गर्मी का मौसम दस्तक दे रहा है. इसी के साथ हम गर्मियों में उड़ने वाली धूल-धक्कड़ से भरी आंधियों को सोंच-सोंचकर अभी से परेशान हो रहे हैं. मशहूर कहावत है, ‘इंडिया यानि हीट एंड डस्ट.’ धूल से घबराएं नहीं, इसे मामूली और जी का जंजाल मत समझें. आइए एक मुठ्ठी धूल उठाइए. क्या आप जानते हैं, कि इसमें क्या है? ये धूल कैसे बनी है? कहां बनी है? और आप तक कैसे पहुंची?
भारतीय संस्कृति में मानव देह को मिट्टी माना गया है. कबीर जैसे कई दार्शनिक कवियों ने अंत में धूल में मिल जाने की बातें भी कहीं हैं. क्या हम वाकई धूल से आए हैं? और हमें वापस एक दिन इसी धूल में खोकर बिखर जाना है? ये सवाल दार्शनिक-आध्यात्मिक होने के साथ-साथ वैज्ञानिक भी है.
वैज्ञानिकों को पहली बार सुदूर अंतरिक्ष में एक सुपरनोवा के अवशेषों में धूल की मौजूदगी के प्रमाण मिले हैं. सुपरनोवा में मौजूद धूल और आपके कदमों के नीचे की धूल में जैविक पदार्थों को छोड़ कोई और फर्क नहीं है.
इस सुपरनोवा के ऑब्जरेशन से एक पुराने सवाल का जवाब भी मिला है कि आखिर सितारों, ग्रहों और हम लोगों को बनाने के लिए जरूरी ‘रॉ मैटीरियल’ या कच्चा माल आखिर बनता कहां है?
एस्ट्रोनॉमी में ये सबसे लोकप्रिय और मजेदार तथ्य है, जिसे 1980 में कॉस्मस के लेखक कार्ल सगान से लेकर सभी प्रमुख एस्ट्रोनॉमर बार-बार दोहराते रहे हैं, कि हमारे शरीर, जिस हवा में हम सांस लेते हैं और हमारे पैरों के नीचे मौजूद जमीन में मौजूद ज्यादातर तत्वों (पानी यानि H2O में मौजूद हाइड्रोजन को छोड़कर सबकुछ) का निर्माण सितारों की भट्ठी में हुआ है.
पहले सितारे के जन्म लेने से पहले तक इस ब्रह्मांड में ज्यादा हाइड्रोजन ही था. कुछ मात्रा हीलियम और चुटकीभर लीथियम भी मौजूद था. ऑक्सीजन, कार्बन, नाइट्रोजन, सिलिकॉन और लोहा समेत सभी दूसरे तत्व उस थर्मोन्यूक्लियर रिएक्शन से बने हल्के परमाणुओं से अस्तित्व में आए जिससे सूरज और इसके अरबों भाइयों को ऊर्जा मिलती है. जैसे ही पहले सितारे की मौत हुई, ये सारे तत्व उस सितारे से फूटी स्ट्रीम के साथ चारों ओर बिखर गए.
ये सब पढ़कर ऐसा लगता है कि जैसे ये घटना बहुत पहले और अंतरिक्ष के किसी दूर-दराज के कोने में घटी होगी और इससे उन तत्वों का निर्माण हुआ होगा, जिन्होंने हमें बनाया. लेकिन चौंकाने वाला तथ्य ये है कि ये प्रक्रिया अब तक जारी है. उत्तरी चिली के हाई एटाकामा रेगिस्तान में मौजूद एटाकामा लार्ज मिलीमीटर –सब मिलीमीटर एरे टेलिस्कोप (अल्मा) के मल्टीपल एंटीना के इस्तेमाल से एस्ट्रोनॉमर्स ने ठंडी धूल के उस बादल को खोज निकाला है जिसका निर्माण एक सितारे की मौत से फूटे महासुपरनोवा से हुआ है. धूल का ये घना बादल हमारी आकाशगंगा मिल्की-वे से ठीक ऊपर मौजूद एक दूसरी आकाशगंगा के लार्ज मैगेलैनिक क्लाउड में मौजूद है.
इस कॉस्मिक विस्फोट के अवशेष को सबसे पहले 1987 में देखा गया था. आमतौर पर सितारों के मौत की घटना सुपरनोवा नंगी आंखों से नजर नहीं आती, इन्हें किसी ऑब्जरवेटरी के विशाल टेलिस्कोप्स से ही देखा जा सकता है. लेकिन एस्ट्रोनॉमी के इतिहास में 1604 की वो घटना बड़ी मशहूर है, जब सुदूर अंतरिक्ष में हुए एक सुपरनोवा धमाके को यहां धरती से नंगी आंखों से देखा गया था. इस घटना को बिना किसी उपकरण (तब तक टेलिस्कोप बना ही नहीं था) अपनी आंखों से देखने वाले शख्स थे जोहान्स कैपलर, जिन्होंने 1604 में इस सुपरनोवा को नंगी आंखों से देखा था. ये सुपरनोवा इतना ताकतवर था कि इसकी रोशनी एक दशक तक धरती से नजर आती रही थी. लेकिन दुर्भाग्यवश, गैलीलियो अपना पहला टेलिस्कोप बनाते इससे पहले ही ये नजर आना बंद हो गया.
1987 में एस्ट्रोनॉ़मर्स ने हर उपलब्ध टेलिस्कोप का मुंह अंतरिक्ष में मरते हुए सितारों की ओर मोड़ दिया. इस अद्भुत प्रयोग से एस्ट्रोनॉमर्स सुपरनोवा की घटना को पहली बार देखने में कामयाब रहे. सुपरनोवा के इनीशियल फ्लैश के बाद जबरदस्त धमाके से फूटे शॉक वेव के साथ एक छल्ले की शक्ल में अंतरिक्ष में बिखरते उस मृत सितारे के तत्वों को पहली बार रिकार्ड किया गया. सुपरनोवा धमाके से फूटी ऊर्जा ने तेज रोशनी का एक छल्ला सा बना दिया.
और अब चिली के टेलिस्कोप अल्मा से एस्ट्रोनॉमर्स ने सुपरनोवा के उस चमकीले छल्ले में ‘धूल’ खोज निकाली है. ये धूल उस मृत सितारे के अन्य तत्वों के साथ सघन होती जा रही है. घने होते जा रहे सुपरनोवा के इस बादल में कार्बन मोनो ऑक्साइड और सिलिकॉन ऑक्साइड जैसे तत्व हैं. आहिस्ता-आहिस्ता ये धूल गैस के इन बादलों में घुलमिल जाएगी. और किसी दिन, सघन होने की इस प्रक्रिया के चलते शायद कुछ लाख साल या फिर कुछ अरब साल बाद घूल और गैस का ये बादल घना होते-होते किसी नए सितारे या नए ग्रह या फिर किसी नए प्राणी को जन्म दे देंगे.
यूनिवर्सिटी कॉलेज आफ लंदन के एस्ट्रोनॉमर मिकाको मात्सुएरा बताते हैं, “ हरेक आकाशगंगा धूल-धक्कड़ से भरी पड़ी है. किसी आकाशगंगा के इवोल्यूशन में ये धूल ही सबसे अहम भूमिका निभाती है. आज हम जानते हैं कि इस धूल को धरती पर कई तरीकों से बनाया जा सकता है. लेकिन शुरुआती ब्रह्मांड में इस धूल को पैदा करने वाली बस एक ही चीज थी – सुपरनोवा. अब हमें इस सिद्धांत को साबित करने के लिए डाइरेक्ट एविडेंस भी मिल चुके हैं.”
धरती पर हर दिन 3 से लेकर 500 मीट्रिक टन तक धूल की अंतरिक्ष से बारिश होती रहती है. आसमान से हम पर बरसने वाली ये धूल वही है, जिसका निर्माण सुदूर सितारों की सुपरनोवा भट्ठी में होता है. आइए एक मुट्ठी धूल उठाएं. अब आप इसे मामूली नहीं समझ सकते, क्योंकि इसका निर्माण जाने कितने प्रकाशवर्ष दूर किसी सितारे की भट्ठी में हुआ है. आपकी एक मुट्ठी धूल में कई सूक्ष्म उल्का और धूमकेतु के कण भी मौजूद हैं. ये एक मुट्ठी धूल धरती पर मौजूद सबसे कीमती चीज से भी कई गुना कीमती है. ये धूल मानव को ब्रह्मांड से उसके रिश्ते की याद दिलाती है. ये धूल मामूली नहीं, बेशकीमती है. क्यों, है न !
संदीप निगम
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Don't have words to describe the loyalty of this blog never seen or read like it before.
जवाब देंहटाएंVery very grateful to you to fetch curious knowledge for us.
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