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शुक्रवार, 25 मार्च 2011

‘उम्मीद कभी खत्म नहीं हो सकती’


 ऐसे समाज में जहां ज्यादा घबराहट और उथल-पुथल होती है, ज्योतिषियों की जरूरत भी वहीं सबसे ज्यादा होती है प्रो. यशपाल 
जमाना कभी किसी एक चीज का नहीं होता। विज्ञान बड़ा है, तो टेक्नोलॉजी और भी बड़ी, अब तो टेक्नोलॉजी के बगैर जिंदगी सोची भी नहीं जा सकती। लेकिन अब लोगों ने टेक्नोलॉजी को ही साइंस मान लिया है। साइंस ज्ञान है, उत्सुकता है, हमेशा कुछ नया तलाशने की बेचैनी है, जागरूकता है, जबकि टेक्नोलॉजी साइंस का प्रायोगिक रूप। बीते 200 साल में साइंस ने समाज पर असर तो डाला, लेकिन लोगों ने साइंस का मतलब नई-नई मशीनों और नई-नई सुविधाओं को ही समझा। इसलिए समाज भी यांत्रिक होता गया, जिसमें ज्ञान की गहराई, प्रकृति के नियमों को समझने और जागरूक होने की जरूरत खत्म होती चली गई। लोगों को हम साइंस का सही अर्थ नहीं समझा सके। शुरुआत में इंसान ने आसमान को देखा तो सैकड़ों-हजारों तारे छिटके नजर आए। फिर उसने देखा कि कुछ तारे हिलते हैं-चलते हैं, वो अपनी जगह पर नहीं रहते और कुछ वक्त बाद वो फिर से वापस आ जाते हैं। इस तरह ग्रहों की खोज हुई, ये विज्ञान का शुरुआती रूप था। ग्रह केवल खोजे ही नहीं गए बल्कि हमारे पूर्वजों ने सही-सही ये भी बता दिया कि कितने ग्रह हैं  और उनकी स्थिति क्या है ? लेकिन बाद में इसे ज्योतिष से जोड़ दिया गया।
विज्ञान और हम दो चीजें हैं। चीजों को समझने की हममें कितनी क्षमता है, इसका भी फर्क पड़ता है। मुझे तो हैरानी होती है कि हमने इतने सारे सवाल पूछे और कुछ के जवाब मिलने भी लगे। क्या कमाल की जिंदगी हमें मिली है, आंखें हैं जिनसे देख सकते हैं, दिमाग है जिससे सोच-समझ सकते हैं। हर वक्त कुछ नया जानने की उत्सुकता और प्रकृति के रहस्यों को समझने की शक्ति जो हमें मिली है, इससे बड़ी चीज और कुछ हो ही नहीं सकती। बच्चे भी उत्सुकता के चलते ही सीखते हैं, उत्सुकता न हो तो वो चलना भी न सीख पाएं, और अगर ये उत्लुकता ही मर जाए-खत्म कर दी जाए तो मानव जाति का इससे बड़ा नुकसान कोई दूसरा नहीं हो सकता। मुझे दुख होता है कि हम और हमारे स्कूल बच्चों को इस तरह से पढ़ाते हैं कि उनकी उत्सुकता को मारते जाते हैं। ये बहुत अफसोसनाक है। समझने की कोई सीमा नहीं, ये कहना कि हमने सबकुछ जान लिया है और हम जैसा कह रहे हैं वैसा ही करो, ये बिल्कुल नहीं होना चाहिए। नए सवालों की खोज बेहद जरूरी है, अगर खुदा या ईश्वर है तो फिर उसके दिमाग में क्या था ? खुदा या ईश्वर इस तरह से क्यों बना ? किसी दूसरी तरह से क्यों नहीं ? क्या कोई दूसरा भी है, जिसे हम देख नहीं पाते ?
हमारी जो समझने की सीमा है, वो बड़े कमाल की है। हम कितने लंबे हैं, शायद डेढ़ या दो मीटर, अब इसे दस-दस बार गुणा करते जाएं तो ब्रह्मांड तक जा पहुंचेंगे और अगर दस-दस बार के गुणन में हम पीछे जाएं तो अणु के स्तर तक जा पहुंचेंगे। ब्रह्मांड और अणु, हम इनके बीच में फंसे हैं। हम अभी जानते ही कितना हैं ? ऐसे में ये दावा कि हम भविष्यवाणी कर सकते हैं काफी हास्यास्पद है। भविष्य का हाल बताने वाले हम होते कौन हैं ? ये मान लेना कि चीजें वहीं तक सीमित हैं, जो हम समझ पाए हैं, ये तो ज्यादती है।
सत्य किताबों में पढ़ लेना और सत्य की खोज करना दो अलग-अलग चीजें हैं। अगर आप जनरल तरीके से डिस्क्राइब करें तो कुछ भी कह सकते हैं। प्राचीन ज्ञानियों में एक अनोखी ताकत थी, वो बेहद सीमित तथ्यों की मदद से अंदाजा लगा लेते थे। अंदाजा लगाना बड़े काम की चीज है। विज्ञान केवल उपकरणों का मापन और गणना भर नहीं है। परिकल्पना और अंदाजा लगाना भी विज्ञान है। अगर आपमें उत्सुकता न हो, कल्पना न हो तो आप प्रकृति के कई रहस्यों को समझने से महरूम रह जाते हैं। सत्य की तलाश में जितना आनंद है, इसमें जितनी कविता है, इसमें एक किस्म की जो गहरी लगन है, उतनी किसी और चीज में नहीं।
किसी से पूछा गया कि विज्ञान क्या है ? तो जवाब मिला - जो वैज्ञानिक करते हैं। क्यों ? कैसे ? क्या ? इन सवालों की खोज, और यही क्यों, कुछ और क्यों नहीं ? इसकी खोज ने मानव जाति को गुफाओं से निकालकर आज यहां तक पहुंचाया है। विज्ञान एक शिल्प है और वैज्ञानिक शिल्पकार।
विज्ञान एक प्रकृति का दर्शन यानि नेचुरल फिलॉसफी है। विज्ञान में कोई सिद्धांत जिसे गलत न साबित किया जा सके उसे सिद्धांत ही नहीं माना जाता। गैलीलियो एक बच्चे की तरह था, उस वक्त जो बातें बताई जा रहीं थीं, उन्होंने उसे नहीं माना। उसने कहा आओ करके देखें तो सही, क्या नतीजा निकलता है। इसी बच्चों जैसी उत्सुकता से ही गैलीलियो और न्यूटन बनते हैं।
मां अपने बच्चे को प्यार करती है, ये बड़ी सुंदर चीज है। किसी ने मां से कहा नहीं कि बच्चे को प्यार करो, लेकिन जिंदगी खुद को बचाना चाहती है, खुद को प्रसारित करना चाहती है। 50-60 हजार साल पहले कुछ ऐसा हुआ कि पूरी दुनिया में बस मुश्किल से हजार लोग बचे। ये हजार लोग इधर-उधर बिखर गए और दुनिया के अलग-अलग इलाकों में जाकर आबाद हुए। इससे अलग-अलग समाजों, भाषाओं और संस्कृतियों का विकास हुआ, सामाजिक नियम बने। फिर वो सभ्यताएं मिलीं, भले ही इसकी वजह जंग रही हो लेकिन उनमें संपर्क हुआ। इससे हमने कला, संस्कृति, संगीत और परंपराएं सींखीं। हमारे विकास की सबसे मजेदार बात ये कि हमने हंसना सीखा।
पहले हम खुद को ही सबकुछ समझते थे और नहीं समझ पाते थे कि ये अलग-अलग समाज क्यों हैं ? लेकिन अब हम समझ चुके हैं कि मानव जाति का विकास इसी तरह से होना था।  लेकिन फिरभी, आजकल एक तरह का तनाव है। दुनियाभर में फैली विभिन्नताओं और संस्कृतियों को बचाने और संरक्षित रखने के बजाए हम उन्हें अपना दुश्मन समझने लगे हैं। हम दूसरों के दुश्मन और हमलावर क्यों मानते हैं ? हम शिक्षा और ज्ञान की बात करते हैं, लेकिन सबसे बड़ी बात ये होनी चाहिए कि हम दुनियाभर की सांस्कृतिक विभिन्नताओं का आनंद लें। सांस्कृतिक अलगाव जातिभेद, वर्गभेद, पंथभेद, रंगभेद और इस जैसी दूसरी चीजों को जन्म देता है जो मानव के खिलाफ जाती हैं। विज्ञान हमें बताता है कि हमारी विरासत क्या है ? हम कहां से आए हैं ? विज्ञान की इस देन को हम अब तक लोगों को समझा ही नहीं सके।
धर्म को लेकर अब काफी झगड़ा किया जा रहा है। धर्म से जुड़े सवालों पर मैं वैज्ञानिक दृष्टिकोण से ये कहूंगा कि आप किन चीजों को धर्म कहते हैं ? क्या तमाम कर्मकांडों को ? तो फिर मैं बौद्ध और जैन धर्म का नाम लूंगा, जहां भगवान की अवधारणा ही नहीं है। सदाचार और नैतिकता के कुछ नियमों को मिलाकर धर्म की बुनियाद तैयार की गई, इनमें अध्यात्म भी शामिल था। प्राचीनकाल में धार्मिक दार्शनिकों ने बहुत गहरे-गहरे सवाल पूछे, इनमें से कुछ सवाल अब वैज्ञानिक भी पूछते हैं। इन सवालों का जवाब तलाशने की कोशिश शुरू हुई और धर्म अपने रास्ते पर आगे बढ़ा। फंडामेंटल का मतलब है कि कुछ है और उसे बदला नहीं जा सकता, तो इससे मुश्किलें आती हैं। दुनिया बदल रही है, सब चीजें बदल रही हैं, जो चीज कभी न बदले, मेरे विचार से वो खतरे में है। कोशिश हो रही है कि चीजें बिल्कुल न बदलें, इससे बड़ी घबराहट और मुश्किलें आ रही हैं। धर्म वो भी है, जैसा कहा जाता है अहम् ब्रह्मास्मि, कि खुदा या ईश्वर को मैंने बनाया। इसे वैज्ञानिक ढंग से भी कहा जा सकता है कि खुदा या ईश्वर की जरूरत थी इसलिए बनाया। 
शुरुआत में बहुत सी चीजें समझ में नहीं आतीं थीं। ये समझ में नहीं आता था कि वो अमीर क्यों है और मैं गरीब क्यों ? तो फिर पिछले जन्म और कर्म का हिसाब सामने आया। विज्ञान ने कई सवालों के जवाब दिए, लेकिन जिनके जवाब नहीं मिले वो काम धर्म की चादर ओढ़कर पूरा हो गया। अब इसे लेकर झगड़े की जरूरत नहीं, बहुत से धार्मिक लोग बहुत उम्दा इंसान होते हैं। उनका खुद पर पूरा मियंत्रण रहता है वो बहुत नैतिक भी होते हैं। धर्म भी इंसान की विरासत है और विज्ञान भी हमारी विरासत है।
ये कहना कि किताब में लिखा है इसलिए यही सही है और कुछ दूसरा सत्य हो ही नहीं सकता ये गलत है। ये कहना कि यही मानो, यही सही है , ऐसा ही होना चाहिए, ये सही नहीं है। विज्ञान इस तरह से काम नहीं करता। ऐसे समाज में जहां ज्यादा घबराहट और उथल-पुथल होती है, ज्योतिषियों की जरूरत भी वहीं सबसे ज्यादा होती है।
उम्मीद कभी खत्म नहीं हो सकती। बहुत संभव था कि 65-70 में परमाणु युद्ध छिड़ जाता, लेकिन अब तक ऐसा नहीं हुआ। तो कुछ तो फर्क पड़ा है, शायद ऐसा कभी न हो। शायद और परमाणु परीक्षण भी न हों। एक से बढ़कर एक पागल बैठे हुए हैं, नाभिकीय हथियार इकट्ठा किए जा रहे हैं। कभी-कभी खुद पर हंसी भी आती है। हमारे देश में भी बातें होती हैं कि बम बनाने का हक खत्म हो जाएगा तो हम भी खत्म हो जाएंगे। तो मैं सोंचता हूं कि ये हक खत्म ही हो जाए, हमारा भी और साथ वाले का भी। ये कहना कि वो हमें तीन बार मार सकते हैं और हम केवल दो बार ही उन्हें मार सकते हैं, इसलिए हमें और बम बनाना चाहिए, ये बेवकूफाना है, ये पागलपन है।
जिंदगी को संभालने और उसे विकास के नए रास्तों पर आगे बढ़ाने का नाम ही विज्ञान है। समाज, रिश्तों और जीवन पद्धति के ज्ञान को विज्ञान में पिरो दीजिए, फिर देखिए दुनिया ही बदल जाएगी।
( प्रोफेसर यशपाल से हुई एक लंबी बातचीत पर आधारित)

प्रस्तुति : संदीप निगम

बुधवार, 16 मार्च 2011

न्यूक्लियर इमरजेंसी और जापान के रिएक्टर हादसे


जबरदस्त भूकंप और सुनामी के कहर के बाद जापान अब रेडिएशन की खतरनाक मुसीबत का सामना कर रहा है। जिसकी शुरुआत हुई 12 मार्च को जब फुकुशिमा न्यूक्लियर पावर प्लांट का रिएक्टर नंबर-1 जोरदार धमाके के साथ फट गया...धमाका इतना जोरदार था कि रिएक्टर इमारत की छत ही उड़ गई। इसके बाद रिएक्टर नंबर-3 और रिएक्टर नंबर-2 भी धमाके से उड़ गए और इन सभी रिएक्टर्स से भाप के साथ धूल का एक बड़ा गुबार फूटता देखा गया। जापान में 55 रिएक्टर्स काम कर रहे हैं, जो इस देश की कुल ऊर्जा जरूरत के 15 फीसदी हिस्से की आपूर्ति करते हैं। सबसे बड़ी बात तो ये कि जापान ने अपने रिएक्टर्स की डिजाइन में इस बात का पूरा ख्याल रखा था कि ये भूकंप के बड़े झटके भी झेल सकें। लेकिन इसके बावजूद  हिरोशिमा और नागासाकी पर एटम बम गिराए जाने के 66 साल बाद अब जापान एक बार फिर रेडिएशन के भारी खतरे का सामना कर रहा है। हालात की गंभीरता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है है फ्रांस और अमेरिका ने फुकुशिमा न्यूक्लियर पावर प्लांट से 50 किलोमीटर के दायरे में रहने वाले अपने नागिरकों को तुरंत वहां से हट जाने को कहा है। जापान से आनेवाली हवाएं रूस और चीन के तटीय इलाकों में रेडिएशन की दहशत फैला रही हैं। इन सभी देशों के साथ भारत ने भी जापान से अपने देश के लोगों को हटाने का काम शुरू कर दिया है। जापान में हालात इतने गंभीर हैं कि सम्राट आकिहितो ने नेशनल टेलीविजन पर आकर मुसीबत की इस घड़ी में संवेदना जताई है। जापान के लिए ये एक दुर्लभ और स्थिति की गंभीरता को जाहिर करने वाला क्षण था। क्योंकि जापान में सम्राट देश को तभी संबोधित करते हैं जब हालात बहुत ज्यादा संवेदनशील हो चुके होते हैं। उदाहरण के तौर पर सम्राट हीरोहितो ने 15 अगस्त 1945 को रेडियो पर देश को संबोधित करके मित्र राष्ट्रों की सेना के सामने जापान के बिना शर्त समर्पण की घोषणा की थी। इससे छह दिन पहले अमेरिका हिरोशिमा-नागासाकी पर एटम बम गिरा चुका था।
आइए जानते हैं कि टेक्नोलॉजी के मामले में दुनिया के सबसे विकसित देश जापान में हलात हाथ से कैसे निकल गए ? आइए जानते हैं कि आखिर इन रिएक्टर्स में धमाके क्यों हुए? गड़बड़ी की शुरुआत कैसे हुई ?
जापान के फुकुशिमा न्यूक्लियर पावर प्लॉंट कैंपस में छह रिएक्टर्स काम कर रहे हैं और सभी बॉयलिंग वॉटर टेक्नोलॉजी पर आधारित हैं। ये बात अलग है कि सभी रिएक्टर्स की फ्यूल एसेंबली में अलग-अलग रेडियोएक्टिव पदार्थों का इस्तेमाल किया जा रहा है। जैसे रिएक्टर नंबर एक की फ्यूल एसेंबली में यूरेनियम की छड़ें इस्तेमाल हो रही थीं, जबकि रिएक्टर नंबर तीन में प्लूटोनियम ऑक्साइड और यूरेनियम ऑक्साइड की छड़ें। रिएक्टर नंबर एक की अंदरूनी डिजाइन के उदाहरण के साथ मैं इनकी कार्यप्रणाली के साथ इनमें आई गड़बड़ी को समझाने की कोशिश करूंगा।     
रिएक्टर में सबसे संवेदनशील जगह वो होती है जहां रेडियोएक्टिव पदार्थ में चेन रिएक्शन करवाया जाता है और ये सबसे अहम काम होता है रिएक्टर के कोर में।  
 फुकुशिमा रिएक्टर नंबर एक का कोर स्टील की 8 इंच मोटी चादर से बना एक कंटेनर जैसा है, जो पानी से लबालब भरा रहता है। यूरेनियम की 12 फुट लंबी और आधे इंच मोटी छड़ों के बंडल्स यानि फ्यूल एसेंबली पूरी तरह इसमें डुबोई रखी जाती है। चेन रिएक्शन के दौरान यूरेनियम की छड़ें गर्मी पैदा करती हैं और पानी भाप में बदलता है। भाप को दूसरे पाइप्स से निकालकर टरबाइन चलाई जाती है जिससे जनरेटर बिजली बनाता है।

मेल्टडाउन 
लेकिन रिएक्टर कोर में यूरेनियम की फ्यूल एसेंबली में चेन रिएक्शन के दौरान पानी अहम भूमिका निभाता है और ये यूरेनियम की छड़ों का तापमान 270 डिग्री सेंटीग्रेड से आगे बढ़ने नहीं देता। अगर ये कूलिंग फेल हो जाए तो यूरेनियम छड़ों का तापमान 1200 डिग्री सेंटीग्रेड तक बढ़ सकता है। ये तापमान इतना ज्यादा है कि यूरेनियम की छड़ों को पिघला सकता है, इसीको मेल्टडाउन कहते हैं। ये बेहद खतरनाक स्थिति है। क्योंकि पिघलने के साथ यूरेनियम का वाष्पीकरण भी होने लगता है और इस रेडियोएक्टिव पदार्थ के घातक अणु हवा में घुलने लगते हैं।
इस खतरनाक स्थिति से बचने के लिए दुनिया के सभी न्यूक्लियर रिएक्टर्स में तीन स्तरों वाली सुरक्षा अपनाई जाती है। जापान के रिएक्टर्स में भी सुरक्षा के यही तरीके अपनाए गए थे।

सुरक्षा का पहला स्तर – कंट्रोल रॉड्स 
जिस वक्त भूकंप आया फुकुशिमा पावर प्लांट के रिएक्टर काम कर रहे थे। भूकंप के जबरदस्त झटकों  से रिएक्टर नंबर -1  को गंभीर नुकसान पहुंचा और रिएक्टर कोर में मेल्टडाउन का स्थिति को बचाने के लिए पहले स्तर की सुरक्षा के तौर पर कंट्रोल रॉड्स का इस्तेमाल किया गया। आइए जानते हैं कि कंट्रोल रॉड्स किसे कहते हैं। रिएक्टर को जरूरत से ज्यादा गर्म होने से रोकने के लिए ऐसे खास पदार्थों का इस्तेमाल किया जाता है जो यूरेनियम में चेन रिएक्शन आगे बढ़ाने वाले न्यूट्रॉन्स को सोख लेते हैं जैसे बोरॉन। इन पदार्थों की छड़ें बनाई जाती हैं, जिसे कंट्रोल रॉड्स कहते हैं। चेन रिएक्शन बंद करने और यूरेनियम छड़ों को ठंडा करने के लिए इन कंट्रोल रॉड्स को यूरेनियम छड़ों के बीच फ्यूल एसेंबली के भीतर कुछ इस तरह डाल दिया जाता है। कंट्रोल रॉड्स के डालने पर चेन रिएक्शन की रफ्तार धीमी होने लगती है और रिएक्टर बंद होने लगता है।

सुरक्षा का दूसरा स्तर – कूलेंट 
कंट्रोल रॉड्स के इस्तेमाल से रिएक्टर नंबर-1 बंद तो हो गया लेकिन यूरेनियम की छड़ें अब भी बहुत ज्यादा गर्म थीं। ठंडा करने के लिए इन्हें पानी में डुबाए रखना जरूरी था, लेकिन भूकंप की वजह से ऐसा नहीं हो सका। रिएक्टर नंबर-1 की सुरक्षा का दूसरा स्तर भी फेल हो गया। आपात स्थिति सामने आ गई। इंजीनियरों ने डीजल मोटर चला कर दहकती हुई यूरेनियम रॉड्स पर कूलेंट का स्प्रे करना शुरू कर दिया। लेकिन ये आपातकालीन कोशिश भी एक घंटे से ज्यादा आगे नहीं बढ़ पाई। अचानक बिना किसी चेतावनी के डीजल मोटर ने काम करना बंद कर दिया और दहकती यूरेनियम की छड़ों पर किया जा रहा कूलेंट का स्प्रे भी बंद हो गया। रिएक्टर नंबर-1 को बचाने की आपात कालीन व्यवस्था भी फेल हो गई। 
सुनामी से हालात बदतर - रिएक्टर नंबर-1 गंभीर आपात स्थिति से जूझ रहा था कि तभी सुनामी की 10 मीटर ऊंची जबरदस्त लहरें जापान के तटों से आ टकराईं। सुनामी की जोरदार टक्कर से फुकुशिमा रिएक्टर नंबर-1 में रही-सही कसर भी पूरी कर दी।

सुरक्षा का तीसरा स्तर – भाप को पानी में बदलकर कोर में भेजना 
सुरक्षा के दोनों स्तरों की धज्जियां उड़ चुकी थीं। रिएक्टर नंबर-1 में मौजूद लोगों के चेहरों पर हवाइयां उड़ने लगीं। फुकुशिमा रिएक्टर नंबर एक आपात स्थिति का सामना कर रहा था और रिएक्टर में यूरेनियम की छड़ों को पिघलने यानि मेल्ट डाउन की गंभीर स्थिति टालने के लिए वैज्ञानिक और इंजीनियर जी-तोड़ कोशिशों में जुट गए। अब सुरक्षा के तीसरे स्तर को आजमाया गया। इसके तहत पाइपों में दौड़ रही भाप को ठंडा कर वापस रिएक्टर कोर में भेजने का काम शुरू किया गया। इससे यूरियम की छड़ें कुछ ठंडी तो हुईं, लेकिन कोर के भीतर भाप बनने की प्रक्रिया भी तेज हो गई और पानी का स्तर और नीचे गिर गया। कोर के भीतर तापमान एकबार फिर बढ़ने लगा। सुरक्षा के तीनों उपाय एक के बाद एक बेकार हो गए। जापान इनर्जी कमीशन के प्रो. आकिडो ओमोटो फुकुशिमा रिएक्टर की डिजाइन बनाने के काम में शामिल रहे हैं। उन्होंने बताया, रिएक्टर नंबर-1 के कोर से पानी किसी तरह लीक कर गया। मेरे विचार से हमने सुनामी जैसी आपदा से सुरक्षा के सभी संभव उपाय किए थे...लेकिन जो कुछ हुआ वो अचानक और असंभावित सा था।

बचाव का अंतिम रास्ता – बोरॉन और समुद्र का पानी 
जब सुरक्षा के सारे उपाय फेल हो गए तब वैज्ञानिकों और इंजीनियरों ने रिएक्टर नंबर-1 को फटने से रोकने के लिए बोरॉन मिला समुद्र का पानी रिएक्टर कोर में पंप करना शुरू कर दिया। इंजीनियर बखूबी जानते थे कि समंदर का पानी रिएक्टर को हमेशा के लिए बर्बाद कर देगा और इसे दोबारा कभी इस्तेमाल नहीं किया जा सकेगा। लेकिन रिएक्टर कोर को फटने और रेडिएशन को वातावरण में लीक होने से रेकने के लिए अब और कोई रास्ता नहीं बचा था। इस बीच वैज्ञानिकों और इंजीनियरों की एक टीम ने रिएक्टर कोर से फ्यूल एसेंबली कंटेनर को निकालने की कोशिश भी की। लेकिन तभी भीतर दबाव इस कदर बढ़ गया कि जोरदार धमाका हो गया। फुकुशिमा के रिएक्टर नंबर तीन और अब नंबर दो में भी इन्हीं हालात में जोरदार धमाके हुए हैं।
एक बार फिर ...कुदरत ने बचाव के लिए की जी रही सर्वोच्च इंसानी कोशिशों पर पानी फेर दिया।

मंगलवार, 15 मार्च 2011

जानिए, कैसे बनती है न्यूक्लियर रिएक्टर में बिजली


11 मार्च को 9 की तीव्रता वाले भूकंप और फिर सुनामी की तबाही झेलने के बाद जापान अब न्यूक्लियर इमरजेंसी का सामना कर रहा है। 11 मार्च से 15 मार्च यानि केवल चार दिनों में जापान के तीन रिएक्टर्स भारी धमाके के साथ फट चुके हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान हिरोशिमा पर एटम बम गिराए जाने के 66 साल बाद जापान के लोग एक बार फिर रेडिएशन के खतरे से सहमे नजर आ रहे हैं। इस मौके पर वॉयेजर जापान की आपबीती और नाभिकीय पावर प्लांट टेक्नोलॉजी पर जानकारियों की एक श्रृंखला पेश कर रहा है। इस सिलसिले में आप टोक्यो से डॉ. राबर्ट गेलर के अनुभव पहले ही पढ़ चुके हैं, अब पेश है न्यूक्लियर रिएक्टर से जुड़ी एक आधारभूत जानकारी -  
न्यूक्लियर रिएक्टर
न्यूक्लियर रिएक्टर वो मशीन है जिसमें नियंत्रित चेन रिएक्शन करवाकर गर्मी पैदा की जाती है। जिसका इस्तेमाल बिजली को बनाने में किया जाता है। मौजूदा वक्त में दुनियाभर में सेकेंड जेनेरेशन के न्यूक्लियर रिएक्टर्स का इस्तेमाल किया जा रहा है। जापान में 11 मार्च को 9 की तीव्रता वाले जबरदस्त भूकंप और सुनामी के बाद दुर्घटना का शिकार हुए फुकुशिमा पावर हाउस के रिएक्टर्स भी सेकेंड जेनेरेशन के ही हैं। परंपरागत पावर हाउस में फॉसिल फ्यूल यानि कोयले, तेल या फिर गैस का इस्तेमाल पानी को खौलाने और भाप बनाने में किया जाता है, जबकि न्यूक्लियर रिएक्टर में यूरेनियम जैसे रेडियोएक्टिव पदार्थ के अणुओं को तोड़कर एक नियंत्रित चेन रिएक्शन शुरू करवाया जाता है, जिससे बहुत ज्यादा गर्मी पैदा होती है। ये चेन रिएक्शन रिएक्टर के भीतर करवाया जाता है, जहां सुरक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाती है। आइए समझते हैं कि न्यूक्लियर रिएक्टर्स काम कैसे करते हैं। 
कैसे काम करते हैं रिएक्टर 
रिएक्टर में सबसे पहले संशोधित यूरेनियम की 12 फुट लंबी और आधे इंच मोटी छड़ों के बंडल बनाए जाते हैं, जिसे फ्यूल एसेंबली कहते हैं। इस फ्यूल एसेंबली को पानी से भरे 8 इंच मोटी स्टील की चादर से बने कंटेनर में डुबा दिया जाता है। इसी को रिएक्टर का कोर कहते हैं। इस वक्त हम नाभिकीय ऊर्जा से बिजली बनाने के लिए मुख्य रूप से दो रिएक्टर टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल कर रहे हैं - बॉयलिंग वाटर रिएक्टर और प्रेशराइज्ड वॉटर रिएक्टर।
बॉयलिंग वाटर रिएक्टर
सबसे पहले देखते हैं कि बॉयलिंग वाटर रिएक्टर में बिजली कैसे बनती है। बॉयलिंग वाटर रिएक्टर में चेन रिएक्शन यानि अणुओं के टूटने से पैदा हुई गर्मी से पानी को खौलाया जाता है। जिससे पैदा हुई भाप से टरबाइन चलती है और जेनेरेटर में बिजली बनती है। लेकिन वो भाप बेकार नहीं जाती, उसे ठंडाकर फिर से पानी में बदलकर वापस रिएक्टर के कोर में भेज दिया जाता है।
प्रेशराइज्ड वाटर रिएक्टर
 अब जायजा लेते हैं प्रेशराइज्ड वाटर रिएक्टर का। जापान के फुकुशिमा न्यूक्लियर रिएक्टर्स भी प्रेशराइज्ड वाटर टेक्नोलॉजी पर ही आधारित हैं। इसमें बिजली बनाने का तरीका थोड़ा सा अलग है। इसमें सबसे पहले रिएक्टर के कोर में मौजूद प्रेशराइज्ड टैंक में चेन रिएक्शन से गर्मी पैदा की जाती है। लेकिन पानी को खौलने नहीं दिया जाता, भले ही पानी का तापमान कितना भी ऊंचा क्यों न चला जाए। इस दहकते हुए पानी को हजारों छोटी पाइप्स से गुजारा जाता है, जहां पानी को भाप में बदल जाने की इजाजत मिलती है। नतीजे में हमें बेहद दबावयुक्त भाप की तेज धारा मिलती है। इस प्रेशराइज्ड भाप की ताकत से टरबाइन चलती है और जनेरेटर बिजली बनाने लगता है। टरबाइन से निकलने वाली भाप एक कंडेसर में ठंडी की जाती है, जिससे पानी बनता है, जिसे फिर से रिएक्टर कोर में फिर से गर्माकर भाप बनाई जाती है और ये प्रकिया चलती रहती है। 
रिएक्टर पर नियंत्रण 
रिएक्टर को जरूरत से ज्यादा गर्म होने से रोकने के लिए चांदी, इंडियम, कैडमियम, बोरॉन, कोबॉल्ट और ऐसे ही कई दूसरे पदार्थों की कंट्रोल रॉड्स बनाई जाती हैं, जो फ्यूल एसेंबली बंडल के यूरेनियम रॉड्स में चेन रिएक्शन को आगे बढ़ाने वाले न्यूट्रॉन्स को सोख लेते हैं। इसके साथ ही कंट्रोल रॉड्स रिएक्टर से छिटकने वाले दूसरे रेडियोएक्टिव अणुओं को भी खुद में समेट लेते हैं। इन कंट्रोल रॉड्स को यूरेनियम की छड़ों के साथ फ्यूल बंडल्स में डाला जाता है। जब ऑपरेटर रिएक्टर में ज्यादा गर्मी पैदा करना चाहता है, तो वो इन कूलेंट रॉड्स को बाहर खींच लेता है और जब रिएक्टर को ठंडा करने की जरूरत होती है, तब इन कंट्रोल रॉड्स को फिर से भीतर डाल दिया जाता है। इन कंट्रोल रॉड्स की मदद से रिएक्टर को बंद भी किया जाता है। 
कूलेंट और मॉडरेटर 
बिजली बनाने के दौरान रिएक्टर को थोड़े-थोड़े वक्त पर ठंडा करना जरूरी होता है। इसके लिए खास कूलेंड और मॉडरेटर्स का इस्तेमाल किया जाता है। आमतौर पर हैवी वाटर का इस्तेमाल कूलेंट के तौर पर किया जाता है जबकि सामान्य पानी और खास पिघले नमक का इस्तेमाल मॉडरेटर के तौर पर किया जाता है। ये कूलेंट और मॉडरेटर रिएक्टर कोर को चारो ओर से घेरे छोटी-छोटी पाइप्स में दौड़ते रहते हैं। जापान में आए भूकंप से फुकुशिमा रिएक्टर के कूलेंट पाइप टूट गए थे,जिससे रिएक्टर का कोर ठंडा नहीं हो सका। 
न्यूक्लियर इमरजेंसी 
हादसे की स्थिति में सारा ध्यान इस बात पर होता है कि रिएक्टर कोर को जल्दी से जल्दी ठंडा किया जाए और भीतर पैदा हो रहे दबाव और गर्मी को रिएक्टर से बाहर निकाला जाए। लेकिन इस दौरान ध्यान ये रखा जाता है कि कोई भी रेडियोएक्टिव अणु कोर से बाहर न छिटकने पाए और रेडिएशन वातावरण में लीक न होने पाए। 
न्यूक्लियर रिएक्टर बिजली बनाने का सबसे सुरक्षित और असरदार साधन हैं। इंटरनेशनल एटॉमिक इनर्जी एजेंसी के मुताबिक दुनियाभर में 439 रिएक्टर काम कर रहे हैं और आने वाले वक्त में इनकी तादाद और भी बढ़ेगी। लेकिन जापान में हो रहे रिएक्टर हादसों ने वैज्ञानिकों और इंजीनियरों को रिएक्टर की डिजाइन्स में कुछ और सुधार करने की जरूरत का एहसास दिला दिया है। 

रविवार, 13 मार्च 2011

जापान का भूकंप, जैसा मैंने देखा-टोक्यो के जियोफिजिसिस्ट की डायरी


11 मार्च, शुक्रवार को दोपहरबाद करीब 3 बजे (जापान के समय के अनुसार) जिस वक्त भूकंप आया, मैं अपने ऑफिस में था। मेरा ऑफिस टोक्यो यूनिवर्सिटी के साइंस स्कूल की बिल्डिंग की 7 वीं मंजिल पर है। उस वक्त मैं अपने लैपटॉप पर कुछ टाइप करने में व्यस्त था। टोक्यो में मध्यम दर्जे के भूकंप का आना एक सामान्य सी बात है, इसलिए मैंने भूकंप के झटकों पर ध्यान नहीं दिया और टाइपिंग करता रहा।
भूवैज्ञानिक होने के नाते मैं तुरंत भांप गया कि भूकंप के झटकों की ताकत असामान्य है और इनकी अवधि भी ज्यादा है। खास बात ये थी कि तीखे झटके पूरी तरह से गायब थे, इसलिए पहले-पहल ये अंदाजा लगाना मुश्किल हो गया कि ये भूकंप किस तरह का है। तीखे और बेहद खतरनाक झटकों के न आने की वजह ये थी कि भूकंप की लहरें जैसे-जैसे आगे बढ़ती हैं, धरती उन्हें आहिस्ता से खुद में सोखती जाती है। लेकिन तीखे झटकों के न आने के बावजूद मैं समझ गया कि ये एक बड़ा भूकंप है, जिसका केंद्र शायद काफी दूरी पर है। फिरभी मैं बहुत ज्यादा परेशान नहीं हुआ। मेरी कुर्सी के पीछे मौजूद कैबिनेट से किताबें और दूसरी चीजें मेरे ऊपर गिरने लगीं, इसलिए खुद को बचाने के लिए मैं अपनी मेज के नीचे छिप गया।
कुछ मिनटों के बाद जब भूकंप के झटके थमे, मैं मेज के नीचे से निकला, अपना लैपटॉप वापस खोला और फिर टाइपिंग करने में जुट गया। इस बीच मेरे कुछ छात्र मेरा हालचाल लेने आ गए, मैंने बड़ी लापरवाही और एक शिक्षक की तरह थोड़ी तल्खी के साथ उन्हें वापस अपने काम में जुट जाने का हुक्म सुना दिया। लेकिन कुछ देर बाद जब भूकंप के झटके फिर से शुरू हो गए तो हमारे सुरक्षा अधिकारी ने फैसला लिया कि हमें अब स्कूल की इमारत खाली कर देना चाहिए। फिर मैंने ऐसा ही किया और दूसरे सहयोगियों के साथ हम सब सीढ़ियों से उतरकर स्कूल की इमारत से बाहर आ गए। झटके अब भी रुक-रुक कर आ रहे थे, लेकिन ये काफी हल्के थे। आधे घंटे तक बाहर खड़े रहने के बाद हम सबने फैसला लिया कि बहुत हुआ अब हमें वापस अपने-अपने काम पर ध्यान देना चाहिए। सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए एलीवेटर्स बंद कर दिए गए थे, इसलिए हम सब सीढ़ियों से चढ़कर ऊपर अपने-अपने ऑफिस में गए और अपना-अपना काम खत्म करने के बाद वापस घर को चल दिए।
नागरिकों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए रेलगाड़ियां बंद कर दी गईं थीं। हालांकि मेरे पास सबवे से जाने का विकल्प था, लेकिन साफ मौसम को देखते हुए पैदल ही टहलते हुए मैं घर की ओर चल दिया। 55 मिनट बाद मै घर पहुंच गया, जब मैं घर पहुंचा तो देखा कि वहां भूकंप से कोई नुकसान नहीं हुआ था। लेकिन भूकंप डिटेक्टर यंत्र ने गैस की लाइन अपनेआप काट दी थी। मैंने मुस्कराते हुए लापरवाही के साथ गैस मीटर का बटन दबाया और पाइप में गैस की आपूर्ति फिर से शुरू हो गई।    
भूकंप को आए 8 घंटे बीत चुके थे। फोन नेटवर्क शानदार तरीके से काम कर रहा था। अब मैंने अपनी पत्नी, उसकी मां और बहन की खोज-खबर ली, जोकि उत्तरी जापान में एक हॉट स्प्रिंग रिसॉर्ट में छुट्टियां मना रहे थे। मैंने ये जानकर चैन की सांस ली कि वहां वो सब सुरक्षित थे। टोक्यो के दूसरे कई लोगों की अपेक्षा मैं भाग्यशाली रहा, क्योंकि ज्यादातर लोग सारी रात अपने दफ्तरों में ही फंसे रहे। हालांकि वहीं भी उन्हें कोई खतरा नहीं था, लेकिन बेकार की परेशानी तो थी ही। अब जबकि भूकंप के 32 घंटे बाद मैं अपनी डायरी लिख रहा हूं, टोक्यो में हालात आहिस्ता-आहिस्ता सामान्य होने लगे हैं।
दुर्भाग्य से भूकंप से सबसे ज्यादा प्रभावित इलाकों में हालात बहुत बदतर थे। टीवी पर सारी खबरें भूकंप और उससे हुए जान-माल के नुकसान पर ही केंद्रिंत थीं। भूकंप और उसके बाद आई सुनामी से तबाह हो गई बस्तियों के खौफनाक दृश्य बार-बार रिपीट किए जा रहे थे। हजारों लोगों ने इस हादसे में अपना सबकुछ खो दिया और वो दयनीय स्थिति में अस्थाई टेंटों में शरणार्थियों की तरह रहने को मजबूर थे। बाहर कड़ाके की ठंड थी और बिजली न आने की वजह से हालात गंभीर थे। हालांकि बाहर उन सभी के पास खाना, पानी और कंबल जैसी चीजें थीं, लेकिन बाहर की खुली सर्दी मं सभी ठिठुर रहे थे।
तभी खबर आई कि फुकुशिमा के न्यूक्लियर पावर प्लांट को गंभीर नुकसान पहुंचा है और वहां से रेडिएशन का रिसाव हो रहा है। हमें खबर मिली कि रिएक्टर के आसपास के 20 किलोमीटर दायरे के इलाके में लोगों के घर खाली कराए जा रहे हैं। लेकिन ये खतरा कितना बड़ा है, ये नहीं पता चल पा रहा था, क्योंकि जो खबरें आ रही थीं, उनमें कुछ भी साफ नहीं था।
संक्षेप में कहूं तो भूकंप की इस बड़ी आपदा का सामना करने के लिए जापान की सरकार ने जो भी कदम उठाए हैं, वो काफी कारगर रहे हैं। लेकिन जापान में आए 9.1 तीव्रता वाले भूकंप और इसके बाद आई सुनामी से जो तबाही और बर्बादी हुई उसे नहीं रोका जा सका। अब सारा ध्यान बचाव-राहत और पुर्ननिर्माण के कामों पर ही है। लेकिन जापान में आए इस भूकंप के बड़े ही दूरगामी परिणाम होंगे और ये भूकंप पब्लिक पॉलिसी बनाने में अहम भूमिका निभाएगा। अंत में इतना ही, कि ऐसे वक्त में जब कि हम भविष्य में आने वाले भूकंपों और उनका सामना करने के तौर-तरीकों पर सारा ध्यान लगाए बैठे थे, तभी ये भयानक अनहोनी घट गई। जैसा कि कैलीफोर्निया इंस्टीट्यूट आफ टेक्नोल़ाजी के प्रोफेसर हिरो कानामोरी कहते हैं, हमें हमेशा अनअपेक्षित का सामना करने को तैयार रहना चाहिए।

- डॉ. रॉबर्ट गेलर, जियोफिजिसिस्ट, यूनिवर्सिटी आफ टोक्यो, जापान

मंगलवार, 8 मार्च 2011

कैसी है अंतरिक्ष की गंध?

कभी सोचा है कि अंतरिक्ष की गंध कैसी होगी? हां, ये बात अलग है कि हम अंतरिक्ष में इसे सूंघ नहीं सकते, क्योंकि इसके लिए हवा जरूरी है।
लेकिन फिरभी ये सच है कि अंतरिक्ष की एक अपनी खास महक है। आखिर ये महक कैसी होगी? क्या ये महक बिल्कुल नई और अनजानी होगी, या फिर बिल्कुल जानी पहचानी सी? या फिर ऐसी कि समझना ही मुश्किल हो !
इसका जवाब अंतरिक्षयात्री देते हैं। स्पेसवॉक करने वाले अंतरिक्षयात्री बताते हैं कि 'अंतरिक्ष की महक अनजानी सी नहीं है, ये कई जानी-पहचानी गंध का एक मिलाजुला रूप है। अंतरिक्ष की खुश्बू - आपके कार या मोटरसाइकिल के इंजन से निकलने वाली गंध, दहकती धातु से उठने वाली गंध, डीजल के धुएं और कबाब जैसी किसी चीज के भुनने की महक इन सबका एक मिला-जुला सा रूप है। यकीनन आपके मन में कई सवाल उठ रहे होंगे, कि स्पेसवॉक के दौरान अंतरिक्षयात्रियों ने आखिर अंतरिक्ष को सूंघा कैसे होगा? क्योंकि स्पेसवॉक के दौरान हेलमेट तो वो उतार नहीं सकते, और एक सेकेंड के लिए अगर मान भी लिया जाए कि शायद खुले अंतरिक्ष में कभी कोई दुर्घटना घट गई होगी जिससे अंतरिक्ष की महक का एक झोंका अंतरिक्षयात्रियों तक आ गया होगा, तो ये भी मुमकिन नहीं है क्योंकि सूंघने के लिए हवा जरूरी है, और अंतरिक्ष में हवा कहां?
अंतरिक्ष की अपनी एक गंध है, ये बिल्कुल सच है। लेकिन ये भी सच है कि अंतरिक्ष की इस गंध को बगैर किसी मिलावट के उसके शुद्ध स्वरूप में सूंघना हम मानवों के लिए मुमकिन नहीं। क्योंकि अंतरिक्ष एक निर्वात-एक शून्य है, जहां कोई गैसीय वायुमंडल या हवा नहीं है, और अगर कभी कोई अंतरिक्षयात्री स्पेसवॉक के दौरान अंतरिक्ष को सूंघने की कोशिश भी करेगा तो उसे एक दर्दनाक मौत का सामना करना पड़ेगा। फिर आखिर अंतरिक्ष की गंध सूंघी कैसे गई?
इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन से अंतरिक्षयात्री जब भी स्पेसवॉक के लिए खुले अंतरिक्ष में जाते हैं, उनके स्पेससूट में कुछ ऐसे खास रासायनिक यौगिक के कण चिपक जाते हैं, जो अंतरिक्ष के कोने-कोने में तैरते रहते हैं। और स्पेसवॉक की समाप्ति पर स्पेससूट पर चिपके ये खास रासायनिक यौगिक कण अंतरिक्षयात्रियों के साथ स्पेस स्टेशन के भीतर आ जाते हैं।
स्पेसवॉक खत्म करके स्पेस स्टेशन के सुरक्षित माहौल में जब भी अंतरिक्षयात्री अपना हेलमेट उतारते हैं, उन्हें सबसे पहले यही जलती की गंध महसूस होती है, जिसकी वजह उनके स्पेससूट पर चिपके यही अंतरिक्ष के रासायनिक यौगिक होते हैं।
अंतरिक्ष की ये गंध इतनी महत्वपूर्ण है कि तीन साल पहले नासा ने मशहूर सुगंध निर्माता कंपनी ओमेगा इनग्रैडिएंट्स के स्टीवन पीयर्स से संपर्क कर उन्हें अंतरिक्ष जैसी गंध बनाने को कहा था। ताकि प्रशिक्षण के दौरान भावी अंतरिक्षयात्रियों को अंतरिक्ष के माहौल का एहसास उसकी गंध के साथ कराया जा सके। ऐसे ही एक दूसरे ऑर्डर पर ओमेगा इनग्रैडिएंट्स नासा के लिए चंद्रमा की गंध तैयार कर चुकी है, जो बारूद से मिलती-जुलती है।
अंतरिक्ष की एक गंध तो है, लेकिन इस गंध का स्रोत क्या है? अंतरिक्ष की ये गंध आखिर फूटती कहां से है? अंतरिक्ष की गंध की तरह इसके स्रोत का जवाब भी उतना ही सीधा-साधा है। अंतरिक्ष की गंध फूटती है मरते हुए सितारों से। नासा के एम्स रिसर्च सेंटर की एस्ट्रोफिजिक्स एंड एस्ट्रोकैमिस्ट्री लैब के संस्थापक और निदेशक डॉ. लुइस अलामैंडोला बताते हैं कि कई धातुओं, गैसों और रासायनिक तत्वों को खुद में समेटे सितारों की मौत जब सुपरनोवा धमाके के साथ होती है तो पॉलीसाइक्लिक एरोमिक हाइड्रोकार्बन्स के कण अंतरिक्ष में दूर-दूर तक बिखर जाते हैं। कार या मोटरसाइकिल के इंजन, दहकती धातु, डीजल के धुएं और किसी चीज के भुनने की इन सभी गंध के मिलेजुले रूप वाली अंतरिक्ष की ये खास गंध पॉलीसाइक्लिक एरोमिक हाइड्रोकार्बन्स के इन्हीं कणों में छिपी होती है। पॉलीसाइक्लिक एरोमिक हाइड्रोकार्बन्स के कण हमारी आकाशगंगा के कोने-कोने में मौजूद हैं। ये खास रासायनिक कण धूमकेतुओं, उल्काओं और स्पेस डस्ट में भी मौजूद पाए गए हैं। धरती पर जीवन की शुरुआत के लिए आधार तैयार करने में भी इन रासायनिक कणों की अहम भूमिका की पहचान हुई है। इतना ही नहीं, धरती पर मिलने वाले कोएले, कच्चे तेल और यहां तक कि हमारे खाने में भी अंतरिक्ष के ये रासायनिक कण खोजे गए हैं।
डॉ. अलामैंडोला बताते हैं कि हमारा सौरमंडल खासतौर पर काफी ‘कसैला’ है, क्योंकि ये कार्बन से भरपूर है और यहां ऑक्सीजन काफी कम है। अगर आप अपनी कार या बाइक के इंजन में जाने वाली हवा को रोक दें तो एक मिसफायर के साथ तेज गंध के साथ काला धुंआ यानि कार्बन निकलता है, ये गंध सौरमंडल की गंध से मिलती-जुलती है।
ऑक्सीजन की बहुतायत वाले सितारों की गंध कोएले के जलने जैसी होती है। लेकिन अगर एक बार आप हमारी आकाशगंगा के बाहर चले जाते हैं तो अंतरिक्ष की गंध भी बदल जाएगी। ब्रह्मांड के अंधेरे कोनों में मौजूद धूलकणों में अलग-अलग गंध मौजूद हो सकती है, जो हमें जलती हुई शक्कर और सड़े अंडों जैसी भी लग सकती है।

शुक्रवार, 4 मार्च 2011

‘नेचुरल सेलेक्शन’ यानि प्राकृतिक चयनवाद मानव जाति के लिए सबसे बड़ा खतरा


प्रोफेसर क्रिश्चियन-डि-डुवे एक मशहूर जीवविज्ञानी और विजनरी लेखक हैं। कोशकीय संरचना में रिसर्च के लिए उन्हें 1974 में जीवविज्ञान के नोबेल से सम्मानित किया जा चुका है। प्रो. क्रिश्चियन बेल्जियम की कैथोलिक यूनिवर्सिटी आफ लाऊवेन और न्यूयार्क की रॉकेफेलर यूनिवर्सिटी में विजटिंग प्रोफेसर हैं। येल यूनिवर्सिटी प्रेस ने उनकी नई किताब प्रकाशित की है, जिसका शीर्षक है – जेनेटिक्स आफ ओरीजनल सिन।
 इस किताब में प्रो. क्रिश्चिन ने ये कहकर दुनिया का ध्यान खींचा है कि नेचुरल सेलेक्शन यानि प्राकृतिक चयनवाद अब मानव जाति के खिलाफ काम कर रहा है। वॉयेजर पेश करता है प्रोफेसर क्रिश्चियन-डि-डुवे से बातचीत के अंश -
सवाल-इस ग्रह पर मानव जाति सबसे सफल जीव प्रजाति है, लेकिन आपका कहना है कि आखिरकार हमें इस सफलता की कीमत चुकानी होगी। ऐसा क्यों ?
प्रो.क्रिश्चिन -हम मानवों ने प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के जरिए धरती की सबसे सफल जीव प्रजाति का दर्जा हासिल किया है। लेकिन इससे ऊर्जा संकट, पर्यावरण में बदलाव, प्रदूषण और इस ग्रह पर जीवन को सहारा देने वाली स्थितियों के ह्वास जैसी समस्याएं पैदा हो गईं। अगर आप कुदरती संसाधनों का दोहन करते चले जाएंगे तो अपने बच्चों को देने के लिए आपके पास कुछ भी नहीं होगा। अगर हम इसी दिशा में आगे बढ़ते रहे तो अगर हम सामूहिक विनाश जैसी घटनाओं से बच भी गए, तो भी मानव जाति को भविष्य में निर्मम अग्निपरीक्षा का सामना करना होगा।
सवाल -आपका मानना है कि नेचुरल सेलेक्शन यानि प्राकृतिक चयनवाद अब हमारे यानि मानव जाति के खिलाफ काम कर रहा है, ये आखिर कैसे ?
प्रो.क्रिश्चिन -क्योंकि अब दूरदर्शिता नहीं रही। नेचुरल सेलेक्शन यानि प्राकृतिक चयनवाद हमारे जीन्स में छिपी कुछ खास विशिष्टताओं के जरिए काम करता है जैसे कि सामूहिक स्वार्थता (group selfishness)। हमारे आदिपूर्वज जिन हालातों में गुजर-बसर कर रहे थे, ये विशिष्टता तब पूरे समूह के लिए बड़े काम की थी, लेकिन यही विशिष्टता अब हमें सबसे ज्यादा नुकसान भी पहुंचा रही है। हमारे ही जीन्स में एक कोड ये भी दर्ज है कि भविष्य की भलाई के लिए हम वर्तमान को बलिदान करें हमारे जीन्स की ये दूसरी विशिष्टता हमारे प्राकृतिक संसाधनों को संरक्षित करने में योगदान भी कर सकती है। अब हमें ये समझदारी दिखानी होगी कि बेहतर भविष्य के लिए कुछ बेहद जरूरी चीजों के लिए हम तात्कालिक फायदे वाली अपनी कुछ चीजों का बलिदान करें। नेचुरल सेलेक्शन या प्राकृतिक चयन ऐसा नहीं करता, इसकी प्राथमिकता में केवल ये तय करना होता है कि आज क्या हो रहा है? और बेहतर आज के लिए अभी क्या जरूरी है? नेचुरल सेलेक्शन या प्राकृतिक चयन आपके बच्चों और पोतों-पड़पोतों के साथ क्या होगा, इसकी परवाह नहीं करता।
सवाल -आपने दूरदर्शिता के इस अभाव को ओरीजिनल सिन रहा है। आपने इस विशेषण का इस्तेमाल क्यों किया?
प्रो.क्रिश्चिन- ये बाइबिल का टर्म है। मेरा मानना है कि बाइबिल के एक खास खंड- जेनेसिस के लेखकों ने मानव प्रकृति में गहरे पैठी हुई स्वार्थपरता की पहचान कर ली थी। मैं कहता हूं कि ये चीज हमारे जीन्स में है। इसीलिए इसे बताने के लिए ही ओरीजिनल सिन के मिथक की रचना की गई होगी। लेकिन मैं प्राचीन ग्रंथों का व्याख्याकार नहीं हूं, यहां ओरीजिनल सिन से मेरा मतलब प्राकृतिक संसाधनों के लगातार दोहन से है, जिसके दुष्परिणाम हमें या हमारी संतानों को आगे भुगतने होंगे। 
सवाल- मानव जाति इस ओरीजिनल सिन से कैसे उबर सकती है ?
प्रो.क्रिश्चिन- हमें नेचुरल सेलेक्शन या प्राकृतिक चयन के विरुद्ध काम करना होगा और हमारे जीन्स में मौजूद कुछ विशिष्टताओं की खिलाफत सक्रियता से करनी होगी।
सवाल- आपने एक समाधान के तौर पर जनसंख्या नियंत्रण का सुझाव दिया है। लेकिन क्या ये धार्मिक रूप से विवादास्पद नहीं है?
प्रो.क्रिश्चिन- ये तो सामान्य सी बात है। अगर आप चाहते हैं कि ये ग्रह हर किसी के जीने के काबिल बना रहे तो आपको यहां रहने वालों की तादाद नियंत्रित करनी होगी। देखिए किसी भी झुंड में शिकार वही जानवर बनते हैं जो कमजोर, बीमार या बूढ़े होते हैं। लेकिन मैं नहीं मानता कि जनसंख्या नियंत्रित करने का ये तरीका नैतिक है। तो फिर सवाल ये कि हमें क्या करना चाहिए ? इसका जवाब है जन्म पर नियंत्रण। हमारे पास जन्म पर नियंत्रण के लिए नैतिक, धार्मिक, व्यावहारिक और वैज्ञानिक हर तरह के उपाय हैं। इसलिए मेरे विचार से जन्म को नियंत्रित करना ही वो सबसे कारगर उपाय है जिससे जनसंख्या सीमित रखी जा सकती है।
सवाल- आप महिलाओं को और भी ज्यादा अधिकार दिए जाने की वकालत करते हैं, ऐसा क्यों ?
प्रो.क्रिश्चिन- एक जीवविज्ञानी के तौर पर कहूं तो, मेरे विचार से महिलाएं पुरुषों के मुकाबले कम आक्रामक होती हैं और वो नई पीढ़ी को शिक्षित करने में कहीं ज्यादा व्यापक और महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभाती हैं। ऐसा करके महिलाएं बच्चों को उनके जीन्स में मौजूद उस विरासत से उबारने का काम करती हैं, जो उन्हें अपने पूर्वजों, आदिपूर्वजों से मिली होती हैं।
सवाल- मानवजाति के भविष्य के बारे में क्या आप आशान्वित हैं ?
प्रो.क्रिश्चिन- मैं आशान्वित हूं लेकिन सतर्कता के साथ, बेहद सतर्कता के साथ। मैं आशान्वित होने की कोशिश कर रहा हूं, क्योंकि मैं नौजवानों और आने वाली पीढ़ी को एक उम्मीद का संदेश (message of hope) देना पसंद करूंगा। मैं उनसे ये कहना चाहूंगा कि इस मसले में अब तुम कुछ कर सकते हो। लेकिन वर्तमान में अभी ऐसे कोई संकेत भी नहीं मिल रहे कि ऐसा कुछ हो रहा है।

सौर-चक्र की सदियों पुरानी गुत्थी का समाधान

कोलकाता के अंतरिक्ष विज्ञानी दिव्येंदु नंदी ने सौर-चक्र की सदियों पुरानी एक गुत्थी का हल ढूंढ निकाला है। नासा के दो वैज्ञानिकों के साथ मिलकर उन्होंने सूरज में दिखने वाले बदलावों का एक ऐसा कंप्यूटर मॉडल विकसित किया है, जिससे यह जाना जा सकता है कि आने वाले सालों में इसमें कोई असामान्य हलचल तो नहीं होने वाली।
अभी कुछ दशक पहले तक हमें सिर्फ धरती के मौसम की चिंता करनी होती थी, लेकिन अब सूरज के मौसम की फिक्र करना भी हमारे लिए जरूरी हो गया है। दुनिया के ज्यादातर टेलिफोनिक संवाद और टीवी प्रसारण कृत्रिम उपग्रहों पर निर्भर करते हैं। सूरज में उठा कोई भी तूफान इस व्यवस्था के नष्ट-भ्रष्ट हो जाने का खतरा पैदा कर देता है। सुनने में अजीब लगता है, लेकिन धरती के लिए सूरज के अशांत होने से भी ज्यादा बड़ी समस्या इसका असाधारण रूप से शांत होना है। दो साल पहले ऐसा हुआ था और इसके नुकसान अब तक देखे जा रहे हैं।
सूरज के ज्यादा शांत होने से हमारे वायुमंडल की सबसे ऊपरी सतह सिकुड़ने लगती है। इससे धरती पर जहां-तहां असाधारण ठंड, गर्मी और बरसात (एक्स्ट्रीम वेदर इवेंट्स) की आशंका बढ़ जाती है।

 सूरज के शांत या अशांत होने का अंदाजा सौर कलंक यानी सूरज के धब्बों की गिनती करके और उनका आकार नापकर लगाया जाता है। ज्यादा और बड़े धब्बों का अर्थ है सूरज का अधिक अशांत होना। इन धब्बों के क्रमश: ज्यादा और कम होने का ग्यारह-ग्यारह वर्षों का चक्र चला करता है, लेकिन 2008-09 में काफी अर्से तक ये धब्बे सिरे से नदारद रहे।
ऐसी घटना सदियों में एकाध बार ही हुआ करती है और पिछली बार यह 1910 के आसपास देखी गई थी। दिव्येंदु नंदी और नासा की टीम ने सम्मिलित रूप से इसकी जो व्याख्या की है, वह सौर-चक्रों के पिछले सौ वर्षों के रेकॉर्ड पर बिल्कुल खरी उतरती है। 2014 के आसपास शुरू हो रहा सूरज का शांतिकाल अगर इस विश्लेषण के अनुरूप निकला तो नंदी और नासा का यह काम सदी की सबसे कारगर खोजों में गिना जाएगा।