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शनिवार, 24 अक्तूबर 2009

ये सब मेरी मां हिंदी का है – गुणाकर मुले

संदीप निगम
16 अक्टूबर यानि 2009 की छोटी दीपावली, उस दिन मैं स्टार न्यूज के ऑफिस में इस बात का इंतजार कर रहा था कि मेरे बनाए दीपावली स्पेशल को कौन सा स्लॉट मिलता है। दोपहर करीब सवा दो का वक्त था कि तभी मेरे मित्र अमिताभ का फोन आया। रुंधी सी आवाज में अमिताभ ने बताया कि मुलेजी नहीं रहे, तुम जल्दी आ जाओ। मैंने फौरन अपने बॉस को खबर दी और किसी एजेंसी से रिलीज होने से पहले ये दुखभरी खबर हमारे चैनल पर चली कि विज्ञान के प्रसिद्ध लेखक गुणाकर मुले नहीं रहे।
गुणाकर मुले नहीं रहे, दफ्तर से आधी छुट्टी लेकर मैं पूर्वी दिल्ली के पांडव नगर इलाके में उनके घर की ओर बढ़ा चला जा रहा था, मुलेजी ने जिसका नाम अमरावती रखा था। करीब छह महीने से मैं मुलेजी से मिलने की कोशिश कर रहा था, लेकिन मुलाकात की ये चाहत हमेशा प्राथमिकता की सूची में तीसरी या चौथी जगह पर ही रही और कभी हो नहीं पाई। उनके निधन से करीब एक हफ्ते पहले ...वो शरद पूर्णिमा का दिन था, हारवेस्ट मून आसमान में खिला था और छत से मैं उसे देख रहा था, अचानक मैंने अमिताभ को फोन किया कि क्या उन्होंने हारवेस्ट मून देखा...तो उन्होंने बताया कि नहीं वो तो मुले जी को लेकर अपने एक मित्र डॉक्टर के नर्सिंग होम आए हैं। वो नर्सिंग होम मेरे घर के पास ही था, मैं शरदपूर्णिमा के चंद्रमा को आसमान में छोड़ तुरंत नर्सिंग होम की ओर भागा। जब मैं नर्सिंग होम पहुंचा तबतक मुलेजी को डॉक्टर को दिखाकर कार की पिछली सीट पर लिटाया जा चुका था, उनके साथ उनकी पत्नी बैठी थीं। अमिताभ से मुलाकात हुई तो उन्होंने बताया कि डॉक्टर का कहना है कि मुलेजी आहिस्ता-आहिस्ता कोमा की ओर जा रहे हैं। उनकी हालत देखकर मैंने अमिताभ से कहा कि वो उन्हें घर पहुंचा दें...क्योंकि अब मुश्किल ही है कि करीब 13-14 पहले देखे चेहरे को वो पहचान सकें।
13-14 साल पहले देखा चेहरा जी हां वो मैं ही था, 13-14 साल पहले मुलेजी से मुलाकात हुई घर भी आया-जाया करता था। लेकिन ये शादी से पहले की बात थी। मेरे एक पत्रकार मित्र संयोग से मुलेजी के घर के सामने रहते थे। एक दिन जब उनके घर गया तो जब पीछे मुड़कर देखा तो गुणाकर मुले की नेमप्लेट नजर आई। मैंने पलटकर दस्तक दी तो मुलेजी से मुलाकात हुई। विज्ञान प्रगति पत्रिका मेरे बचपन की साथी थी, शायद क्लास 6 से तब ये पत्रिका पचास पैसे में मिलती थी और इसमें गुणाकर मुले जी के लेख लगातार प्रकाशित होते थे। इस तरह बचपन से ही गुणाकर मुलेजी से मेरा परिचय था, लेकिन मुलाकात बरसों बाद हुई। चमकती हुई और हमेशा कुछ तलाशती सी आंखें एकदम झक सफेद बाल और चेहरे पर एक आत्मीय मुस्कान। उनके पास बैठकर बात करना हमेशा एक आत्मीय-आध्यात्मिक अनुभव होता था। उनके घर की बैठक ने मुझे खास प्रभावित किया छत और फर्श को छोड़कर और कोई दीवार नजर ही नहीं आती नीचे से लेकर ऊपर तक बस किताबें ही किताबें, एक अद्भुत और दुर्लभ संकलन। मुलेजी के बाद मेरी मुलाकात अबतक किसी ऐसे शख्स ने नहीं हुई जिसे किताबों की धूल से इन्फेक्शन हुआ हो।
मेरी शादी तय हो चुकी थी और मैं किसी बड़े कमरे की तलाश में था,जिसके साथ किचन भी हो, ऐसे में यूं ही एक दिन मैं मुलेजी के घर गया। 13 साल पहले ये मेरी मुलेजी से अंतिम मुलाकात थी, मुलेजी अमरावती की पहली मंजिल पर निर्माण कार्य करवा रहे थे। मैंने चरण स्पर्श किया, मुलेजी प्रसन्न हो गए, पत्नी को चाय बनाने को कह मुझे ऊपर ले गए कंस्ट्रक्शन दिखाने के लिए। ऊपर का एक-एक कोना उन्होंने मुझे बड़े चाव से दिखाया और मुस्कराते हुए बोले – ये सब मेरी मां हिंदी का दिया प्रसाद है, मैं तो एक मराठी....बस एक झोला लेकर अमरावती से आया था, लेकिन मेरी हिंदी मां ने मुझे सहारा दिया और मेरे परिवार का भरण-पोषण किया। बोले, संदीप देखो यहां मैं कंप्यूटर लगाऊंगा, यहां मैं बैठकर लिखूंगा। फिर बोले, संदीप तुम यहीं क्यों नहीं आ जाते? एक बहुत बड़ा आकर्षण था,मुलेजी के साथ सुबह और शाम गुजारने का, उनके साथ रहने का। लेकिन मैं ये भी देख रहा था, कि उन्हें एक किरायेदार की जरूरत थी ताकि रोजमर्रा के खर्चे निकल सकें और तब मेरी जेब इसकी इजाजत नहीं दे रही थी। फिर शादी हो गई और मेरी सारी दुनिया बस सरवाइवल के संघर्ष में सिमटकर रह गई।
हफ्ते-महीने-साल गुरते चले गए, न्यूज चैनल में काम करने का मौका मिला और इसके साथ ही टीवी पर साइंस शोज मंजूर करवाने और उन्हें बनाने की जद्दोजहद शुरू हो गई। कई बार मुले जी को स्टूडियो में लाइव पर लाने की सूझी लेकिन ये कभी हो न सका। मुलेजी मेरे दिलो-दिमाग में थे, लेकिन फिर कभी उनसे रू-ब-रू मुलाकात नहीं हो सकी। आज इतने साल बाद मैं फिर अमरावती जा रहा था लेकिन अब मुलेजी नहीं थे। अमरावती पहुंचकर भारी दुख और क्षोभ हुआ। उनके दरवाजे चार आदमी भी नहीं थे, अमिताभ और मुलेजी के दो दामाद घर पर थे और किसी को कुछ नहीं सूझ रहा था कि अब करें तो क्या करें। हमारे आने पर आमने-सामने के पड़ोसियों को मालूम हुआ कि यहां कोई रहता था जिसका आज निधन हो गया, इक्का-दुक्का लोग आए और अफसोस करके अना त्योहार मनाने चले गए। इतने कम लोग थे कि शवयात्रा मुमकिन नहीं थी। एनडीएमसी की शवगाड़ी मंगवाई गई। माहौल में दुख की जगह बेचारगी और इस बात की जल्दबाजी थी कि गाड़ी कब आएगी। गाड़ी अपने वक्त पर आई। अमिताभ और बमुश्किल चार-पांच लोगों ने मुलेजी को अंतिम विदाई दी। मुलेजी का संघर्ष खत्म हो गया। लेकिन जिस तरह से खत्म हुआ वो बेहद दुखद था। मुलेजी की अमरावती अब सूनी हो चुकी है।
अमिताभ के प्रयासों से अंतत: मुलेजी की शोकसभा संभव हुई। मुलेजी की शोकसभा सोमवार यानि 26 अक्टूबर को आईटीओ के करीब हिंदी भवन में शाम को छह बजे होनी तय हुई है। “ वॉयेजर ” मां हिंदी को गौरवान्वित करने वाले इस संघर्षशील सुपुत्र को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है। मुलेजी की स्मृति में प्रस्तुत है कुछ विशेष सामग्री -

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