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शनिवार, 24 अक्तूबर 2009

विज्ञान लेखन का शलाका पुरुष नहीं रहा

स्तब्ध कर देने वाली खबर मिली -प्रसिद्ध विज्ञान लेखक गुणाकर मुले नहीं रहे ! मन क्लांत हो उठा -भारत में आम आदमी के लिए विज्ञान लेखन का शलाका पुरुष नहीं रहा ! स्वतन्त्रता के पश्चात (स्वातंत्र्योत्तर ) भारत में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के चतुर्दिक विकास और उसे आम लोगों के बीच पहुचाने /पहचानने की दिशा में प्रधानमंत्री नेहरू जी के "वैज्ञानिक मनोवृत्ति " (scientific temper ) के आह्वान को अमली जामा पहनाने में मुले जी का अप्रतिम योगदान रहा ! उस समय कोई अपनी बोली भाषा में विज्ञान को आम जन तक ले जाने के गुरुतर दायित्व को उठाने का साहस भी नहीं कर सकता था -सर्वत्र दोयम दर्जे की अंगरेजी का बोलबाला था (जो दुर्भाग्य से आज भी है ) ऐसे में वे एकला चलो की एकनिष्ठता और कार्य समर्पण की भावना से विज्ञान को जन जन तक, घर घर तक पहुचाने को वे कृत संकल्पित हुए और फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा ! उनकी बदौलत ही वर्तमान पीढी से ठीक पहले की पीढी जमीन -आसमान ,सागर -सितारों और चाँद सूरज के बारे में ,वैज्ञानिक प्रतिष्ठानों के विषय में हिन्दी में जानकारी प्राप्त कर पायी !उनकी दृष्टि खोजपरक थी -वे एक गंभीर अध्यता तो रहे ही ,वे एक शोधार्थी भी रहे -पुरा लिपियों पर उनका लेखन आज भी प्रामाणिक माना जाता है !मगर दुखद यह है कि विगत १३ अक्तूबर को इस सरस्वती पुत्र के अवसान की खबर इतनी देर से मिल रही है ! मुद्रण माध्यमों के लिए यह शायद पहले या किसी भी पन्ने की खबर नहीं रही ! और दृश्य माध्यमों की तो हालत और भी शोचनीय है !
मुले जी आज के अनेक हिन्दी विज्ञान लेखकों की पहली पंक्ति के पुरोधा रहे -हिन्दी विज्ञान लोकप्रियकरण के पितामह ! उनका लेखन सरल था मगर फिर भी गंभीर परिशीलन की मांग रखता था -अभिव्यक्ति का छिछोरापन /सतहीपन उनको गवारा नहीं था ! वे विज्ञान की गरिमा से समझौता न करने वालों मे रहे ! जबकि उनके कुछ बाद के और आज के कई स्वनामधन्य विज्ञान प्रचारकों ने विज्ञान की बखिया उधेड़ डाली है, उनके नामोल्लेख यहाँ अभिप्रेत नहीं -कहीं अन्यत्र उनके भी अवदान बल्कि प्रति-अवदान चर्चित होगें ही !मैं मुले जी से १९८८ में इलाहाबाद में आयोजित एक विज्ञान संगोष्ठी के समय पहली बार मिला था -धीर गंभीर व्यक्तित्व , बहु विज्ञ ,बहु पठित -मैं नत मस्तक था ! उनकी एक अभिलाषा थी साईंस फिक्शन को आगे बढ़ाने की क्योंकि वे खुद इस दिशा में अपरिहार्य कारणों से योगदान नहीं कर पाए -उनकी प्रेरणा ने मुझे इस उपेक्षित विधा की ओर और भी मनोयोग से लग जाने को प्रेरित किया ! उनके अनुगामी दिल्ली के विज्ञान लेखकों ने उनसे ईर्ष्या भाव भी रखा जबकि वे पूरी तरह निश्च्छल थे-यहाँ तक कि कृतघ्न पीढी ने यह तक कहा कि उन्हें आम लोगों में विज्ञान के संचार की समझ नहीं थी -ऐसी ही कृतघ्न पीढी सरकारी पुरस्कारों से भी नवाजी जाती रही है ! यह देश का दुर्भाग्य है ! गुणाकर मुले जी 74 वर्ष के थे। पिछले डेढ-दो वर्षो से बीमार चल रहे थे। उन्हें मांसपेशियों की एक दुर्लभ जेनेटिक बीमारी हो गई थी जिससे उनका चलना-फिरना बंद हो गया था। उनका जन्म महाराष्ट्र के अमरावती जिले के सिंधू बुर्जूग गांव में हुआ था .वे मूलतः मराठी भाषी थे, पर उन्होंने पचास साल से अधिक समय तक हिन्दी में विज्ञान लेखन किया। उनकी करीब तीन दर्जन पुस्तकें छपीं हैं । उनके परिवार में पत्नी, दो बेटियां एवं एक बेटा है।उनकी सबसे बड़ी विशेषता रही कि उन्होंने जीवन पर्यन्त एक पूर्णकालिक विज्ञान लेखक के रूप मे आजीविका चलाई जो एक चुनौती भरा काम था ! मुले का जीवट का व्यक्तित्व किसी के लिए भी अनुकरणीय हो सकता है -वे सही अर्थों में विज्ञानं को आम आदमी तक ले जाने को पूर्णरूपेंन समर्पित रहे और बिना नौकरी और सरकारी टुकडों पर पले पूर्ण कालिक विज्ञान लेखन की अलख जगाते रहे ! मेरा नमन !
- अरविंद मिश्रा

1 टिप्पणी:

  1. I am so glad Hindi does not have much in the genre of "science fiction". Science is study of Nature, there is noting fictitious about it. Sci-Fi consists of disjointed fantacies and should be called Techno-Trash.

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