पृथ्वी का ताप झेलने के लिए तैयार हो जाइए, क्योंकि बुरी खबरों का दौर शुरू हो चुका है। ग्लोबल वॉर्मिंग का मुद्दा सेमिनार और विचार गोष्ठियों के हवाले कर हम निश्चिंत हो गए कि धरती को बचाने में हमने भी हाथ लगा दिया। एक बेहद संवेदनशील मुद्दे के समाधान में हमने तमाम वक्त जाया कर दिया। अपने देश की ही बात करें तो सरकार में शामिल संतरी से लेकर मंत्री तक सब इसे अमेरिका और यूरोप जैसे विकसित देशों की समस्या ही माने बैठे हैं। इसका सबसे बड़ा सबूत ये कि देश में सरकार बनाने वाले लोकसभा चुनावों में किसी भी राजनीतिक दल के घोषणापत्र में पृथ्वी को बचाने की पहल का जिक्र तक नहीं है। और देश की मीडिया को तो नेताओं के पोतड़े ही साफ करने से फुरसत नहीं है। लोगों को जागरूक करना यहां भी एजेंडे में नहीं है, इसलिए ग्लोबल वॉर्मिंग जैसा अहम मुद्दा गायब है।
जैसा कि मैंने पहले कहा, बुरी खबरों का दौर शुरू हो गया है, क्योंकि कुदरत ने हमें जो वक्त दिया था हमने उसे ग्लोबल वॉर्मिंग की शो-केसिंग में जाया कर दिया। इस पोस्ट को लिखते वक्त मुझे काफी तकलीफ हो रही है, क्योंकि अब कुदरत की वो तस्वीर सामने नजर आ रही है जो किसी भी तरह से शुभ नहीं है और इससे से बुरी बात ये कि इसे रोका नहीं जा सकता। भारतीय और जर्मन वैज्ञानिकों की एक टीम ग्लोबल वॉर्मिंग को रोकने की कोशिश में जुटी थी। पहली बुरी खबर ये है कि उनकी तमाम कोशिशें बेकार हो गई हैं। इस इंडो-जर्मन अभियान की नाकामी से वैज्ञानिकों को बहुत बड़ा धक्का लगा है, क्योंकि इसका मकसद ग्लोबल वॉर्मिंग यानि पृथ्वी का ताप बढ़ाने वाली कार्बन डाई ऑक्साइड (CO2) गैस को समुद्र की तली में दफन करना था।
पृथ्वी पर फल-फूल रहे जीवन को बचाने की इस कोशिश में शामिल वैज्ञानिकों में 29 वैज्ञानिक भारत से थे। इस अभियान के तहत अंटार्कटिक के पास काफी बड़े इलाके के समंदर में काफी मात्रा में आयरन यानि लोहे का पावडर छिड़का गया। आइडिया ये था कि इस लौह पावडर से एक खास किस्म के शैवाल तेजी से पनपेंगे जो कि वातावरण में मौजूद कार्बन डाई ऑक्साइड को तेजी से सोख लेंगे। इस तरह हमें वातावरण की कार्बन डाई ऑक्साइड से छुटकारा मिल जाएगा। इंडो-जर्मन वैज्ञानिक अभियान ने 300 वर्ग किलोमीटर के दायरे में करीब चार टन आयरन का छिड़काव किया। इससे शैवाल दोगुने आकार के हो गए लेकिन समस्या तब पैदा हुई जब समुद्री जीव इन्हें चट कर गए। गोवा स्थित नैशनल इंस्टिट्यूट ऑफ ओशनोग्राफी के एस। डब्ल्यू. ए. नकवी का कहना था, समुद्री जीवों के शैवाल खाने से यह कार्बन डाई ऑक्साइड फिर से वातावरण में पहुंच गई। इस तरह महीनों की मेहनत और करोड़ों डॉलर का अभियान बेकार हो गया।
जैसा कि मैंने पहले कहा, बुरी खबरों का दौर शुरू हो गया है, क्योंकि कुदरत ने हमें जो वक्त दिया था हमने उसे ग्लोबल वॉर्मिंग की शो-केसिंग में जाया कर दिया। इस पोस्ट को लिखते वक्त मुझे काफी तकलीफ हो रही है, क्योंकि अब कुदरत की वो तस्वीर सामने नजर आ रही है जो किसी भी तरह से शुभ नहीं है और इससे से बुरी बात ये कि इसे रोका नहीं जा सकता। भारतीय और जर्मन वैज्ञानिकों की एक टीम ग्लोबल वॉर्मिंग को रोकने की कोशिश में जुटी थी। पहली बुरी खबर ये है कि उनकी तमाम कोशिशें बेकार हो गई हैं। इस इंडो-जर्मन अभियान की नाकामी से वैज्ञानिकों को बहुत बड़ा धक्का लगा है, क्योंकि इसका मकसद ग्लोबल वॉर्मिंग यानि पृथ्वी का ताप बढ़ाने वाली कार्बन डाई ऑक्साइड (CO2) गैस को समुद्र की तली में दफन करना था।
पृथ्वी पर फल-फूल रहे जीवन को बचाने की इस कोशिश में शामिल वैज्ञानिकों में 29 वैज्ञानिक भारत से थे। इस अभियान के तहत अंटार्कटिक के पास काफी बड़े इलाके के समंदर में काफी मात्रा में आयरन यानि लोहे का पावडर छिड़का गया। आइडिया ये था कि इस लौह पावडर से एक खास किस्म के शैवाल तेजी से पनपेंगे जो कि वातावरण में मौजूद कार्बन डाई ऑक्साइड को तेजी से सोख लेंगे। इस तरह हमें वातावरण की कार्बन डाई ऑक्साइड से छुटकारा मिल जाएगा। इंडो-जर्मन वैज्ञानिक अभियान ने 300 वर्ग किलोमीटर के दायरे में करीब चार टन आयरन का छिड़काव किया। इससे शैवाल दोगुने आकार के हो गए लेकिन समस्या तब पैदा हुई जब समुद्री जीव इन्हें चट कर गए। गोवा स्थित नैशनल इंस्टिट्यूट ऑफ ओशनोग्राफी के एस। डब्ल्यू. ए. नकवी का कहना था, समुद्री जीवों के शैवाल खाने से यह कार्बन डाई ऑक्साइड फिर से वातावरण में पहुंच गई। इस तरह महीनों की मेहनत और करोड़ों डॉलर का अभियान बेकार हो गया।
दूसरी बुरी खबर हिमालय से आई है। हिमालय के ग्लेशियरों पर पृथ्वी के ताप का असर सबसे ज्यादा हो रहा है। हाल ही में वाडिया इंस्टिट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के रवींद्र कुमार चौजर के नेतृत्व में शोधकर्ताओं की एक टीम ने उत्तराखंड के केदारनाथ धाम के पास चोराबारी ग्लेशियर का खास अध्ययन किया है। इन वैज्ञानिकों ने ग्लेशियर से बनने वाले मोरैन की स्टडी की। मोरैन मिट्टी और पत्थरों के इकट्ठा होने से बनते हैं। इन मौरेन में 2 हजार लाइकेंस (एक प्रकार का जीव) पाए गए। इन लाइकेंस का ग्रोथ रेट और वातावरण के संपर्क में आने के बाद इनके बढ़ने में लगने वाले समय से पता चलता है कि इस इलाके में मौसम में परिवर्तन 258 साल पहले शुरू हो गया था। यानि ग्लोबल वॉर्मिंग यानि पृथ्वी के ताप का असर सबसे पहले हिमालय के ग्लेशियर्स पर ही पड़ा था। इन वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि ग्लेशियर तेजी के साथ पिघल रहे हैं, यानि इन गर्मियों में हमें मैदानी इलाकों में बाढ़ की और भी विपदा झेलनी होगी। ये सिलसिला अगर जारी रहा तो वो वक्त ज्यादा दूर नहीं जब देश के एक अरब से ज्यादा लोगों की प्यास बुझाने वाली नदियां सूखने लगेंगीं। ग्लोबल वॉर्मिंग का सबसे पहला असर हिमालय के ग्लेशियरों पर पड़ा था, लेकिन अब इसका विस्तार पृथ्वी के उत्तर और दक्षिणी ध्रुव तक हो चुका है।
तीसरी बुरी खबर भी एंटार्कटिक से ही मिली है। न्यूजीलैंड, अमेरिका, इटली और जर्मनी जैसे देशों के 50 से ज्यादा वैज्ञानिकों के अंटार्कटिक जियॉलजिकल ड्रिलिंग रिसर्च प्रोग्राम की अध्ययन रिपोर्ट ने सख्त चेतावनी दी है। चेतावनी ये है कि अगर वातावरण में कार्बन डाई आक्साइड की मात्रा जरा भी बढी तो उससे अंटार्कटिक की बर्फीली सफेद चादर पिघलनी शुरू हो जाएगी। मौजूदा हालात ये है कि अंटार्कटिक की बर्फीली चादर के बड़े हिस्से पिघल चुके हैं। टीम के लीडर प्रोफेसर टिम नैश के मुताबिक, रॉक और सेडिमेंड कोर से मिली नई जानकारी बताती है कि पृथ्वी की धुरी के झुकाव में आने वाले बदलावों ने समुद्री तापमान को बढ़ाने में बड़ी भूमिका निभाई है। टिम विक्टोरिया यूनिवर्सिटी ऑफ वेलिंगटन के ऐंटार्कटिक रिसर्च सेंटर में प्रोफेसर हैं। प्रो. टिम के मुताबिक, ऐसा भी लगता है कि जब 40 लाख साल पहले वायुमंडल में कार्बन डाई ऑक्साइड गैस का कंसंट्रेशन 400 पार्ट्स पर मिलियन पहुंचा होगा, तब इस कारण हुई ग्लोबल वॉर्मिंग से पृथ्वी के झुकाव में बदलाव आया होगा। नतीजतन, आइस शीट के आकार में भी बड़ी तब्दीली देखी गई होगी। प्रो. टिम के मुताबिक, आज एक बार फिर वायुमंडल में कार्बन डाई ऑक्साइड का कंसंट्रेशन 400 पार्ट्स पर मिलियन के करीब पहुंच रहा है।
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