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बुधवार, 25 सितंबर 2013

300 साल पुरानी गुत्थी सुलझी, पता चला कि पृथ्वी के इनर कोर के घूमने की दिशा क्या है?


वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि उन्होंने पृथ्वी का कोर किस दिशा में घूमता है? इस 300 साल पुराने सवाल का जवाब ढूंढ़ निकाला है। वैज्ञानिकों के बनाए नए मॉडल से पता चला है कि ठोस लोहे की बनी पृथ्वी की इनर कोर पूरब की ओर से ‘सुपर रोटेट’ कर रही है। ‘सुपर रोटेट’ का मतलब ये कि इनर कोर की घूमने की रफ्तार पृथ्वी की गति से ज्यादा है। इस मॉडल से ये भी पता चला है कि मुख्यतौर पर पिघले लोहे से बना आउटर कोर अपेक्षाकृत धीमी गति से इनर कोर के विपरीत यानि पश्चिम की ओर से घूम रहा है।
1692 में एडमंड हैले ने पृथ्वी के जियोमैग्नेटिक फील्ड में पश्चिम दिशा को केंद्रित एक ड्रिफ्टिंग मोशन दिखाया था। तब से लेकर अब पहली बार वैज्ञानिक इनर कोर और आउटर कोर के घूमने के तरीकों को लेकर कुछ बता सके हैं। लीड्स यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि पृथ्वी का जियोमैग्नेटिक फील्ड ही हमारे ग्रह के कोर की इन विरोधी गतियों की वजह है।
लीड्स यूनिवर्सिटी में स्कूल ऑफ अर्थ एंड एनवायरमेंट के डॉ। फिलिप लिवरमोर ने बताया कि भूकंप मापने वाले सीस्मोमीटर्स ने ही पहले पहल पृथ्वी की सतह के सापेक्ष ठोस इनर कोर के पूरब की ओर केंद्रित ‘सुपर रोटेशन’ को पहचाना था। न्यूटन के गति के तीसरे नियम की कसौटी पर इसे बराबर और विपरीत क्रिया के तौर पर आसानी से समझाया जा सकता है। इनर कोर पर मैग्नेटिक फील्ड पूरब की ओर केंद्रित नजर आती है, इस वजह से इनर कोर की रफ्तार पृथ्वी की गति से तेज रहती है। लेकिन पूरब की ओर घूमने के क्रम में ठोस इनर कोर अपने चारों ओर मौजूद पिघले आउटर कोर को विपरीत दिशा की ओर ठेलती रहती है, इससे आउटर कोर विपरीत दिशा यानि पश्चिम की ओर केंद्रित होकर घूमता रहता है।
हमारे ठोस इनर कोर का आकार हमारे चंद्रमा जितना है। लेकिन पृथ्वी के केंद्र में मौजूद ये लोहे का ठोस चंद्रमा चारों तरफ से पिघले लोहे के एलॉय से बने आउटर कोर से घिरा है। हालांकि पृथ्वी का इनर कोर हमारे पैरों से 5200 किलोमीटर नीचे है, फिर भी इसकी मौजूदगी प्रभाव पृथ्वी की सतह के लिए विशेषतौर पर महत्वपूर्ण है।  
जैसे-जैसे इनर कोर का आकार बढ़ता है, तो ठोस होने की इस प्रक्रिया में हीट रिलीज होती है, जिससे ऊउटर कोर में बिजली पैदा होती है। इस बिजली से ही हमारा मैग्नेटिक फील्ड जन्म लेता है।
पृथ्वी की सतह पर मौजूद जीवन के लिए ये मैग्नेटिक फील्ड सौर विकिरण से सुरक्षा के लिए एक कवच का काम करता है। इसके बगैर पृथ्वी पर जीवन संभव नहीं है। 

रविवार, 22 सितंबर 2013

मेरी बीमारी ने मुझे उम्दा वैज्ञानिक बना दिया: प्रो.हॉकिंग


'ए ब्रीफ़ हिस्ट्री ऑफ टाइम' के लेखक स्टीफ़न हॉकिंग एक बार फिर चर्चा में हैं. इस बार मौका है उनके जीवन संघर्षों पर बनी फिल्म 'हॉकिंग'का जो जल्दी ही दुनियाभर में रिलीज होने वाली है। प्रो.स्टीफन हॉकिंग एक इंटरव्यू में इस फिल्म और अपने जीवन के बारे में खुल कर बात की। प्रस्तुत है इस इंटरव्यू के खास अंश -

अपने जीवन पर बन रही इस फ़िल्म के बारे में पूछने पर हॉकिंग कहते हैं ''यह फ़िल्म विज्ञान पर केंद्रित है, और शारीरिक अक्षमता से जूझ रहे लोगों को एक उम्मीद जगाती है। 21 वर्ष की उम्र में डॉक्टरों ने मुझे बता दिया था कि मुझे मोटर न्यूरोन नामक लाइलाज बीमारी है और मेरे पास जीने के लिए सिर्फ दो या तीन साल हैं।

इसमें शरीर की नसों पर लगातार हमला होता है।कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में इस बीमारी से लड़ने के बारे में मैने बहुत कुछ सीखा''। हॉकिंग का मानना है कि हमें वह सब करना चाहिए जो हम कर सकते हैं, लेकिन हमें उन चीजों के लिए पछताना नहीं चाहिए जो हमारे वश में नहीं है।

यह पूछने पर कि क्या अपनी शारीरिक अक्षमताओं की वजह से वह दुनिया के सबसे बेहतरीन वैज्ञानिक बन पाए, हॉकिंग कहते हैं, ''मैं यह स्वीकार करता हूं मैं अपनी बीमारी के कारण ही सबसे उम्दा वैज्ञानिक बन पाया, मेरी अक्षमताओं की वजह से ही मुझे ब्रह्माण्ड पर किए गए मेरे शोध के बारे में सोचने का समय मिला। भौतिकी पर किए गए मेरे अध्ययन ने यह साबित कर दिखाया कि दुनिया में कोई भी विकलांग नहीं है।''

हॉकिंग को अपनी कौन सी उपलब्धि पर सबसे ज्यादा गर्व है? हॉकिंग जवाब देते हैं '' मुझे सबसे ज्यादा खुशी इस बात की है कि मैंने ब्रह्माण्ड को समझने में अपनी भूमिका निभाई। इसके रहस्य लोगों के लिए खोले और इस पर किए गए शोध में अपना योगदान दे पाया। मुझे गर्व होता है जब लोगों की भीड़ मेरे काम को जानना चाहती है।''हॉकिंग के मुताबिक यह सब उनके परिवार और दोस्तों की मदद के बिना संभव नहीं था।

यह पूछने पर कि क्या वे अपने भविष्य को लेकर चिंतित हैं हॉकिंग कहते हैं, ''लगभग सभी मांसपेशियों से मेरा नियंत्रण खो चुका है और अब मैं अपने गाल की मांसपेशी के जरिए, अपने चश्मे पर लगे सेंसर को कम्प्यूटर से जोड़कर ही बातचीत करता हूँ।''

मरने के अधिकार जैसे विवादास्पद मुद्दे पर हॉकिंग बीबीसी से कहते हैं, ''मुझे लगता है कि कोई भी व्यक्ति जो किसी लाइलाज बीमारी से पीड़ित है और बहुत ज्यादा दर्द में है उसे अपने जीवन को खत्म करने का अधिकार होना चाहिए और उसकी मदद करने वाले व्यक्ति को किसी भी तरह की मुकदमेबाजी से मुक्त होना चाहिए।''
स्टीफन हॉकिंग आज भी नियमित रूप से पढ़ाने के लिए विश्वविद्यालय जाते हैं, और उनका दिमाग आज भी ठीक ढंग से काम करता है।

ब्लैक होल और बिग बैंग थ्योरी को समझने में उन्होंने अहम योगदान दिया है। उनके पास 12 मानद डिग्रियाँ हैं और अमरीका का सबसे उच्च नागरिक सम्मान उन्हें दिया गया है।

चंद्रमा पर एटमी धमाका करना चाहता था नासा

अमेरिका की स्पेस एजेंसी नासा ने मून मिशन के शुरुआती दिनों में चंद्रमा पर न्यूक्लियर बम से एटमी धमाका करने की योजना बनाई थी।

 यह बात भले ही बड़ी अजीब सी लगे, लेकिन है यह एक सच। हालांकि इस अत्यंत गोपनीय मिशन को सेना द्वारा आपत्ति जताए जाने के बाद वापस ले लिया गया था। सेना का मानना था कि यदि यह मिशन फेल हो गया तो पृथ्वीवासियों के लिए इसके परिणाम बेहद खराब होंगे।

एक अंग्रेजी अखबार ने दावा किया है कि स्पेस मिशन को भेजने की होड़ में वर्ष 1950 में अमेरिका ने चांद पर न्यूक्लियर बम का धमाका करने की योजना तैयार की थी। हालांकि इस योजना को कभी लागू नहीं किया जा सका।

अखबार के मुताबिक इस योजना को अत्यंत गोपनीय मिशन के तहत तैयार किया गया था। इस मिशन का नाम स्टडी ऑफ ल्यूनार रिसर्च फ्लाइट था। जिसका कोड नेम प्रोजेक्ट ए119 था। योजना के मुताबिक चांद पर धमाका कर वहां के धूल, मिट्टी समेत यहां मौजूद गैसों का परिक्षण किया जाना था। यह जिम्मा एक युवा खगोलविद को सौंपा गया था। इस योजना को बेहद गोपनीय तरीके से ही अंजाम भी देना था।

अखबार में छपी खबर के मुताबिक इस योजना को अमली जामा पहनाने के लिए अमेरिका को एक मिसाइल जमीन से चांद की ओर भेजनी थी। यह मिसाइल 238000 मील का सफर कर चांद तक जाती और धमाका करती। इसके लिए वैज्ञानिकों ने एटम बम को चुना था क्योंकि हाइड्रोजन बम काफी भारी होने के चलते चांद पर भेजना काफी मुश्किल था। 

लेकिन वैज्ञानिकों के इस मिशन को अमेरिकी सेना ने पूरी तरह से खारिज कर दिया। सेना का कहना था था कि यदि यह मिशन सफल नहीं हुआ तो इसका असर पृथ्वी पर पड़ेगा। सेना ने इसके गंभीर परिणाम होने की आशंका भी जताई थी, जिसके बाद इस योजना से पांव पीछे खींच लिए गए।

शुक्रवार, 6 सितंबर 2013

धरती पर सबसे विशाल ज्वालामुखी की खोज


हमारी धरती पर सबसे विशाल ज्वालामुखी की खोज की गई है। ये ज्वालामुखी इतना विशाल है कि इसे पूरे सौरमंडल का दूसरा सबसे बड़ा ज्वालामुखी कहा जा रहा है। पृथ्वी का ये सबसे विशाल ज्वालामुखी धरती पर नहीं, बल्कि प्रशांत महासागर के तल पर मौजूद है। ये ज्वालामुखी भौगेलिक आकार में ब्रिटिश या मैक्सिको देशों के जितनी विशाल है। जर्नल नेचर जियोसाइंस में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार जापान के पूर्वी तट से करीब 1609 किलोमीटर दूर मौजूद इस सबसे बड़े ज्वालामुखी का नाम 'टैमू मैसिफ' रखा गया है।
प्रशांत महासागर के भीतर 'शैट्सकाई राइज' नाम की विशाल पर्वतमाला है, जिसका निर्माण 13 से 14।5 करोड़ साल पहले हुआ था। ज्वालामुखी 'टैमू मैसिफ' इसी पर्वतमाला का एक बड़ा हिस्सा है। विशालतम ज्वालामुखी 'टैमू मैसिफ' प्रशांत महासागर के तल में करीब 310798 वर्ग किलोमीटर के दायरे में फैला है।
अब तक 5179 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले हवाई के सक्रिय ज्वालामुखी 'मौना लोआ' को पृथ्वी का सबसे विशाल ज्वालामुखी समझा जाता था, लेकिन  अगर आकार के मामले में इसकी तुलना 'टैमू मैसिफ' से की जाए, तो इसके सामने 'मौना लोआ' महज 2 फीसदी ही है। हमारे सौरमंडल का सबसे विशाल ज्वालामुखी 'ओलिंपस मॉन्स' है, जो कि मंगल ग्रह पर है। लेकिन 'ओलिंपस मॉन्स' भी पृथ्वी के इस नए ज्वालामुखी 'टैमू मैसिफ' से केवल 25 प्रतिशत ही बड़ा है।
अब तक ये स्पष्ट नहीं है कि 'टैमू मैसिफ' एक ज्वालामुखी है या फिर ये कई सारे ज्वालामुखियों का समूह है। ह्युस्टन यूनिवर्सिटी के डिपार्टमेंट आफ अर्थ एंड एटमॉस्फियरिक साइंसेज के प्रोफेसर विलियम सागर के मुताबिक 'टैमू मैसिफ' को बनाने वाले बासाल्ट की भारी-भरकम मात्रा को देखने से पता चलता है कि ये केंद्र में मौजूद एक ही रास्ते से बाहर आए हैं। इसलिए निश्चित तौर पर 'टैमू मैसिफ' एक ही और दुनिया का विशालतम ज्वालामुखी है।
2009 में 'शैट्सकाई राइज' पर्वतमाला के अध्ययन के लिए गए एक्सपीडीशन-324 के ओशन ड्रिलिंग प्रोग्राम के सदस्यों ने पता लगाया है कि ज्वालामुखी 'टैमू मैसिफ' की भौगोलिक रचना कुछ इस प्रकार है कि इसका लावा धरती पर मौजूद किसी दूसरे ज्वालामुखी की तुलना में बहुत ज्यादा दूर तक जाता है। विशेष अध्ययन दलों ने 2010 और 2012 में भी इस ज्वालामुखी के बारे में आंकड़े जुटाए हैं। 'टैमू मैसिफ' की कोर से लेकर कई इलाकों से सैंपल इकट्ठे किए गए हैं।
वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि ज्वालामुखी 'टैमू मैसिफ' का शीर्ष या टॉप समुद्र की ऊपरी सतह से करीब 6500 फुट नीचे है। पृथ्वी के इस विशालतम ज्वालामुखी का अधिकतर बेस पानी के भीतर ही है और ये करीब 6 किलोमीटर गहरा है।