं, लिख सकते हैं और बहुत बार बदल भी सकते हैं.

इसके प्रकाशन के समय दिए गए क्लिक करें इंटरव्यू में वे बताते हैं कि कैसे देर रात तक फिदेल कास्त्रो के साथ मछली मारने के बाद उन्होंने ड्रैकुला किताब कास्त्रो के तोहफ़े के बतौर दी. सुबह नाश्ते की मेज पर कास्त्रो की आंखें सूजी हुई थीं. मार्केज़ के आते ही कास्त्रो ने ड्रैकुला के लिए भद्दी सी गाली निकाली.

कास्त्रो के साथ उनकी दोस्ती के बारे में उनका कहना था, जिस दिन मैं उसे क्यूबा पर कैसे राज करूं बताने लगूंगा, वह मुझे बताने लगेगा कि ढंग का उपन्यास कैसे लिखा जाता है. कास्त्रो से दोस्ती का एक नतीजा मार्केज़ ने ये भी भोगा कि अमरीका ने लम्बे समय तक उनके आने में अड़ंगा लगा कर रखा.

मार्केज़ की किताबें सबसे ज़्यादा अमरीका में छपीं और सबसे ज़्यादा पढ़ी गईं. और इस इंटरव्यू में वे बताते हैं कि कैसे अमरीकी काउंसलेट के दफ़्तरों के बाबू उनकी किताबों के फैन निकलते हैं, उनके ऑटोग्राफ़ चाहते हैं और फिर वीसा का आवेदन ख़ारिज कर देते हैं. बक़ौल उनके 'मुझे न्यूयॉर्क जाकर किताबें और सीडी ही खरीदनी होती हैं, कोई भाषण नहीं देने होते.'
एक सहज व्यक्ति ही अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन से मार्थाज विनयार्ड्स में एक लम्बी साहित्यिक मुलाक़ात के दौरान आधी रात के बाद यह कह सकता है, 'अगर फिदेल और तुम आमने-सामने बैठकर बात कर सको, तो सारी दिक़्क़तें ही दूर हो जाएंगी.' उन्होंने बिल क्लिंटन से अपने क्लिक करें इस लेख में मोनिका लेविंस्की वाले मामले में सहानुभूति भी जताई.

इसके पहले क्लिंटन ने अपने चुनाव अभियान में मार्केज़ का मुरीद होने की बात कही और क्यूबा के पूर्व राष्ट्रपति कास्त्रो का तो ऐतिहासिक बयान है-'अगर दुबारा जन्म लेना पड़ा तो मैं गैबो की ज़िदगी जीना चाहूंगा.'

मार्केज़ के मरने से उनके लिखे का जादू और अतियथार्थ दोनों न कम होंगे और न गायब. वे क्रियाशील रहेंगे. लिखे जाने की क्रिया के बाद. पढ़े जाने की क्रिया में. और उन वाक्यों को पढ़ना हर किसी का व्यक्तिगत होगा.

मार्केज़ का लिखा वैसी ही कोई क्रिया है उन विशेषणों से बाहर और उनके आरपार, दुनिया जिन शब्दों की बैसाखी लेकर उनके जाने का स्यापा करने और गड्डमड्ड श्रद्धांजलि देने की कोशिश कर रही है. जिसकी बहुत जरूरत नहीं है.

शायद उनकी ही कोई किताब फिर से उठा कर पढ़ने की ज़रूरत है. ये वाक्य कैसे लिखा. क्या सोचा होगा. उन वाक्यों की गतिशील क्रिया का हिस्सा बनते हुए. उन्हीं के शब्दों में सच के लिए 'लोग सरकारों से ज़्यादा यक़ीन लेखकों पर करते हैं'.
साभार : बीबीसी हिंदी

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