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शुक्रवार, 25 जून 2010

आज का ‘स्पेस वेदर’ देखा क्या?

क्या आपने स्पेस वेदर यानि अंतरिक्ष के मौसम की जानकारी लेने के बारे में कभी सोंचा है ? आम लोगों के लिए 'स्पेस वेदर' ये शब्द ही शायद नया है, लेकिन अब ये शब्द जल्दी आपको प्रमुखता से नजर आने वाला है। बिजलीघरों, तेल शोधन संयंत्रों और रेलवे के लिए तो अब हर बीतने वाले दिन के साथ स्पेस वेदर की निगरानी करना बेहद जरूरी होता जाएगा। इसकी वजह बताने से पहले स्पेस वेदर से परिचित कराना जरूरी है। स्पेस वेदर का सीधा मतलब हमारे सूरज से है। स्पेस वेदर हमें बताता है कि सूरज से विकिरण का तूफान कब उठने वाला है? ये कितना तीव्र होगा ? और इसकी दिशा क्या होगी ?
धरती पर जिंदगी के लिए सूरज हमेशा से ही महत्वपूर्ण था, लेकिन इसकी अहमियत अब इतनी ज्यादा बढ़ गई है कि हम हर पल इसकी निगरानी कर रहे हैं। हाल में कुछ अखबारों में खबर छपी थी कि 2013 में सूरज से इतना जबरदस्त तूफान उठने वाला है कि धरती पर भारी तबाही आ जाएगी। कई टीवी न्यूज चैनलों ने इस खबर को काफी बढ़ाचढ़ाकर भी दिखाया था। लेकिन इस खबर में दो बातें एकदम आधारहीन हैं, पहली तो ये कि सूरज से तूफान कब उठेगा इसकी भविष्यवाणी हम कर ही नहीं सकते, दूसरा ये कि सूरज का तूफान धरती पर भारी तबाही ला देगा ये दावा एक सनसनीखेज बयान से ज्यादा और कुछ नहीं।
हां, ये सच है कि सूरज में एक बड़ी हलचल जारी है, लेकिन ये कोई नई बात नहीं। सूरज की निगरानी में जुटे दुनिया के कुछ बड़े सौर वैज्ञानिकों को असली परेशानी सूरज से उठने वाले मध्यम दर्जे के तूफान से है। क्योंकि सूरज से उठने वाला मध्यम दर्जे का एक विकिरण का तूफान हमारी धरती के चुंबकीय क्षेत्र को बुरी तरह से झिंझोड़ सकता है। अगर ऐसा होता है तो पूरी तरह टेक्नोलॉजी पर आधारित हमारी दुनिया के लिए भारी मुसीबत खड़ी हो सकती है। नई खबर ये है कि दुनिया के कुछ हिस्सों में रेलवे सिगनल्स काम करना बंद कर सकते हैं, कच्चे तेल और गैस को शोधक संयंत्र तक ले जाने वाली पाइपलाइनों में अचानक इतनी जंग लग सकती है कि उनके लीक होने का खतरा पैदा हो सकता है और शहरों को बिजली की आपूर्ति करने वाले ग्रिड स्टेशंस अचानक ठप हो सकते हैं।
दरअसल विकिरण के तूफान के साथ सूरज से आवेशित कणों की तेज बौछार भी फूट पड़ती है, जिसे कोरोनल मास इजेक्शन यानि सीएमई कहते हैं, समस्या की असली वजह ये सीएमई ही है। अगर सूरज से मध्यम दर्जे का कोई विकिरण का तूफान फूटता है और उसके साथ उठने वाले आवेशित कणों की तेज बौछार के सीधे निशाने पर पृथ्वी आ जाती है, तो इसका पहला असर होगा पृथ्वी की कक्षा में मौजूद सेटेलाइट्स पर। कुछ समय पहले सूरज से फूटे विकिरण के एक हल्के तूफान ने अमेरिका के एक संचार सेटेलाइट को जलाकर बेकाबू कर दिया है। अब ये सेटेलाइट आसपास के दूसरे सेटेलाइट्स के लिए खतरा बना हुआ है। ऐसी स्थिति अंतरिक्ष में मौजूद इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन और उसके अंतरिक्षयात्रियों के लिए भी आपातकालीन होगी।
1859 में सूरज से एक बहुत बड़ा तूफान उठकर सीधे धरती से आ टकराया था, इससे अमेरिका में टेलीग्राफ लाइनें बर्बाद हो गईं थीं और कई मिलों की मशीनों को भारी नुकसान पहुंचा था। सूरज से ऐसा तूफान आमतौर पर दस-ग्यारह साल में एक बार आता है। 1989 में कनाडा का क्यूबेक शहर की बिजली अचानक फेल हो गई और पूरा शहर 9 घंटे तक अंधेरे में डूबा रहा, बाद में पता चला कि सौर विकिरण का तूफान ही इसकी वजह था।
मध्यम से छोटे दर्जे के सौरतूफान रेलवे सिगनल्स को अचानक ही खराब कर किसी बड़ी दुर्घटना की वजह भी बन सकते हैं। मिसाल के तौर पर 2000 से 2005 के बीच उत्तर पश्चिमी रूस के आर्चांगेल प्रांत में रेलवे सिगन्स कई बार अचानक ही खराब हो गए। रूस के त्रोइत्स्क में काम कर रहे पुश्कोव इंस्टीट्यूट आफ टेरेस्ट्रियल मैग्नेटिज्म, आयनोस्फियर एंड रेडियो वेव प्रोपेगेशन ने रेलवे सिगनल्स की इन खराबियों का खास अध्ययन किया। पता चला कि रेलवे सिगनल अचानक ही घंटों तक रेड हो गए थे, जबकि ट्रैक एकदम खाली था। फिर अचानक ही वो लगातार हरे और लाल होने लगे थे। पुश्कोव इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिक इरोशेन्को ने पता लगाया कि रेलवे सिगनल्स की इन खराबियों की असली वजह 'स्पेस वेदर' का सौर विक्षोभ ही था।
हमारे देश में रेलवे सिगनल्स की ऐसी अस्वाभाविक खराबी की फिलहाल कोई रिपोर्ट नहीं है। इसका मतलब ये नहीं कि सूरज से फूटने वाले आवेशित कणों के बादल केवल रूस या विदेशों में ही असर दिखाते हैं, बल्कि इसका अर्थ ये है कि हमारे लिए ये बिल्कुल नई जानकारी है और वैज्ञानिकों और खुद रेलवे ने रेलवे ट्रैक के सिगनल से सूरज की छेड़खानी को अभी गंभीरता से लिया ही नहीं है।
वैज्ञानिक इरोशेन्को की टीम में शामिल हेलसिंकी के फिनिश मेट्रोलॉजिकल इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिक रिस्टो पिरजोला सुझाव देते हैं कि अगर हर देश का रेलवे विभाग अपने सिगनल में आई खराबी के दिन और वक्त का हिसाब रखने लगे तो वैज्ञानिकों को इसके पीछे सौर तूफान की भूमिका को समझने में मदद मिलेगी। रेलवे सिगनल्स को सूरज के इस हस्तक्षेप से बचाने का तरीका काफी आसान है हमें बस कुछ उपकरण बदलने होंगे। लेकिन अगर भारत जैसे विशाल रेलवे नेटवर्क वाले देश की बात करें तो रेलवे सिगनल को बचाने का ये खर्च ही शायद अरबों रुपये तक आएगा।

बुधवार, 23 जून 2010

रहस्यमय 'जियोन्यूट्रिनोज' की खोज !

इटली में एक पहाड़ के नीचे जमीन के भीतर एक विशाल और अनोखी प्रयोगशाला है, जिसका नाम है ग्रान सैसो नेशनल लैबोरेट्री। ये तस्वीर इसी प्रयोगशाला की है, जिसकी दीवारों में टंगे ये हजारों शीशे के गोले दरअसल न्यूट्रिनोज सेंसर हैं, जिनमें हजारों टन तरल हाइड्रोकार्बन और उच्च शोधित पानी भरा है। इस प्रयोगशाला में एक खास प्रोजेक्ट चल रहा है जिसका नाम है बोरेक्सीनो एक्सपेरीमेंट। प्रिंसटन यूनिवर्सिटी समेत दुनियाभर की कई मशहूर यूनिवर्सिटीज और रिसर्च सेंटर्स से जुड़े 88 वैज्ञानिकों की टीम इस एक्सपेरीमेंट प्रोजेक्ट में काम कर रही है। जमीन के नीचे काम कर रहे ये वैज्ञानिक एक खास प्राकृतिक कण की खोज में जुटे हैं जो सूरज से फूटते हैं और सामने आने वाली हर चीज से आर-पार निकल जाते हैं। इन कणों का नाम है न्यूट्रिनोज। लेकिन साइंस में अकसर ऐसा होता है कि वैज्ञानिक खोज कुछ रहे होते हैं और उनके हाथ लग कुछ और जाता है। इस एक्सपेरीमेंट के दौरान भी कुछ ऐसा ही हुआ है, न्यूट्रिनोज की तलाश कर रहे वैज्ञानिकों ने इस प्रयोगशाला के इन हजारों सेंसर्स की मदद से परमाणु से भी बहुत सूक्ष्म अनोखे 'जियोन्यूट्रिनोज' की खोज कर ली है। न्यूट्रिनोज की तरह 'जियोन्यूट्रिनोज' सूरज से नहीं फूटते बल्कि वो धरती की ऊपरी पर्त और गहराई में मौजूद मेंटल में मौजूद रेडियम, थोरियम और पोटैशियम जैसे रेडियोएक्टिव पदार्थों के क्षरण से पैदा होते हैं। सबसे खास बात ये कि वैज्ञानिकों को शक है कि धरती के गर्भ में जारी हलचल को तेज करके ज्वालामुखी विस्फोट और भूकंप जैसी आपदाओं को जन्म देने में 'जियोन्यूट्रिनोज' ही मुख्य भूमिका निभाते हैं।
'जियोन्यूट्रिनोज' की खोज की ये खबर मुझे रोनाल्ड एमरिक की डूम्सडे फिल्म 2012 की याद दिला रही है। इस फिल्म में एमरिक ने महाद्वीपों के खिसकने के लिए सूरज से फूटने वाले न्यूट्रिनोज को जिम्मेदार बताया था। फिल्म की थ्योरी ये थी कि न्यूट्रिनोज जब धरती के गर्भ के मेंटल के संपर्क में आते हैं तो एक नए तरह के कणों को जन्म देते हैं, जो धरती के केंद्र की गरमी को और भी ज्यादा बढ़ा रहे हैं। बहरहाल फिल्म में 'जियोन्यूट्रिनोज' का नाम नहीं लिया गया, लेकिन वैज्ञानिकों का मानना है कि जियोन्यूट्रिनोज धरती के गर्भ की हलचल को तेज करके ज्वालामुखी विस्फोट और भूकंप जैसी आपदाओं में भूमिका निभा सकते हैं। इस अनोखी खोज में भूमिका निभाने वाले प्रिंसटन यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने 'जियोन्यूट्रिनोज' के विनाशकारी होने की आशंकाओं से इनकार करते हुए कहा है कि ये सच है कि न्यूट्रिनोज की तरह 'जियोन्यूट्रिनोज' भी अपने सामने आने वाली हर चीज को बगैर नुकसान पहुंचाए भेदते हुए आरपार निकल जाते हैं, लेकिन ये मानना गलत है कि 'जियोन्यूट्रिनोज' किसी विनाशकारी घटना को जन्म दे सकते हैं। '

सोमवार, 21 जून 2010

टाइटन पर कुछ अजीब घट रहा है!

टाइटन पर कुछ ऐसा अजीब घट रहा है, वैज्ञानिक जिसे करीब से देखने और समझने की कोशिश में जुटे हैं। इसी कोशिश के तहत, रविवार 20 जून को, शनि की कक्षा में मौजूद स्पेसक्राफ्ट कसीनी ने टाइटन के वायुमंडल में से होते हुए एक नजदीक की फ्लाई-बाई पूरी की है। उम्मीद है कि रोमांच से भरे कसीनी के इस फ्लाईबाई से वैज्ञानिकों को उन सवालों के जवाब तलाशने में मदद मिलेगी जो शनि के इस रहस्यमय चंद्रमा से उठ रहे हैं। हाइड्रोकार्बन से भरपूर टाइटन पर हाल ही में ऐसी खोज हुई है जो वहां जारी किसी महत्वपूर्ण रासायनिक प्रक्रिया की ओर इशारा कर रही है। ये रासायनिक प्रक्रिया टाइटन पर मौजूद जिंदगी की किसी शक्ल के रूप में भी हो सकती है।
फ्लाई बाई यानि बेहद तेज रफ्तार के साथ टाइटन के वायुमंडल में एक तरफ से प्रवेशकर काफी गहराई तक गोता लगाने के साथ ही, उसी रफ्तार से दूसरी ओर से बाहर निकल जाने के दौरान स्पेसक्राफ्ट कसीनी के मैग्नेटोमीटर को ये पता लगाना है कि टाइटन का अपना चुंबकीय क्षेत्र है या नहीं? क्योंकि चुंबकीय क्षेत्र की मौजूदगी, टाइटन पर जीवन की संभावना को मजबूत करने के साथ ये भी सुराग देगी कि टाइटन की अंदरूनी बनावट कैसी है?
टाइटन को लेकर वैज्ञानिकों की दिलचस्पी बहुत ज्यादा है, इसकी वजह ये है कि टाइटन के आईने में हमारी धरती के बचपन की झलक मौजूद है। टाइटन वैसा ही है, जैसी कि करोड़ों साल पहले हमारी धरती थी, जहां न तो ऑक्सीजन थी और न ही जीवन। शनि के 61 चंद्रमाओं में सबसे बड़ा चंद्रमा टाइटन मीथेन की विशाल झीलों से पटा हुआ है। और टाइटन की इस अनोखी दुनिया की हवा से हाइड्रोजन और जमीन से एक खास तत्व एसिटलीन की भारी कमी होती जा रही है। वैज्ञानिक यही जानना चाहते हैं कि ऐसा क्यों हो रहा है? क्या इसकी वजह मीथेन में पनपने वाले खास बैक्टीरिया जैसे सूक्ष्मजीव हैं, या फिर वहां के पूरे पारिस्थितिकी तंत्र में किसी रासायनिक अभिक्रिया का चेन रिएक्शन चल रहा है?
टाइटन पर जारी इस रहस्यमय प्रक्रिया की दो वजहें हो सकती हैं। सूरज की अल्ट्रावायलेट किरणें जब तरल मीथेन के अणु को तोड़ती है तो हाइड्रोजन गैस और कार्बन के ठोस परमाणु बनते हैं। हाइड्रोजन गैस टाइटन की हवा में घुलकर इस चंद्रमा के वायुमंडल को बनाती है। एक संभावना ये भी है कि टाइटन की जमीन के आसपास एक उल्टी प्रक्रिया भी चल रही हो, जो हवा की हाइड्रोजन और कार्बन को मिलाकर वापस मीथेन की बूंदों का निर्माण कर रही हो। एक अनोखी संभावना ये भी है कि ये काम और कोई नहीं बल्कि मीथेन में पलने वाला कोई बैक्टीरिया जैसा जीव ही कर रहा हो। कुछ भी हो, दोनों ही सूरतों में जमीन के करीब वाली हवा से हाइड्रोजन की मात्रा कम हो जाएगी। वैज्ञानिक अब यही जानने की कोशिश कर रहे हैं, कि टाइटन पर हकीकत में हो क्या रहा है? टाइटन का तापमान बेहद कम यानि शून्य से 179 डिग्री सेल्सियस नीचे है, ये गजब की ठंड रासायनिक अभिक्रिया वाली संभावना को कम कर देती है, क्योंकि इतने कम तापमान पर या तो कोई रासायनिक अभिक्रिया होगी ही नहीं, या फिर अगर होगी भी तो उसकी रफ्तार बेहद धीमी होगी। अब रह गया सवाल टाइटन पर मौजूद किसी बैक्टीरिया का, तो पलड़ा इस संभावना की ओर ही झुकता नजर आ रहा है, लेकिन वैज्ञानिक टाइटन पर जीवन की संभावना पर गंभीरता से तभी विचार करेंगे, जब रासायनिक अभिक्रिया वाली बात पूरी तरह से खारिज हो जाएगी।

क्या एलियन्स ने धावा बोल दिया ?

मशहूर साइंस फिक्शन उपन्यास वॉर आफ द वर्ल्डस में एच.जी. वेल्स लिखते हैं कि धरती पर गिरने वाली बिजलियों जैसी चमकदार किरणों की मदद से मंगल ग्रह के हमलावर धरती पर आ रहे हैं। ये तस्वीर भी क्या कुछ ऐसी ही नहीं लगती। देखकर लगता है, मानो किसी हॉलीवुड साईफाई फिल्म का कोई स्पेशल एफेक्ट वाला कोई सीन हो।
बादलों को चीरकर एक शहर के बीचोबीच गिरती रोशनी की एक चमकदार किरण। ये नजारा अपने आप में काफी रहस्यमय और रोमांचक सा लगता है। पहली बात तो ये कि ये तस्वीर बनावटी नहीं, बिल्कुल असली है और दूसरी बात ये कि ये किसी फिल्म का सेट या स्पेशल इफेक्ट नहीं है। वाक्या है बार्सिलोना का, जहां रात के वक्त बीच शहर से फूटती रोशनी की इस शानदार बीम का प्रदर्शन किया गया और ये शानदार प्रदर्शन किया है जापान के कलाकार र्योजी इकेडा ने। इस रोमांचक प्रदर्शन के लिए इकेडा ने एक सी रोशनी वाली 64 अलग-अलग किरणों का इस्तेमाल किया। रोशनी की ये किरणें जब बार्सिलोना के आसमान पर छाए बादलों से टकराईं तो वहां एक नकली चंद्रमा सा बन गया और देखने वालों को लगा कि चंद्रमा से रोशनी की किरण शहर पर गिर रही है। कुछ लोगों को ये भी लगा कि शहर के आसमान पर कोई यूएफओ आ गया है और एलियंस इस रोशनी की बीम की मदद से शहर पर उतर रहे हैं।
इकेडा ने अपने इस प्रदर्शन को स्पेक्ट्रा बार्सिलोना का नाम दिया है और वो ऐसा अनोखा प्रदर्शन जापान के नागोया शहर, नीदरलैंड्स और पेरिस में भी कर चुके हैं।

केप्लर से ‘खुशखबरी !’

स्पेस साइंस में दिलचस्पी रखने वाला हर कोई मिशन केप्लर से आने वाली ‘खुशखबरी’ का इंतजार कर रहा है। खुशखबरी ये कि हमें अपने सौरमंडल से बाहर एक दूसरी पृथ्वी का पता कब मिलता है। नासा की ये स्पेस ऑब्जरवेटरी दूसरी धरती को तलाशने में जुटी है। आकाश के एक खास हिस्से में, 1,56,000 सितारों के झुरमुट के बीच काम शुरू करने के महज 43 दिन के भीतर ही केप्लर ने 706 ऐसे सितारों की पहचान कर ली है, जहां कोई दूसरी दुनिया यानि नया ग्रह मौजूद हो सकता है।
अब आगे का काम धरती पर मौजूद ऑब्जरवेटरीज करेंगी, जो केप्लर स्पेस ऑब्जरवेटरी की इस खोज की पुष्टि करेंगी। अब तक हमने औरमंडल के बाहर 400 नए ग्रहों की खोज की है। खास बात ये कि अगर केप्लर की खोज की पुष्टि हो जाती है तो नए ग्रहों के बारे में हमारी जानकारी करीब तीन गुना तक बढ़ जाएगी।

रविवार, 6 जून 2010

क्या बीटलगीज सुपरनोवा धरती को खा जाएगा?


इंटरनेट पर धरती के खत्म हो जाने का एक डर हर दिन दोगुनी तेजी के साथ बढ़ता जा रहा है। कुछ लोग एक दूसरे को ईमेल भेज कर ये आशंका जाहिर कर रहे हैं कि आसमान से कयामत धरती पर बरपा होने वाली है और इस कयामत का नाम है बीटलगीज सुपरनोवा।
नहीं, आसमान के सबसे चमकीले सितारों में से एक बीटलगीज अभी सुपरनोवा नहीं बना है, लेकिन इस प्रक्रिया में जरूर है। आसमान में अकसर आपको तीन चमकीले सितारे एक लाइन में एक-दूसरे से समान दूरी पर चमकते नजर आते होंगे। इन तीन सितारों को ओरियन बेल्ट कहते हैं। इस बेल्ट के पहले सितारे से ठीक ऊपर नजर आने वाला नारंगी रंग का चमकीला सितारा ही बीटलगीज है। बीटलगीज सुपररेडजाइंट है, यानि वो फूलकर विशाल गुब्बारे जैसा हो चुका है और अंतिम सांसे गिन रहा है। इंटरनेट पर चल रही अफवाहों में ये आशंका जताई जा रही है कि कुछ ही महीने बाद एक सुपरनोवा धमाके के साथ बीटलगीज की मौत होने वाली है। कहा जा रहा है कि अगर बीटलगीज में सुपरनोवा धमाका हुआ तो एक ही झटके में धरती का सफाया हो जाएगा। कुछ लोग इसे माया सभ्यता के 2012 वाले मशहूर विनाश के कैलेंडर से भी जोड़कर देख रहे हैं।
क्या वाकई ऐसा हो सकता है? क्या वाकई अगर बीटलगीज सितारा फटता है तो धरती भाप बनकर उड़ जाएगी? जानते हैं, इन आशंकाओं में आखिर सच्चाई कितनी है। ये बात तो सच है कि बीटलगीज बस अपनी मौत के मुहाने पर है और वो एक दिन सुपरनोवा धमाके के साथ खत्म हो जाएगा। लेकिन वो दिन कब आएगा? एस्ट्रोनॉमर फिल प्लाइट बताते हैं कि अव्वल तो आने वाले कई महीनों तक भी बीटलगीज में सुपरनोवा धमाका होने की कोई संभावना नहीं है। दूसरा, अगर मान भी लिया जाए कि ये सुपरनोवा धमाका कल होने वाला है तो भी ये सितारा हमसे करीब 600 प्रकाश वर्ष दूर है, इसलिए आसमान में होने वाले इस महाविस्फोट का धरती पर कोई असर होने की दूर-दूर तक भी कोई संभावना नहीं है।
स्पेस साइंस से जुड़ी तमाम आशंकाओं का जवाब देने के लिए एस्ट्रोनॉमर फिल प्लाइट बैड एस्ट्रोनॉमी नाम से एक वेबसाइट भी चला रहे हैं। प्लाइट बताते हैं कि इंटरनेट पर बीटलगीज सुपरनोवा की अफवाह 'लाइफ आफ्टर ऑयल क्रैश फोरम' पर एक पोस्ट से शुरू हुई। इस पोस्ट में कहा गया था कि बीटलगीज सुपरनोवा बनकर फटने वाला है और इसके जबरदस्त धमाके से धरती की सारी फसलें जल जाएंगी और पूरी मानव जाति का सफाया हो जाएगा। एस्ट्रोनॉमर फिल प्लाइट और दूसरे स्पेस साइंटिस्ट इसे महज अफवाह ही बता रहे हैं। इन वैज्ञानिकों का कहना है कि बीटलगीज में अगले 10,000 साल तक सुपरनोवा विस्फोट होने की कोई संभावना नहीं है और बीटलगीज में सुपरनोवा विस्फोट का दिन और तारीख बताना पूरी तरह से नामुमकिन है। वैज्ञानिकों का कहना है कि बीटलगीज सुपरनोवा धमाके से धरती को खतरा जैसी बातें पूरी तरह से अफवाह हैं और ये उन्हीं शारारती तत्वों की करतूत है जो लॉर्ज हैड्रॉन कोलाइडर में प्रोटॉन बीम की टक्कर के प्रयोग से पहले दुनिया को ब्लैक होल के खतरे से डरा रहे थे। डरने की कोई बात नहीं है, हमारी धरती पूरी तरह से सुरक्षित है।

हां, मंगल और टाइटन पर जीवन संभव है !

टोरोंटो यूनिवर्सिटी के तहत काम करने वाले कनाडा की नेशनल रिसर्च कौंसिल के मैकगिल के नेचुरल रिसोर्सेज विभाग और सर्च फॉर एक्सट्रा टेरेस्ट्रियल इंस्टीट्यूट के शोधकर्ताओं ने बैक्टीरिया की ऐसी प्रजाति खोज निकाली है जो मीथेन को खाकर जिंदा रहती है। शनि के चंद्रमा टाइटन पर जीवन की संभावनाओं के नजरिए से देखें तो ये खोज काफी महत्वपूर्ण है। इसकी वजह ये कि टाइटन हमारे सौरमंडल की ऐसी अनोखी जगह है जहां बादलों से मीथेन बरसता है और जहां की लंबी-चौड़ी झीलें मीथेन से लबालब भरी हैं। लंबे वक्त से ये संभावना जताई जा रही थी कि मीथेन की इन झीलों में बैक्टीरिया की शक्ल में जीवन मौजूद हो सकता है।
धरती पर मीथेन खाने वाले बैक्टीरिया की अनोखी खोज वैज्ञानिकों ने कनाडा के उत्तरी छोर पर मौजूद एक्सेल हीबर्ग द्वीप पर की है। मैक्कगिल यूनिवर्सिटी के माइक्रोबायोलॉजिस्ट डॉ. लाइल व्हाइट बताते हैं कि ये बैक्टीरिया इस द्वीप की बर्फीली जमीन के भीतर मौजूद नमी से भरपूर एक गड्ढ़े में मिले हैं। कभी मंगल ग्रह पर भी जमीन के भीतर ऐसी नम जगहें थीं, इसलिए इस बात की पूरी संभावना है कि तब वहां ऐसे बैक्टीरिया जैसे जीव भी जरूर मौजूद रहे होंगे। ये भी संभव है कि मंगल की जमीन के नीचे नम और मीथेन से भरपूर ऐसी जगहें अब भी मौजूद हों, जहां बैक्टीरिया की शक्ल में जिंदगी पनप रही हो।
उत्तरी कनाडा के द्वीप एक्सेल हीबर्ग की बर्फीली जमीन के भीतर मौजूद इस गड्ढ़े का तापमान शून्य से नीचे है। यहां पानी भी है, लेकिन वो इतना खारा है कि तापमान इतना कम होने पर भी वो जम नहीं पा रहा। इस गड्ढ़े के नम किनारों पर मीथेन के बुलबुले लगातार बन रहे हैं और मीथेन के इन्हीं बुलबुलों पर मीथेन खाने वाले ये खास बैक्टीरिया मजे से जिंदगी गुजार रहे हैं। डॉ. व्हाइट ने कहा हमें सबसे ज्यादा हैरानी इस बात से हुई कि जमीन के भीतर इस बर्फीले माहौल में हमें ऐसा कोई बैक्टीरिया नहीं मिला जो दूसरी चीजें खाकर मीथेन का उत्पादन कर रहा हो। मीथएन बनाने वाले बैक्टीरिया बेहद आम हैं और धरती के कई इलाकों में पाए जाते हैं। लेकिन यहा हमें बिलकुल नए तरह के बैक्टीरिया मिले जो सल्फेट में सांस लेते हैं और मीथेन को खाते हैं।

शुक्रवार, 4 जून 2010

शनि के चंद्रमा टाइटन पर जीवन की खोज!

शनि की परिक्रमा कर रहे हमारे पहले मिशन कसीनी ने इस ग्रह के पृथ्वी से मिलते-जुलते चंद्रमा टाइटन पर जीवन की मौजूदगी की बेहद शसक्त संभावनाएं खोजी हैं। ब्रिटिश साइंस जर्नल न्यू साइंटिस्ट में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार, कसीनी ने टाइटन पर जो खोजा है वैज्ञानिक उसकी रासायनिक वजहें भी तलाश रहे हैं। शनि के 61 चंद्रमाओं में सबसे खास चंद्रमा टाइटन इतना ठंडा है कि पानी वहां तरल रूप में टिक ही नहीं सकता, लेकिन कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि कुछ सख्तजान बैक्टीरिया ऐसे भी हैं जो इस जमी हुई दुनिया की मीथेन या ईथेन से भरी विशाल झीलों में मौजूद हो सकते हैं।
2005 में नासा के एम्स रिसर्च सेंटर के वैज्ञानिक क्रिस मैक्के और फ्रांस की इंटरनेशनल स्पेस यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक हीथर आर.स्मिथ ने पता लगाया था कि अगर वाकई टाइटन की झीलों में ऐसे बैक्टीरिया मौजूद हैं, तो यकीनन उन्हें सांस लेने के लिए हाइड्रोजन गैस की और खाने के लिए ऑर्गेनिक मॉलीक्यूल एसिटलीन की जरूरत पड़ती होगी और इस प्रक्रिया में मीथेन बनता होगा। इन वैज्ञानिकों ने अपनी इस गणना के आधार पर टाइटन पर जीवन का एक मॉडल बनाया था। जिसके मुताबिक टाइटन पर एसिटलीन की कमी होगी और टाइटन के धरातल के आसपास की हवा में हाइड्रोजन की मात्रा भी काफी कम होगी। क्योंकि टाइटन के बैक्टीरिया जैसे जीव इनका इस्तेमाल कर रहे होंगे।
अब कसीनी ने क्रिस और हीथर के इस मॉडल की भविष्यवाणी की पुष्टि कर दी है, जिसका सीधा इशारा ये है कि हो सकता है कि टाइटन पर जिंदगी, बैक्टीरिया के रूप में मौजूद हो।

बृहस्पति ने फिर बचाया !

जुलाई 1994 में धूमकेतु शूमाकर लेवी को खुद में समा लेने और जुलाई 2009 में एक बड़ी उल्का को निगल लेने का बाद इस साल, गर्मियों में बृहस्पति एकबार फिर हमारा रक्षक साबित हुआ है। 3 जून 2010 को भारतीय समय के मुताबिक रात 2 बजकर 01 मिनट
पर बृहस्पित से फिर किसी विशाल उल्का या धूमकेतु की टक्कर हुई है। खास बात ये कि बृहस्पति पर हुई इस टक्कर के वक्त ऑस्ट्रेलिया और फिलीपींन्स के गैरपेशेवर एस्ट्रोनॉमर्स एंथोनी वेस्ली और क्रिस्टोफर गो अपने-अपने मुल्कों से टेलिस्कोप से बृहस्पति को देख रहे थे और इन दोनों ने ही दुनिया को इस बृहस्पति पर हुई इस ताजा हलचल की जानकारी दी। फिलीपीन्स के क्रिस्टोफर गो तो उस वक्त टेलिस्कोप से बृहस्पति की फिल्म भी बना रहे थे, इसलिए संयोग से उन्होंने बृहस्पति पर हुई इस टक्कर की फिल्म भी बना डाली।
ऑस्ट्रेलिया के एंथोनी वेस्ली ने अपनी वेब साइट पर लिखा है कि मैं बृहस्पति का ऑब्जरवेशन कर रहा था कि तभी एक विशाल आग का गोला बृहस्पति से जा टकराया। खास बात ये कि 2009 में बृहस्पति से हुई विशाल उल्का की टक्कर भी सबसे पहले वेस्ली ने ही देखी थी और उसकी तस्वीरें भी लेने में सफल रहे थे। तब करीब 500 मीटर की एक विशाल उल्का बृहस्पति से जा टकराई थी, जिससे बृहस्पति के दक्षिणी हिस्से पर हमारे प्रशांत महासागर जितना बड़ा दाग पड़ गया था।

बिना खिड़की का घर, सीलबंद दरवाजा और 520 दिन

आपसे अगर कहा जाए कि घर के किसी एक कमरे में आपको रोजमर्रा की जरूरत की सारी चीजें दी जाएंगी, लेकिन शर्त यकी कि आपके खिड़की-दरवाजे सीलबंद कर दिए जाएंगे, तो ऐसे जेलनुमा घर में आप कितने दिन तक रह सकते हैं? शायद एक हफ्ते, या फिर ज्यादा से ज्यादा एक महीना...लेकिन अगर इसके बाद भी आपको वहीं रहना पड़े तो....?
पहले मंगलयात्रियों को लेकर रूस और यूरोपियन स्पेस एजेंसी के एक मिलेजुले प्रयोग 'मार्स 500' के तहत छह लोगों को डिब्बेनुमा एक ऐसे घर में बंद कर दिया गया है, जिसमें एक भी खिड़की नहीं है। इन छह प्रायोगिक मंगलयात्रियों में तीन रूसी, दो यूरोपियन और एक चीन का है। इन्हें मार्स 500 स्टेशन में भेजकर स्टेशन का अकेला दरवाजा सीलबंद कर दिया गया है। इस प्रयोग का मकसद ये पता लगाना है कि मंगल जाने वाले भविष्य के किसी स्पेसशिप पर सवार मंगलयात्रियों के दिलोदिमाग पर करीब छह महीने लंबा ये सफर कैसा असर डालेगा? घर-परिवार-धरती से दूर चार-पांच लोगों की टीम स्पेसशिप के सीलबंद माहौल में आपस में कैसा बर्ताव करेगी? और ये अकेलापन और उबाऊ माहौल मंगलयात्रियों की मनोदशा और उनकी सेहत पर कितना असर डालेगा? मार्स 500 प्रयोग के तहत ये सभी छह लोग बिल्कुल उसी तरह रोजमर्रा का कामकाज करेंगे मानो वो मंगल के लंबे सफर पर हों।
इस प्रयोग में जान-बूझकर किसी भी महिला को शामिल नहीं किया गया है, क्योंकि डर इस बात का है कि टीम में किसी महिला के होने से टीम गुटों में बंट सकती है, आपस में मतभेद उत्पन्न हो सकते हैं और यौन संबंध भी बन सकते हैं। ये सारी बातें मार्स 500 के प्रयोग को मकसद से भटका सकती हैं। बहरहाल महिलाओं ने मार्स 500 के आयोजकों पर लिंग के आधार भेदभाव का आरोप लगाया है।