इसरो ने 8 साल पहले किया गया अपना एक पुराना प्रयोग फिर दोहराया और उसके नतीजों की घोषणा चार साल के एहतियात के बाद अब जाकर की है। 2001 इसरो ने अपने इस प्रयोग में धरती की सतह से 40 किलोमीटर ऊपर बैक्टीरिया जैसे सूक्ष्मजीव खोजे थे। इसके चार साल बाद 2005 में इसरो ने ये प्रयोग दोबारा वैज्ञानिकों की नई टीम के साथ दोहराया और 2001 में की गई जल्दबाजी और इसकी वजह से उठे विवाद को ध्यान में रखते हुए चार साल तक एहतियात बरतने के बाद 2005 के प्रयोग के नतीजों की घोषणा अब कहीं जाकर की है। इस बार भी इसरो ने पृथ्वी की सतह से 40 किलोमीटर ऊपर बैक्टीरिया जैसे सूक्ष्मजीव खोज निकाले हैं। लेकिन 2001 में उठे विवाद को जाने बगैर इस खोज का अर्थ नहीं समझा जा सकता।
2001 में वैज्ञानिक जयंत नार्लीकर और श्रीलंकाई मूल के उनके ब्रिटिश साइंटिस्ट दोस्त चंद्रा विक्रमासिंघे की पहल पर इसरो ने मौसम का मिजाज जानने के लिए छोड़े जाने वाले हीलियम गैस के गुब्बारे के साथ कुछ खास उपकरण बांधकर उड़ाए थे। इस प्रयोग का मकसद ये जानना था कि पृथ्वी की सतह से करीब 40 किलोमीटर ऊपर जहां वायुमंडल की ऊपरी पतली पर्त सूरज के घातक अल्ट्रा-वायलेट किरणों की बौछार सहती है, क्या वहां जीवन के तत्व मौजूद हैं ? प्रयोग सफल रहा उपकरण जब वापस आया तो उसके साथ बैक्टीरिया जैसे सूक्ष्मजीवों के नमूने भी थे। जयंत नार्लीकर और विक्रमासिंघे इन नतीजों से बहुत ज्यादा उत्साहित थे। नार्लीकर और विक्रमासिंघे ने अलग-अलग देशई और विदेशी मीडिया में अपने प्रयोग के नतीजों का खुलकर प्रचार किया। विक्रमासिंघे ने कहा कि 40 किलोमीटर की ऊंचाई पर मिले ये सूक्ष्मजीव धरती के नहीं हैं, उन्होंन इन्हें प्रांसपर्मिया का नाम दिया और कहा कि ये सूक्ष्मजीव किसी धूमकेतु यानि कॉमेट की पैदाइश हैं जो पृथ्वी के करीब से गुजरते वक्त रास्ते में इन्हं बिखेरता चला गया, बाद में पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण की वजह से ये खिंचकर वायुमंडल की ऊपर पर्त में इकट्ठा हो गए। हमारे देश के प्रतिष्ठित वैज्ञानिक डॉ. नार्लीकर ने भी विक्रमासिंघे के प्रांसपर्मिया सिद्धांत का समर्थन किया। कुछ ही दिनों बाद दुनिया दो नई बीमारियों की चपेट में आ गई, जिनके नाम थे - सार्स और बर्ड फ्लू। नार्लीकर और विक्रमासिंघे दोनों ने तब मीडिया में कहा कि सार्स और बर्ड फ्लू के वायरस इस दुनिया के नहीं हैं, बल्कि वो भी प्रांसपर्मिया की तरह किसी गुजरते हुए धूमकेतु या कॉमेट से धरती के ऊपर छिड़क दिए गए हैं। जयंत नार्लीकर ने अपनी इस परिकल्पना को मजबूती देने के लिए सवाल खड़ा किया कि बताइए भला ये कैसे मुमकिन है कि सार्स और बर्ड फ्लू की शुरुआत एशिया से हुई, लेकिन 24 घंटे के भीतर ये वायरस दुनिया के दूसरे छोर कनाडा में पाए गए। तब उन्होंने कहा था कि इससे दो बातें साबित होती है , पहली ये कि जीवन केवल पृथ्वी पर ही नहीं बल्कि कई और ठिकानों पर भी आबाद है, और दूसरी ये कि धरती से दूर किसी आवारा कॉमेट पर पनपते वॉयरस जैसे जीन पृथ्वी पर जीवन के लिए गंभीर समस्या खड़ी कर सकते हैं। खास बात ये रही कि नार्लीकर और उनके दोस्त विक्रमासिंघे ने पूरी दुनिया में इस प्रयोग को अपना कह कर प्रचारित किया और दूसरा ये कि इसरो ने इन वैज्ञानिकों की तमाम बयानबाजी के दौरान खामोश रहकर इनकी परिकल्पनाओं को अवैज्ञानिक समर्थन दिया। लेकिन विश्व मीडिया ने इसकी खबर छापने के साथ जमकर सवाल भी खड़े किए और नार्लीकर और उनके दोस्त विक्रमासिंघे की जमकर खिंचाई भी की। जब आलोचना बढ़ने लगी तो नार्लीकर ने ये कहकर दामन बचाने की कोशिश की कि मीडिया ने उनकी बातों को गलत ढंग से लिया है। तब से नार्लीकर और उनके दोस्त विक्रमासिंघे खामोश हो गए और मीडिया से परहेज करने लगे। इसरो ने 2001 में किए गए इस प्रयोग को चार साल बाद 2005 में फिर से दोहराया, लेकिन इस बार इसरो ने ये प्रयोग टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च (टीआईएफआर) के वैज्ञानिकों को साथ लेकर किया। हीलियम से भरे मौसम के गुब्बारे पर फिरसे उपकरण बांधकर छोड़े गए और ये उपकरण धरती की सतह से 40 किलोमीटर की ऊंचाई से जो नमूने लेकर लौटे उनकी जांच सीसीएमबी हैदराबाद और एनसीसीएस पुणे की प्रयोगशालाओं में की गई। इन प्रयोगशालाओं ने इन सैंपलों की जांच के बाद धरती से 20 से 41 किलोमीटर ऊपर 12 तरह के बैक्टीरिया और 6 तरह की फफूंद पाए जाने की पुष्टि की है। सबसे खास बात यह कि इनमें बैक्टीरिया की तीन किस्में ऐसी पाई गई हैं, जिनका जैविक ढांचा धरती पर पाए जाने वाले किसी भी जीव से नहीं मिलता। ये सैंपल स्ट्रेटोस्फेयर से लिए गए हैं जहां मान्य धारणाओं के मुताबिक अल्ट्रावायलेट किरणें जीवन की कोई संभावना ही नहीं छोड़तीं।
लेकिन इन खास सूक्ष्मजीवों के बारे में ये नतीजा निकालना कि ये धरती से बाहर मौजूद जिंदगी के नमूने हैं, बचकानापन और जल्दबाजी होगी। इसकी वजह ये कि हमारी पृथ्वी पर ही कई बैक्टीरिया ऑक्सीजन के बिना भी ऐसे हालात में मजे से जी रहे हैं जहां जिंदगी की कल्पना भी नहीं की जा सकती। कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि ये सूक्ष्मजीव पृथ्वी के ही बाशिंदे हैं, जो हो सकता है कि किसी ज्वालामुखी के विस्फोट से अंतरिक्ष में पहुंच गए हों और वहां के वातावरण में पनप गए हों। इनमें से एक प्रजाति का नामकरण इसरो के प्रयोग को समर्पित किया गया है और उसका नाम बेसिलस इसरोनेसिस रखा गया है। एक अन्य प्रजाति का नाम भारतीय खगोलबिद आर्यभट्ट को समर्पित किया गया है और उसका नाम बेसिलस आर्यभट्ट रखा गया है, वहीं तीसरी प्रजाति का नाम जेनीबैक्र होयले रखा गया है और इसे वैज्ञानिक फ्रेड हॉयल को समर्पित किया गया है। इस सबके बीच मजेदार बात ये कि अमेरिकी और दुनिया के दूसरे वैज्ञानिकों ने न तो 2002 में नार्लीकर और उनके दोस्त विक्रमासिंघे के सीना ठोंककर किए जा रहे दावों पर ध्यान दिया था और न ही अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिक समुदाय अब इसरो के ताजा ऐलान से प्रभावित हुआ है। साथ ही इस बार नार्लीकर और उनके दोस्त विक्रमासिंघे दोनों ने ही गहरी खामोशी ओढ़ रखी है। अमेरिकी और यूरोपियन वैज्ञानिक शुक्र के बादलों में बैक्टीरिया जैसे सूक्ष्मजीवों के होने की संभावना पर काम कर रहे हैं। लेकिन इसरो के 2005 के प्रयोग और इनके नतीजों की ताजा घोषणा पर अंतरराष्ट्रीय शोध संस्थानों ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है।
2001 में वैज्ञानिक जयंत नार्लीकर और श्रीलंकाई मूल के उनके ब्रिटिश साइंटिस्ट दोस्त चंद्रा विक्रमासिंघे की पहल पर इसरो ने मौसम का मिजाज जानने के लिए छोड़े जाने वाले हीलियम गैस के गुब्बारे के साथ कुछ खास उपकरण बांधकर उड़ाए थे। इस प्रयोग का मकसद ये जानना था कि पृथ्वी की सतह से करीब 40 किलोमीटर ऊपर जहां वायुमंडल की ऊपरी पतली पर्त सूरज के घातक अल्ट्रा-वायलेट किरणों की बौछार सहती है, क्या वहां जीवन के तत्व मौजूद हैं ? प्रयोग सफल रहा उपकरण जब वापस आया तो उसके साथ बैक्टीरिया जैसे सूक्ष्मजीवों के नमूने भी थे। जयंत नार्लीकर और विक्रमासिंघे इन नतीजों से बहुत ज्यादा उत्साहित थे। नार्लीकर और विक्रमासिंघे ने अलग-अलग देशई और विदेशी मीडिया में अपने प्रयोग के नतीजों का खुलकर प्रचार किया। विक्रमासिंघे ने कहा कि 40 किलोमीटर की ऊंचाई पर मिले ये सूक्ष्मजीव धरती के नहीं हैं, उन्होंन इन्हें प्रांसपर्मिया का नाम दिया और कहा कि ये सूक्ष्मजीव किसी धूमकेतु यानि कॉमेट की पैदाइश हैं जो पृथ्वी के करीब से गुजरते वक्त रास्ते में इन्हं बिखेरता चला गया, बाद में पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण की वजह से ये खिंचकर वायुमंडल की ऊपर पर्त में इकट्ठा हो गए। हमारे देश के प्रतिष्ठित वैज्ञानिक डॉ. नार्लीकर ने भी विक्रमासिंघे के प्रांसपर्मिया सिद्धांत का समर्थन किया। कुछ ही दिनों बाद दुनिया दो नई बीमारियों की चपेट में आ गई, जिनके नाम थे - सार्स और बर्ड फ्लू। नार्लीकर और विक्रमासिंघे दोनों ने तब मीडिया में कहा कि सार्स और बर्ड फ्लू के वायरस इस दुनिया के नहीं हैं, बल्कि वो भी प्रांसपर्मिया की तरह किसी गुजरते हुए धूमकेतु या कॉमेट से धरती के ऊपर छिड़क दिए गए हैं। जयंत नार्लीकर ने अपनी इस परिकल्पना को मजबूती देने के लिए सवाल खड़ा किया कि बताइए भला ये कैसे मुमकिन है कि सार्स और बर्ड फ्लू की शुरुआत एशिया से हुई, लेकिन 24 घंटे के भीतर ये वायरस दुनिया के दूसरे छोर कनाडा में पाए गए। तब उन्होंने कहा था कि इससे दो बातें साबित होती है , पहली ये कि जीवन केवल पृथ्वी पर ही नहीं बल्कि कई और ठिकानों पर भी आबाद है, और दूसरी ये कि धरती से दूर किसी आवारा कॉमेट पर पनपते वॉयरस जैसे जीन पृथ्वी पर जीवन के लिए गंभीर समस्या खड़ी कर सकते हैं। खास बात ये रही कि नार्लीकर और उनके दोस्त विक्रमासिंघे ने पूरी दुनिया में इस प्रयोग को अपना कह कर प्रचारित किया और दूसरा ये कि इसरो ने इन वैज्ञानिकों की तमाम बयानबाजी के दौरान खामोश रहकर इनकी परिकल्पनाओं को अवैज्ञानिक समर्थन दिया। लेकिन विश्व मीडिया ने इसकी खबर छापने के साथ जमकर सवाल भी खड़े किए और नार्लीकर और उनके दोस्त विक्रमासिंघे की जमकर खिंचाई भी की। जब आलोचना बढ़ने लगी तो नार्लीकर ने ये कहकर दामन बचाने की कोशिश की कि मीडिया ने उनकी बातों को गलत ढंग से लिया है। तब से नार्लीकर और उनके दोस्त विक्रमासिंघे खामोश हो गए और मीडिया से परहेज करने लगे। इसरो ने 2001 में किए गए इस प्रयोग को चार साल बाद 2005 में फिर से दोहराया, लेकिन इस बार इसरो ने ये प्रयोग टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च (टीआईएफआर) के वैज्ञानिकों को साथ लेकर किया। हीलियम से भरे मौसम के गुब्बारे पर फिरसे उपकरण बांधकर छोड़े गए और ये उपकरण धरती की सतह से 40 किलोमीटर की ऊंचाई से जो नमूने लेकर लौटे उनकी जांच सीसीएमबी हैदराबाद और एनसीसीएस पुणे की प्रयोगशालाओं में की गई। इन प्रयोगशालाओं ने इन सैंपलों की जांच के बाद धरती से 20 से 41 किलोमीटर ऊपर 12 तरह के बैक्टीरिया और 6 तरह की फफूंद पाए जाने की पुष्टि की है। सबसे खास बात यह कि इनमें बैक्टीरिया की तीन किस्में ऐसी पाई गई हैं, जिनका जैविक ढांचा धरती पर पाए जाने वाले किसी भी जीव से नहीं मिलता। ये सैंपल स्ट्रेटोस्फेयर से लिए गए हैं जहां मान्य धारणाओं के मुताबिक अल्ट्रावायलेट किरणें जीवन की कोई संभावना ही नहीं छोड़तीं।
लेकिन इन खास सूक्ष्मजीवों के बारे में ये नतीजा निकालना कि ये धरती से बाहर मौजूद जिंदगी के नमूने हैं, बचकानापन और जल्दबाजी होगी। इसकी वजह ये कि हमारी पृथ्वी पर ही कई बैक्टीरिया ऑक्सीजन के बिना भी ऐसे हालात में मजे से जी रहे हैं जहां जिंदगी की कल्पना भी नहीं की जा सकती। कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि ये सूक्ष्मजीव पृथ्वी के ही बाशिंदे हैं, जो हो सकता है कि किसी ज्वालामुखी के विस्फोट से अंतरिक्ष में पहुंच गए हों और वहां के वातावरण में पनप गए हों। इनमें से एक प्रजाति का नामकरण इसरो के प्रयोग को समर्पित किया गया है और उसका नाम बेसिलस इसरोनेसिस रखा गया है। एक अन्य प्रजाति का नाम भारतीय खगोलबिद आर्यभट्ट को समर्पित किया गया है और उसका नाम बेसिलस आर्यभट्ट रखा गया है, वहीं तीसरी प्रजाति का नाम जेनीबैक्र होयले रखा गया है और इसे वैज्ञानिक फ्रेड हॉयल को समर्पित किया गया है। इस सबके बीच मजेदार बात ये कि अमेरिकी और दुनिया के दूसरे वैज्ञानिकों ने न तो 2002 में नार्लीकर और उनके दोस्त विक्रमासिंघे के सीना ठोंककर किए जा रहे दावों पर ध्यान दिया था और न ही अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिक समुदाय अब इसरो के ताजा ऐलान से प्रभावित हुआ है। साथ ही इस बार नार्लीकर और उनके दोस्त विक्रमासिंघे दोनों ने ही गहरी खामोशी ओढ़ रखी है। अमेरिकी और यूरोपियन वैज्ञानिक शुक्र के बादलों में बैक्टीरिया जैसे सूक्ष्मजीवों के होने की संभावना पर काम कर रहे हैं। लेकिन इसरो के 2005 के प्रयोग और इनके नतीजों की ताजा घोषणा पर अंतरराष्ट्रीय शोध संस्थानों ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है।
meaningful article...
जवाब देंहटाएंशुक्रिया।
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मिल गयी दूसरी धरती?
आसमान में छेद हो गया....
संदीप जी, शायद आपने ब्लॉग के लिए ज़रूरी चीजें अभी तक नहीं देखीं। यहाँ आपके काम की बहुत सारी चीजें हैं।
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