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सोमवार, 28 दिसंबर 2009

हमारा कोई परमपिता नहीं

हमें और हमारे आसपास बिखरी इस अनमोल सृष्टि को बनाने-रचने वाला कोई भगवान, ईश्वर, खुदा या परमपिता नहीं है...बल्कि हम और हमारी दुनिया विकास के उस स्वाभाविक मंथन से उपजे हैं जो सृष्टि की रचना के बाद से अबतक जारी है...इस आदि और अनंत सत्य को जानकर-महसूसकर डार्विन को कैसा लगा होगा ? अच्छा-भला भगवान को पूजने और डरने वाला एक सच्चा ईसाई बीगल के सफर पर जाकर खामखां में सृष्टि और विकास के सत्य में उलझ गया।
हमारा कोई परमपिता नहीं, जिसने हमें रचा और सदआचरण के लिए अपनी बनाई सृष्टि में भेज दिया...इस शर्त के साथ कि तुम मुझे भूलोगे नहीं....और पूजा-पाठ, नमाज या आंसुओं में डूबी प्रार्थनाओं के साथ मुझे रोज याद करोगे, एहसानमंद रहोगे और हमेशा सजदे में झुके रहोगे।
हमारा कोई परमपिता नहीं...जो हर वक्त, हर कहीं मौजूद है और दुनिया के जर्रे-जर्रे कण-कण में मौजूद रहकर पर पल हम मूरख-खल-कामियों की हर गलत-सही हरकतों को देख रहा है...नहीं ऐसा कोई नहीं !
हमारा कोई परमपिता नहीं... प्रभु ज्यूस या राजा इंद्र की तरह आसमां की सल्तनत पर जिसका राज चलता है... बादलों के पार किसी खुदा, पैगंबर या भगवान की खुदाई नहीं, जैसा कि पूर्व सोवियतसंघ के ह्युमन स्पेस मिशन के शुरुआती दिनों में खुश्चेव ने कहा, कि हमारे अंतरिक्षयात्री धरती से बादलों के पार अंतरिक्ष गए, लेकिन उन्हें वहां कोई खुदा, कोई भगवान या कोई परमपिता नहीं दिखा।
कोई परमपिता नहीं... जो आसमान से धरती पर रेंगती अपनी लायक-नालायक औलादों को देख गर्व या अफसोस करता हो !
हमारा कोई परमपिता नहीं...हम किसी महानतम परमशक्ति के अंश नहीं, किसी ईंश्वर ने हमें नहीं रचा ! अपने दुखों और पापों से छुटकारा पाने के लिए हम जिनके आगे मुक्ति के लिए गिड़गिड़ाते थे वो एक छलावा था ! हमारा कोई परमपिता नहीं !
हमारा कोई परमपिता नहीं...हमारे अपार कष्टों को देख जिसकी आंखें छलक उठती हैं...और जो किसी दूसरे रूप में हमारे लिए मदद भेज अपनी करुणा का आशीर्वाद देता है!
हमारा कोई परमपिता नहीं...घोर संकट में हम जिसका नाम लेकर मदद के लिए पुकार सकें...किसी के संकट दूर करने के लिए हम सजदे में बैठकर आंसुओं से भरी प्रार्थना कर सकें !
हमारा कोई परमपिता नहीं...हम जिसके रेवड़ में शामिल भेड़ों की तरह हैं और जो किसी गड़रिए की तरह हमारी देखभाल और रक्षा करता है...हमारा कोई परमपिता नहीं !
हमारा कोई परमपिता नहीं...हम अनाथ हैं...आध्यात्मिक रूप से बेसहारा...हमारे घोर संकट कभी किसी परमपिता की कृपा ने नहीं दूर किए ! हम बस केवल अपने पिता के पुत्र और अपनी संतानों के पिता हैं...हम ही पिता हैं...हम ही परमपिता !
अपने संकटों, मुश्किलों के लिए खुद ही जिम्मेदार और खुद से ही जवाबदेह...आगे बढ़ने के लिए प्रयत्नशील, दिन-रात जद्दोजहद करके अपने परिवार के लिए तमाम साधन-संसाधन जुटाने के लिए जूझते कर्मयोगी ....इस दुनिया के बीचोबीच खड़ा बिल्कुल अकेला, बगैर किसी सहारे का मानव....बस एक मानव।
शायद, इसीलिए बीगल के सफर के बाद डार्विन धार्मिक नहीं रहे, उन्होंने गिरजाघर जाना और प्रार्थना करना सब छोड़ दिया और अपने ही विचारों में खो गए। ओरिजिन आफ स्पीशीज की 150वीं वर्षगांठ पर पेश है, वायेजर की ओर से मानवता के महानतम वैज्ञानिक चार्ल्स डार्विन को एक पुष्पांजलि।
संदीप निगम

डॉर्विन पर बनी फिल्म विवादित

दुनिया को सबसे पहले क्रमगत विकास का सिद्धांत देने वाले महान वैज्ञानिक चाल्र्स डार्विन पर बनी ब्रिटिश फिल्म विवाद बढ़ता नजर आ रहा है। क्रिएशन नाम की यह फिल्म इस कदर विवादास्पद बताई जा रही है कि कोई भी अमेरिकी डिस्ट्रीब्यूटर इसके अधिकार खरीदने के लिए नहीं है। बताया जा रहा है कि इसमें डार्विन के मानव के क्रमगत विकास के सिद्धांतों को इस तरह पेश किया गया है कि इससे अमेरिका के धार्मिक दर्शक भड़क सकते हैं।
फिल्म में विज्ञान की धारणाएं रखने वाले ब्रिटेन के पर्यावरणविद् डार्विन को आस्था और तकरें के बीच संघर्ष करते दिखाया गया है। इन्हीं तर्को के आधार पर उन्होंने 1859 में ‘ऑन द ओरिजिन ऑफ द स्पीशीज’ नामक किताब लिखी थी। इस फिल्म को जॉन एमिल द्वारा निर्देशित किया गया है। इसे हाल ही में हुए टोरंटो फिल्म फेस्टिवल के शुभारंभ के लिए चुना गया था। अब तक इसे दुनियाभर में बेचा जा चुका है, लेकिन अमेरिका के वितरकों ने इसे खरीदने से इनकार कर दिया है। उनका कहना है कि यह फिल्म देश में कोहराम मचा सकती है, क्योंकि जो वैज्ञानिक सिद्धांत डार्विन ने दिए थे, वे अमेरिकी धार्मिक सिद्धांतों से मेल नहीं खाते। मूवीगाइड.ओआरजी नामक एक क्रिश्चियन फिल्म रिव्यू वेबसाइट सहित कई लोगों ने तो डार्विन को जातिवाद भड़काने वाला, धर्माध और सामूहिक हत्याओं की विरासत सौंपने वाला व्यक्ति बताया है। साइट ने यह भी कहा है कि उनके 18वीं सदी में दिए गए कच्चे-पक्के सिद्धांतों ने एडॉल्फ हिटलर जैसे लोगों को प्रभावित किया और अत्याचार, अपराध, क्लोनिंग और जेनेरिक इंजीनियरिंग को बढ़ावा दिया। साइट ने उनके सिद्धांतों का भी खंडन किया है।
इस मामले पर फिल्म के प्रोडच्यूसर ऑस्कर विजेता जेरेमी थॉमस का कहना है कि मैं इस तरह के विवादों से हैरान हूं। मैंने सोचा नहीं था कि ‘ऑन द ओरिजिन ऑफ द स्पीशीज’ के प्रकाशन के 150 साल बाद लोगों के मन में इस तरह की भावना है। मैं इस तरह के विवाद के खिलाफ हूं। उन्होंने कहा कि इस फिल्म के अधिकारअमेरिका में छोड़कर सभी देशों को बेचे जा चुके हैं। यहां न बिकने का कारण इतना है कि यह डार्विन पर बनी है। जिन लोगों ने इसे देखा है, वे इसे अब तक की सबसे बेहतर फिल्म बता रहे हैं। थॉमस ने कहा कि आश्चर्यजनक है कि कुछ अमेरिकी आज भी मानते हैं कि दुनिया मात्र छह दिनों में बनी थी, जो वैज्ञानिक आधार पर सही नहीं है। उन्होंने कहा कि हमने फिल्म को काफी संतुलित रूप से बनाने का प्रयास किया है। डार्विन ने कभी ऐसा नहीं कहा कि धर्मो को खत्म कर दो। मेरे अनुसार डार्विन इस फिल्म के नायक हैं। फिल्म में अभिनेता पॉल बेटैनी, ने डॉर्विन का किरदार निभाया है। वहीं उनकी पत्नी जेनिफर कोनेली ही इस फिल्म में भी उनकी पत्नी के किरदार में नजर आ रही हैं।

डार्विन का सिद्धांत जानवरों के लिए है

बचपन में डार्विन का सिद्धांत पढ़ा था, योग्यतम की उत्तरजीविता....सरवाइवल ऑफ द फिटेस्ट। दुनिया कुछ भी मानती रहे, मैंने हमेशा यही माना कि डार्विन का सिद्धांत जानवरों के लिए है...इंसानों के लिए नहीं। आखिर कैसे एक इंसान अपने सरवाइवल के लिए दूसरे की बलि ले सकता है? बॉयोलॉजी के सर के साथ इसको लेकर काफी बहस भी की, कुछ दलीलें उन्होंने दीं, कुछ मैंने। १२वीं की बोर्ड परीक्षा में मैंने सिर्फ इसलिए डॉर्विन के सिद्धांत की विशेषताएं नहीं लिखी क्योंकि मैं उसके सिद्धांत पर भरोसा नहीं करती थी।
पत्रकार कंचन पंत के एक लेख से साभार

डॉर्विन और धर्म – मंकी ट्रॉयल

डार्विन के विकासवाद का सिद्धांत, मज़हबों में प्राणी उत्पत्ति के खिलाफ था पर इसका विरोध ईसाई देशों में, खासकर अमेरिका में सबसे अधिक हुआ। यह अभी तक चल रहा है। वहां के अधिकतर राज्यों में, डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत को स्कूल में पढ़ाने के लिए वर्जित कर दिया गया था। १९२५ में, अमेरिका के टेनेसी राज्य ने, लगभग सर्वसम्मति से (७५ के विरूद्ध ५ वोटों से) कानून पास किया कि स्कूलों में डार्विन का विकासवाद का सिद्धांत नहीं पढ़ाया जायेगा। डेटन (Dayton), टेनेसी राज्य का शहर है। यहां के लोगों ने सोचा कि उनके शहर को शोहरत दिलवाने का यह बहुत अच्छा मौका है। क्यों न यहीं पर इस कानून को चुनौती दी जाए।
जॉन टी. स्कोपस्, स्कूल में, जीव विज्ञान के अध्यापक थे। वे सरकारी स्कूल की नवीं कक्षा के विद्यार्थियों को डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत पढ़ाने के लिए तैयार हो गये। डार्विन के विकास वाद के सिद्धांत को पढ़ाने के लिए स्कोपस् के विरूद्व बीसवीं शताब्दी में दाण्डिक मुकदमा चला। यह दुनिया के चर्चित मुकदमों में से एक है। इसे मन्की ट्रायल (Monkey trial) भी कहा जाता है। विलियम हेनिंगस ब्रायन (Williams Hennenigs Bryan) डेमोक्रेटिक पार्टी से तीन बार अमेरिका के राष्ट्रपति का चुनाव लड़ने के लिए नामित हो चुके थे। वे बाईबिल पर विश्वास करते थे। उन्हें अभियोजन पक्ष की ओर से वकील नामित किया गया। उस समय क्लेरेंस डेरो (Clarence Darrow), अमेरिका के प्रसिद्घ वकीलों में से थे। वे नि:शुल्क बचाव पक्ष की तरफ से पैरवी करने आये। ब्रायन ने बहस शुरू करते समय कहा, 'The trial uncovers an attack on religion. If evolution wins, Christianity goes.' यह परीक्षण मज़हब पर हमला है। यदि विकासवाद जीतता है तो इसाइयत बाहर हो जायेगी।'
डैरो ने उत्तर दिया, 'Scopes is not on trial, civilisation is on trial.'यह मुकदमा स्कोपस् पर नहीं, लेकिन सभ्यता पर चल रहा है।
लोगों की सोच के मुताबिक, यह चर्चित मुकदमा बन गया। अमेरिका और इंगलैंड से प्रेस संवाददाता डेटन पहुँचकर प्रतिदिन इस मुकदमे के बारे में प्रेस विज्ञप्ति देने लग गये। यह मुकदमा अखबारों में छा गया।प्रतिदिन इसे इतने लोग देखने आते थे जिससे लगा कि शायद कोर्ट की पहली मंज़िल का फर्श टूट जाये; भीड़ के कारण गर्मी और उमस भी बढ़ गयी। अन्त में मुकदमे की सुनवायी, न्यायालय के लॉन में स्थांतरित की गयी। जज़, जूरी, और वकीलों के लिये उठा हुआ प्लैटफॉर्म बनाया गया। उस पर उनके बैठने के लिये जगह थी। उसके नीचे अखबार, टेलीग्राफ और रेडिओ के लोगों के बैठने की जगह थी। प्रतिदिन लगभग पांच हज़ार लोग उसे देखने और सुनने आते थे। इस तरह के नज़ारे के साथ, मंकी ट्रायल, जो कि न्यूयॉर्क टाइम के अनुसार इतिहास के सबसे प्रसिद्ध परीक्षण मुकदमा था, सुना गया। यह पहला मुकदमा था जिसमे कि अभियोजन पक्ष के अधिवक्ता ने स्वयं अपने आपको गवाह के रूप में पेश किया। उसने यह गवाही दी कि बाइबिल में प्राणियों की उत्पत्ति की कथा सही है पर डैरो की प्रतिपृच्छा (cross examination) में उसकी सारी गवाही बेकार साबित हो गयी। लेकिन, अगले ही दिन , न्यायालय ने ब्रायन की सारी गवाही रिकार्ड पर लेने से, यह कहते हुऐ कर मना कर दिया, 'यह सवाल प्रासंगिक नहीं है कि,डार्विन का सिद्वान्त सही है अथवा नहीं। न्यायालय के अनुसार उनका केवल यह देखना है कि,क्या स्कोपस ने डार्विन का सिद्वान्त पढ़ाया अथवा नहीं।' यह बात तो स्वीकृत थी कि स्कोपस् ने डार्विन के विकासवाद के सिद्वान्त को पढ़ाया था। न्यायालय की इस आज्ञा के कारण स्कोपस् को तो सजा होनी थी। उसे सजा में, सौ डालर का दण्ड दे दिया गया। यह दण्ड जूरी ने न तय कर जज ने किया। स्कोपस् ने, टेनेसी सुप्रीम कोर्ट में अपील दाखिल की। सुप्रीम कोर्ट में इसकी सुनवायी पांच न्यायधीशों ने की। फैसला आने में साल भर लगा तब तक एक न्यायाधीश की मृत्यु हो गयी। सबने सर्वसम्मति से यह फैसला इसलिये उलट दिया कि दण्ड जूरी को तय करना चाहिये था न कि जज को। आश्चर्य इस बात का है कि केवल एक न्यायाधीश ने कहा कि यह कानून असंवैधानिक है। दो अन्य न्यायाधीशों ने कानून को वैध माना। चौथे न्यायाधीश ने कानून को तो वैध माना पर कहा कि यह न यह विकासवाद के सिद्धांत को पढ़ाने से मना करता है और न ही स्कोपस् पर लागू होता है। स्कोपस् पर यह मुकदमा फिर से चलना चाहिए था पर न्यायाधीशों ने इसे फिर से चलाने पर मनाही कर दी। यही कारण था कि यह मुकदमा अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट में नहीं गया।

डॉर्विन और धर्म – कुछ विचार

ईस्वी 1800 का काल यूरोप में नास्तिकों एवं अराजकत्ववादियों के लिये स्वर्णयुग था. लगभग सभी सामाजिक-धार्मिक मान्यताओं को ध्वस्त करने की कोशिश वहां हर जगह हो रही थी. लेकिन उनको सबसे अधिक कठिनाई ईश्वर के अस्तित्व को नकारने में हो रही थी क्योंकि ऐसा करने के लिये उनके पास कोई ठोस धार्मिक, दार्शनिक, या वैज्ञानिक सिद्धांत नहीं था. लेकिन चार्ल्स डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत ने उन सब की हैसियत बदल दी. ईश्वर के विरुद्ध वे जीत गये थे एवं वे ईश्वर की ताबूत में आखिरी कील ठोकने में सफल हो गये थे. अब सृष्टि के लिये एक ऊपरी शक्ति पर निर्भर रहने की जरूरत नहीं थी. लेकिन क्या यह सच था?
विज्ञान हर चीज को प्रयोगों की मदद से देखता है, जांचता है एवं निष्कर्ष पर पहुंचता है. सिद्धांत कितना भी आकर्षक हो, कितने ही बडे व्यक्ति ने प्रतिपादित क्यों न किया हो, वह तब तक एक तथ्य नहीं बन पाता जब तक उसके लिये प्रायोगिक प्रमाण न मिल जाये. डार्विन के प्रसिद्ध सिद्धांत को लगभग 150 साल होने को आ रहे है. मजे की बात यह है कि सिद्धांत अभी भी सैद्धांतिक अवस्था में ही है. बल्कि कई वैज्ञानिकों ने यह मांग करना शुरू कर दिया है कि 150 वर्ष के अनुसंधानों के आधार पर इसका स्थान सिद्धांत से कुछ और नीचे पहुंचा देना चाहिए. कारण कई है: जिन फॉसिलों को प्रमाण माना गया था उन में से अधिकतर फर्जी निकले. जो असली निकले उनकी व्याख्या गलत निकली. कई तथाकथित प्रमाण छल पर अधारित थे, महज छद्म प्रमाण थे. कुल मिला कर यदि डार्विन के समय 100 प्रमाण थे तो अब उनकी संख्या 10 रह गई है. ईश्वर की ताबूत का आखिरी कील अभी नहीं ठोका गया है. अभी तो ताबूत तैयार ही नहीं हुआ है.
साभार – सारथी (http://sarathi.info/archives/896)
डार्विन ... की पुस्तक डिसेंट ऑफ़ मैन ने सचमुच मनुष्य के पृथक सृजन की बाइबिल -विचारधारा पर अन्तिम कील ठोक दी थी तब से बौद्धिकों मे डार्विन के विकास जनित मानव अस्तित्व की ही मान्यता है। इस मुद्दे पर मैं आपसे दो दो हाथ करने को तैयार हूँ। आप कृपया यह बताये कि डार्विन के किस तथ्य को बाइबिल वादियों ने ग़लत ठहराया है? एक एक कर कृपया बताएं ताकि इत्मीनान से उत्तर दिया जा सके।
साभार- अरविंद (http://www.blogger.com/profile/02231261732951391013)
डार्विन एक महानतम वैज्ञानिकों में से एक हैं। वे स्वयं पादरी बनना चाहते थे इसलिये उन्होने Origin of Species प्रकाशित करने में देर की। उनका जीवन संघर्षमय रहा। यदि आप Irving Stone की The Origin पुस्तक पढ़ें तो उनके बारे में सारे तथ्य सही परिपेक्ष में सामने आयेंगे।इस बारे में, अमेरिका में ... मुकदमा चला। पहला तो १९२० के दशक में था। इसमें फैसला Origin of Species के विरुद्ध रहा। यह अमेरिका के कानूनी इतिहास के शर्मनाक फैसलों में गिना जाता है। इसके बाद [के] ... फैसले ... Origin of Species के पक्ष में हुऐ हैं।
साभार- उन्मुक्त (http://unmukt-hindi.blogspot.com/2009/05/charles-darwin-religious-fervour.html)

विकासवाद के सिद्धांत पर बहस

विकासवाद के सिद्धांत ने दुनिया की सबसे प्रसिद्ध बहस को भी जन्म दिया। यह बहस ३० जून, १८६० को, ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के संग्रहालय में थॉमस हक्सले और बिशप सैमुअल विलबफोर्स के बीच हुई। बिशप सैमुअल, डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत के विरोधी और हक्सले समर्थक थे। बिशप सैमुअल विलबफोर्सबिशप सैमुअल बहुत अच्छा बोलते थे। वे सोचते थे कि यह बहुत अच्छा तरीका है कि जब डार्विन के विकासवाद को सिद्धांत हमेशा के लिए समाप्त किया जा सकता है। इस बहस में क्या बोला गया इसका रिकार्ड तो उपलब्ध नहीं है पर कहा जाता है कि बिशप ने हक्सले से प्रश्न पूछा, 'आप अपने को अपनी माता की तरफ अथवा पिता की तरफ से बंदरो का वंशज कहलाना पसन्द करेंगे।'हक्सले ने सोचा, ईश्वर ने ही बिशप को मेरे हाथ में सौंप दिया है उसने जवाब दिया, 'If..the question is put to me, would I rather have a miserable ape for a grandfather or a may highly endowed by nature and possessed of great means of influence, and yet who employs these faculties and that influence for the mere purpose of introducing ridicule into a grave scientific discussion... I unhesitatingly affirm my preference for the ape.'यदि मुझसे यह प्रश्न पूछा जाए कि क्या मैं बन्दरों से नाता जोड़ना चाहूँगा या ऐसे व्यक्ति से जो शक्तिशाली है, महत्वपूर्ण है, और वह वैज्ञानिक तथ्यों को मज़ाक के रूप में लेना चाहता है तो ऐसे व्यक्ति की जगह, मैं बन्दरों से रिश्ता जोड़ना चाहूँगा।प्रबुद्व लोगों के बीच यह बहस तभी समाप्त हो गयी जब हक्सले ने इसका उत्तर दिया। लेकिन कुछ लोग, सृजनवादी इसे मानने से इंकार करते हैं।

डार्विन का विकासवाद

चार्ल्स डार्विन का मत था कि प्रकृति क्रमिक परिवर्तन द्वारा अपना विकास करती है. विकासवाद कहलाने वाला यही सिद्धांत आधुनिक जीवविज्ञान की नींव बना. डार्विन को इसीलिए मानव इतिहास का सबसे बड़ा वैज्ञानिक माना जाता है.
डार्विन अपने अवलोकनों और विश्लेषणों से इस नतीजे पर पहुंचे थे कि सभी प्रजातियाँ मूलरूप से एकही जाति की उत्पत्ति हैं. परिस्थितियों के अनुरूप अपने आप को ढालने की विवशता प्रजाति-विविधता को जन्म देती है. 1859 में प्रकाशित अपनी पुस्तक में डार्विन ने यही उद्घोष किया है. सिद्धांत था तो बहुत नया और क्रांतिकारी, लेकिन सारी कसौटियों पर सही उतरता रहा और आज विज्ञान का एक सर्वमान्य सिद्धांत बन गया है. जेम्स वॉटसन आनुवंशिक कोडधारी डीएनए की ऐंठनदार सीढ़ी जैसी संरचना के, जिसे डबलहेलिक्स स्ट्रक्चर कहते हैं, सहखोजी हैं और मानते हैं कि आनुवंशिकी भी पग-पग पर डार्विन की ही पुष्टि करती लगती हैः "मेरे लिए तो चार्ल्स डार्विन इस धरती पर जी चुका सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति है."
जेम्स वॉटसन और फ्रांसिस क्रिक ने 1953 मे एक ऐसी खोज की, जिससे चार्ल्स डार्विन द्वारा प्रतिपादित अधिकतर सिद्धांतों की पुष्टि होती है. उन्होंने जीवधारियों के भावी विकास के उस नक्शे को पढ़ने का रासायनिक कोड जान लिया था, जो हर जीवधारी अपनी हर कोषिका में लिये घूमता है. यह नक्शा केवल चार अक्षरों वाले डीएनए-कोड के रूप में होता है. अपनी खोज के लिए 1962 में दोनो को चिकित्सा विज्ञान का नोबेल पुरस्कार मिला था. एडवर्ड ऑसबर्न विल्सन आजकल के सबसे जानेमाने विकासवादी वैज्ञानिकों में गिने जाते हैं और वे भी डार्विन के आगे सिर झुकाते हैं: "हर युग का अपना एक मील का पत्थर होता है. पिछले 200 वर्षों के आधुनिक जीवविज्ञान का मेरी दृष्टि में मील का पत्थर है 1859, जब जैविक प्रजातियों की उत्पत्ति के बारे में डार्विन की पुस्तक प्रकाशित हुई थी. दूसरा मील का पत्थर है 1953, जब डीएनए की बनावट के बारे में वॉटसन और क्रिक की खोज प्रकाशित हुई."
डार्विन तथा वॉटसन और क्रिक के बीच एक और ऐसा वैज्ञानिक रहा है, जिसने आधुनिक जीवविज्ञान पर अपनी अमिट छाप छोड़ी है. वह था ऑस्ट्रिया का एक ईसाई भिक्षु ग्रेगोर मेंडल. वह डार्विन का समकालीन था. विज्ञान-इतिहासकार एरन्स्ट पेटर फ़िशर बताते हैं कि मेंडल मटर की नस्लों के बीच वर्णसंकर के प्रयोग कर रहा था और जो कुछ नया देखता- पाता था, उससे डार्विन को भी अवगत कराता थाः "डार्विन आनुवंशिकी के नियम नहीं जानता था. यह तो मालूम है कि डार्विन को इस समाचारपत्र की एक प्रति मिली थी, लेकिन यह भी मालूम है कि उसने उसे खोला ही नहीं था. यानी, उसे नहीं पता था कि किन नियमों के अनुसार आनुवंशिक गुण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को मिलते हैं और न ही इस बारे में कोई कल्पना कर सकता था."
ग्रेगोर मेंडल तथा वॉटसन और क्रिक की जोड़ी के कार्यों की बलिहारी से कुलिंग पक्षिय़ों वाली वह पहेली भी हल की जा सकी, जिसने डार्विन को बड़ी उलझन में डाल रखा था. उसने गालापोगोस द्वीपों पर देखा कि वहाँ तरह-तरह के पक्षी रहते हैं. किसी की चोंच छोटी और मोटी है, वह मेवों और बीजों पर जीता है, तो किसी की पतली और लंबी और वह फूलों के भीतर दूर तक अपनी चोंच उतार कर रसपान करता है. उसे लगा कि इन सभी पक्षियों की पूर्वज कोई एक ही प्रजाति रही होनी चाहिये. उन के बीच सारे अंतर समय की देन हैं. डार्वन के समय डीएनए, जीन या क्रोमोसोम जैसे शब्द प्रचलन में नहीं थे.
इस बीच वैज्ञानिक जानते हैं कि डीएनए को न केवल पढ़ा जा सकता है, बल्कि देखा भी जा सकता है कि जीवधारियों का रूप-रंग, आकार-प्रकार किस तरह बदलता है. जब भी कोई जीन सक्रिय होता है, वह कोषिका के भीतर अपने ढंग का कोई विशेष प्रोटीन पैदा करता है. उदाहरण के लिए यदि BMP4 नामके प्रोटीन को पैदा करने वाला जीन सक्रिय होता है, तो कुलिंग पक्षी की चोंच छोटी और चौड़ी बनेगी. लेकिन, यदि वह जीन सक्रिय होता है, जो काल्मोड्यूलीन नाम का प्रोटीन पैदा करता है, तो Bildunterschrift: चोंच लंबी और पतली होगी. वैज्ञानिक अब यह भी जानते हैं कि विकासवाद जीनों में परिवर्तन से नहीं, बल्कि उनके सक्रिय या निष्क्रिय होने के बल पर चलता है. इसीलिए कोई ऐसा जीन भी नहीं होता, जो ठेठ मानवीय जीन कहा जा सके. हमारी हर कोषिका में क़रीब 21 हज़ार जीन होते हैं. क़रीब इतने ही चूहे में भी होते हैं. यानी नयी प्रजाति की उत्पत्ति के लिए प्रकृति को नए जीन नहीं पैदा करने पड़ते. नयी प्रजाति के लिए केवल सक्रिय और निष्क्रिय जीनों के बीच नया जोड़तोड़ काफ़ी होता है. 1995 में चिकित्सा विज्ञान की नोबेल पुरस्कार विजेता रही जर्मनी की क्रिस्टियाने न्युइसलाइन-फ़ोलहार्ड इसी क्षेत्र में शोधकार्य कर रही हैं: "सबसे मूल ग़लती यह होती है कि लोग सोचते हैं कि यदि हम कुछ समझ गये हैं, तो उसे बदल भी सकते हैं. सच्चाई यह है कि यदि मुझे किसी आदमी की किसी विशेषता वाले किसी जीन का पता है, तो मैं उसे इतने भर से बदल नहीं सकती और मैं जीन-अंतरित कोई नया आदमी भी नहीं बना सकती. कोई प्राणी बहुत ही जटिल संरचना होता है. बिना किसी अवांछित अनुषंगी प्रभाव के उसके जीनों में जानबूझ कर हेराफेरी करना संभव नहीं है."
पहली क्लोन भेंड़ डॉली के जनक कहलाने वाले इयान विल्मट इसे नहीं मानेंगे, हालाँकि इस बीच उन्होंने यह ज़रूर मान लिया है कि, उन्होंने नहीं, उनके साथी कीथ कैंपबेल ने 1996 में डॉली की क्लोनिंग की थी. अमेरिका के जीवरसायनज्ञ क्रैग वेंटर भी इसे नहीं मानेंगे. उनकी कंपनी सेलेरा जीनॉमिक्स ने मानवीय जीनोम को क्रमबद्ध किया था. भावी विकास के बारे में उनके विचार बहुत ही अफ़लातूनी हैं: "मेरी बात साइंस फ़िक्शन जैसी लग सकती है, लेकिन डिज़ाइन और जेनेटिकल सेलेक्शन अर्थात आनुवंशिक चयन भविष्य में डार्विन के विकासवाद की जगह लेंगे. " यदि ऐसा होता भी है, तब भी इससे चार्ल्स डार्विन की 200 वर्षों से चल रही ख्याति की महानता कम नहीं होती.

साभार - यूडिथ हार्टल / राम यादव

डॉर्विन की कहानी

चार्ल्स डारविन का जन्म, दो सौ साल पहले, १२ फरवरी, १८०९ को, श्रेस्बरी (Shrewsbury) में हुआ था। उनके पिता चिकित्सक थे। आठ साल की उम्र में उनकी मां का देहान्त हो गया। अगले छ: साल उन्होंने विभिन्न स्कूलों में पढ़ाई की, जहां वे एक औसत विद्यार्थी रहे।
१६ साल की उम्र में उन्होंने चिकित्सा पढ़नी शुरू की पर यह उन्हें रास नहीं आयी। १८ साल की उम्र में, पिता के कहने पर, आध्यात्मविद्या (Theology) की शिक्षा लेकर पादरी बनने की सोची पर यह न हो सका। उन्हें प्राकृतिक इतिहास (Natural History) में रूचि थी। इसलिए उन्होंने, इसकी पढ़ाई, अपने वनस्पति विज्ञान (Botany) के प्रोफेसर, जान स्टीवेन्स् हेन्सलॉ (John Stevens Henslow) की देख-रेख में शुरू की। २२ वर्ष की उम्र में, डार्विन के पास कोई भी पेशा नहीं था उसका भविष्य अंधकारमय था, उसके समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करें। तभी उन्हें अपने प्रोफेसर हेन्सलॉ के कारण, एक पत्र मिला - 'क्या आप एच.एम.एस बीगल नामक पानी की जहाज पर प्राकृतिक विशेषज्ञ के रुप में दुनिया की सैर करना चाहेंगे।' डार्विन ने इसे स्वीकार कर लिया। इस समुद्र यात्रा न केवल उसके जीवन की पर दुनिया की ही दिशा बदल दी। यह समुद्र यात्रा २७ दिसम्बर १८३१ को शुरू हुई। इसे दो साल में समाप्त होना था पर इसे लगभग पांच साल लगे। यह २ अक्टूबर १८३६ में समाप्त हुई। समुद्र यात्रा के समय, डार्विन परम्परा वादी थे और अक्सर बाईबिल को उद्घरित करते थे लेकिन समुद्र यात्रा समाप्त होते- होते यह बदलने लगा। डार्विन का विश्वास, बाईबिल से उठने लगा। उसे लगा प्राणियों के उत्पत्ति के बारे में बाईबिल में लिखी कथा सच नहीं है। बाद के जीवन में उन्होंने चर्च भी जाना बन्द कर दिया। डार्विन को इस बात की चिन्ता लगने लगी कि मज़हब का, किस तरह से प्रचार किया जाता है। उसे लगने लगा कि यह लोगों को तर्क या तथ्य से नहीं, पर बचपन से ही घुटी पिला कर किया जाता है। जिसके कारण वे अपने बाद के जीवन में उससे बाहर नहीं निकल पाते हैं। डार्विन का बड़ा पुत्र विलियम, रग्बी स्कूल में पढ़ता था। यह स्कूल मज़हबी शिक्षा पर जोर देता था। डार्विन को लगा कि वहां जाकर उसका कौतूहल समाप्त हो रहा है, वह मंद हो रहा है - इसलिए उसने अपने बाकी चार पुत्रों को ग्रामर स्कूल में डाला। यह स्कूल कम जाने माने स्कूल थे पर वहां विज्ञान का वातावरण था।

बीगल का सफर

एचएमएस बीगल, पानी के जहाज ने, तीन समुद्री यात्राएं कीं। इसकी पहली यात्रा में, प्रिंगल स्टोकस् (Pringle Stokes) इसके कप्तान थे। शायद अच्छा साथ न होने के कारण, वे अकेलपन और उदासी के शिकार हो गये। उन्होंने खुदकुशी कर ली। तब रॉबर्ट फिट्ज़रॉय (Robert FitzRoy) को उसका कप्तान बनाया गया था।
बीगल की दूसरी यात्रा में रॉबर्ट ही इसके कप्तान थे। वे जगहों को समझने और सर्वे करने के लिये, किसी पदार्थविज्ञानी (Naturalist) को अपने साथ ले जाना चाहते थे। पहले कप्तान की अकेलेपन और उदासी के कारण मृत्यु ने भी, उन्हें किसी को साथ ले जाने की बात को बल दिया। इसलिये दूसरी यात्रा में डार्विन को, जाने का मौका मिला। यह समुद्र यात्रा २७ दिसम्बर १८३१ को शुरू हुई। इसे दो साल में समाप्त होना था पर इसे लगभग पांच साल लगे। यह २ अक्टूबर १८३६ में समाप्त हुई। इस यात्रा के दौरान, डार्विन गैलापगॉस द्वीप समूह (Galápagos Islands) पर भी गये। यह द्वीप समूह प्रशान्त महासागर में इक्वेडर (Ecuador) से लगभग १००० (९७२) किलो-मीटर पश्चिम पर है। यहाँ पर पाये जाने वाले पक्षी और जानवर दक्षिण अमेरिका में पाये जाने वाले पक्षी और जानवरों से कुछ भिन्न थे पर उनमें महत्वपूर्ण समानता भी थी। डार्विन ने गैलापगॉस द्वीप समूह पर, १३ तरह की चिड़ियों को एकत्र किया था। उनके अध्ययन से पता चला कि वे सब फिंचेस् (Finches) (छोटी गाने वाली चिड़ियां) हैं पर उनकी चोंच अलग-अलग तरह की थी।

नेचुरल सेलेक्शन और सर्वाइवल आफ फिटेस्ट

डॉर्विन सोचने लगे कि फिंचेस् की चोंच क्यों अलग हो गयी, इसका क्या कारण था? क्या इन फिंचेस् के पूर्वज एक ही थे और समय बीतने के साथ, नये वातावरण में, खाना प्राप्त करने की सुविधानुसार ढ़ालने के कारण, उनकी चोंच ने अलग-अलग रूप ले लिया? डार्विन को लगा कि यदि, फिंचेस् में बदलाव आ सकता है तो यह सारे जैविक जीवन में, प्राणी जगत में क्यों नहीं हो सकता है। क्या सारी जातियों, उपजातियों का विकास (Species) एक ही पूर्वज (common ancestor) से हुआ है? क्या जातियों, उपजातियों में बदलाव प्रकृति के सांयोगिक उत्परिवर्तन (chance mutation) के कारण हुआ, जिसमें प्राकृतिक वरण (natural selection) का महत्वपूर्ण योगदान रहा, और वही जीवित रहा जो उत्तरजीविता के लिए योग्यतम (survival of fittest) था?१८३८ में, डार्विन ने, थॉमस मालथुस (Thomas Malthus) की लिखी पुस्तक 'ऎसे ऑन द प्रिन्सिपल आफ पॉप्युलेशन' (Essay on the principle of Population) पढ़ी। इस पुस्तक ने इस सिद्घान्त को पक्का किया। समुद्र यात्रा के दौरान इकट्ठा किये पक्षी और जानवरों के नमूने भी इसी सिद्वान्त की तरफ इंगित करते थे। लेकिन, इस सिद्वान्त के बाइबिल में दिये प्राणियों की उत्पत्ति (Book of Genesis) के विरूद्व होने के कारण, डार्विन इसे प्रतिपादित करने में चुप रहे पर बाइबिल और भगवान के बारे में उनकी सोच बदल गयी। उनका इन पर से विश्वास उठने लगा। उन्होंने, बाद में, चर्च जाना भी बन्द कर दिया। १८३९ में, डार्विन ने समुद्र यात्रा के संस्मरण 'द वॉयज ऑफ बीगल' (The voyage of Beagle) नाम से लिखी। इस पुस्तक ने उसे प्रसिद्घि दिलवायी। फिर भी, डार्विन प्राणियों की उत्पत्ति के सिद्घान्त को प्रकाशित करने की हिम्मत नहीं जुटा पाये। इसका एक कारण यह भी था कि उसकी पत्नी कट्टर इसाई थीं, वह उसे दुखी नहीं करना चाहते थे। किन्तु एक १८ जून १८५८ में मिले एक पत्र ने, सब कुछ बदल दिया।

वो निर्णायक चिट्ठी

डार्विन को १८ जून १८५८ को मिला पत्र, अल्फ्रेड रसल वॉलेस ने लिखा था। वॉलेस ने अपने पत्र में, प्राणियों की उत्पत्ति के बारे में उसी सिद्धांत को लिखा था जिस पर डार्विन स्वयं पहुँचे थे। लेकिन, वॉलेस के पास, इसके लिए तथ्य नहीं थे। इस सिद्धांत को विश्वसनीयता का जामा पहनाने के लिए, तथ्य डार्विन के ही पास थे। १ जुलाई १८५८ को, डार्विन और वॉलेस के संयुक्त नाम से, एक पेपर लंदन की लिनियन सोसाइटी में पढ़ा गया। इस पेपर में इस सिद्धांत की व्याख्या की गयी थी। मोटे तौर पर यह बताता है -'Evolution is result of chance mutation and natural selection, where survival of the fittest played crucial role.'प्राणी जगत का विकास संयोगिक उत्तपरिर्वन, प्राकृतिक वरण, और योग्यतम की उत्तर जीविका पर आधारित है। डार्विन बेहतरीन व्यक्तित्व के भी मालिक थे डार्विन के लिए यह आसान था कि वह वॉलेस का पत्र छिपा जाते और तथ्यों के साथ सिद्धांत को अपने नाम से प्रकाशित कर देते। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। डार्विन के विचार गुलामी के भी विरूद्ध थे जबकि बीगल के कप्तान फिट्ज़रॉय की राय में यह गलत नहीं था। वे इसकी सफाई देते थे। फिट्ज़रॉय के इन विचारों के लिये, डार्विन ने उसकी निन्दा भी की। इसके कारण बीगल से उसकी नौकरी जाते, जाते बची। ब्राज़ील में उन्हें वहां के जंगलों की सुंदरता तो भायी पर गुलामी ने दुखी किया। वहां से निकलने के बाद डार्विन ने कहा - 'I thank God I shall never again visit a slave country ' मैं भगवान को धन्यवाद दूँगा कि मुझे फिर कभी ग़ुलामों के देश में न जाना पड़े।
साभार - उन्मुक्त (http://unmukt-hindi.blogspot.com/2009/05/charles-darwin-religious-fervour.html)

सोमवार, 23 नवंबर 2009

एलएचसी में बीम की टक्कर

पिछले साल सितंबर में तकनीकी खराबी आ जाने के कारण शुरू होने के सात दिन बाद ही बंद हो गई लार्ज हैड्रोन कोलाइडर (एलएचसी) दोबारा चालू हो गई है। यूरोपियन ऑर्गनाइजेशन फॉर न्यूक्लियर रिसर्च (सर्न) द्वारा विकसित दुनिया की सबसे बड़ी मशीन ने शुक्रवार की शाम को दोबारा काम करना शुरू कर दिया। फ्रांस और स्विट्जरलैंड बॉर्डर के पास जमीन से 175 मीटर नीचे 27 किलोमीटर लंबी सुरंग में बनी इस मशीन में हीलियम के रिसाव के कारण गड़बड़ी पैदा हो गई थी, जिसके बाद इसे पिछले साल 10 सितंबर को बंद कर दिया गया था। सर्न के वैज्ञानिकों का कहना है कि प्रयोग के दौरान वही परिस्थितियां पैदा होंगी जो ब्राह्मांड के निर्माण की थीं, जिसे बिग बैंग भी कहा जाता है। प्रयोग के लिए प्रोटॉनों को इस गोलाकार सुरंगों में दो विपरित दिशाओं से भेजा जाएगा। इनकी गति प्रकाश की गति के लगभग बराबर होगी और जैसा कि वैज्ञानिक बता रहे हैं प्रोटॉन एक सेकेंड में 11,000 से भी अधिक परिक्रमा पूरी करेंगे। इस प्रॉसेस के दौरान प्रोटॉन कुछ विशेष स्थानों पर आपस में टकराएंगे।

शनिवार, 24 अक्तूबर 2009

ये सब मेरी मां हिंदी का है – गुणाकर मुले

संदीप निगम
16 अक्टूबर यानि 2009 की छोटी दीपावली, उस दिन मैं स्टार न्यूज के ऑफिस में इस बात का इंतजार कर रहा था कि मेरे बनाए दीपावली स्पेशल को कौन सा स्लॉट मिलता है। दोपहर करीब सवा दो का वक्त था कि तभी मेरे मित्र अमिताभ का फोन आया। रुंधी सी आवाज में अमिताभ ने बताया कि मुलेजी नहीं रहे, तुम जल्दी आ जाओ। मैंने फौरन अपने बॉस को खबर दी और किसी एजेंसी से रिलीज होने से पहले ये दुखभरी खबर हमारे चैनल पर चली कि विज्ञान के प्रसिद्ध लेखक गुणाकर मुले नहीं रहे।
गुणाकर मुले नहीं रहे, दफ्तर से आधी छुट्टी लेकर मैं पूर्वी दिल्ली के पांडव नगर इलाके में उनके घर की ओर बढ़ा चला जा रहा था, मुलेजी ने जिसका नाम अमरावती रखा था। करीब छह महीने से मैं मुलेजी से मिलने की कोशिश कर रहा था, लेकिन मुलाकात की ये चाहत हमेशा प्राथमिकता की सूची में तीसरी या चौथी जगह पर ही रही और कभी हो नहीं पाई। उनके निधन से करीब एक हफ्ते पहले ...वो शरद पूर्णिमा का दिन था, हारवेस्ट मून आसमान में खिला था और छत से मैं उसे देख रहा था, अचानक मैंने अमिताभ को फोन किया कि क्या उन्होंने हारवेस्ट मून देखा...तो उन्होंने बताया कि नहीं वो तो मुले जी को लेकर अपने एक मित्र डॉक्टर के नर्सिंग होम आए हैं। वो नर्सिंग होम मेरे घर के पास ही था, मैं शरदपूर्णिमा के चंद्रमा को आसमान में छोड़ तुरंत नर्सिंग होम की ओर भागा। जब मैं नर्सिंग होम पहुंचा तबतक मुलेजी को डॉक्टर को दिखाकर कार की पिछली सीट पर लिटाया जा चुका था, उनके साथ उनकी पत्नी बैठी थीं। अमिताभ से मुलाकात हुई तो उन्होंने बताया कि डॉक्टर का कहना है कि मुलेजी आहिस्ता-आहिस्ता कोमा की ओर जा रहे हैं। उनकी हालत देखकर मैंने अमिताभ से कहा कि वो उन्हें घर पहुंचा दें...क्योंकि अब मुश्किल ही है कि करीब 13-14 पहले देखे चेहरे को वो पहचान सकें।
13-14 साल पहले देखा चेहरा जी हां वो मैं ही था, 13-14 साल पहले मुलेजी से मुलाकात हुई घर भी आया-जाया करता था। लेकिन ये शादी से पहले की बात थी। मेरे एक पत्रकार मित्र संयोग से मुलेजी के घर के सामने रहते थे। एक दिन जब उनके घर गया तो जब पीछे मुड़कर देखा तो गुणाकर मुले की नेमप्लेट नजर आई। मैंने पलटकर दस्तक दी तो मुलेजी से मुलाकात हुई। विज्ञान प्रगति पत्रिका मेरे बचपन की साथी थी, शायद क्लास 6 से तब ये पत्रिका पचास पैसे में मिलती थी और इसमें गुणाकर मुले जी के लेख लगातार प्रकाशित होते थे। इस तरह बचपन से ही गुणाकर मुलेजी से मेरा परिचय था, लेकिन मुलाकात बरसों बाद हुई। चमकती हुई और हमेशा कुछ तलाशती सी आंखें एकदम झक सफेद बाल और चेहरे पर एक आत्मीय मुस्कान। उनके पास बैठकर बात करना हमेशा एक आत्मीय-आध्यात्मिक अनुभव होता था। उनके घर की बैठक ने मुझे खास प्रभावित किया छत और फर्श को छोड़कर और कोई दीवार नजर ही नहीं आती नीचे से लेकर ऊपर तक बस किताबें ही किताबें, एक अद्भुत और दुर्लभ संकलन। मुलेजी के बाद मेरी मुलाकात अबतक किसी ऐसे शख्स ने नहीं हुई जिसे किताबों की धूल से इन्फेक्शन हुआ हो।
मेरी शादी तय हो चुकी थी और मैं किसी बड़े कमरे की तलाश में था,जिसके साथ किचन भी हो, ऐसे में यूं ही एक दिन मैं मुलेजी के घर गया। 13 साल पहले ये मेरी मुलेजी से अंतिम मुलाकात थी, मुलेजी अमरावती की पहली मंजिल पर निर्माण कार्य करवा रहे थे। मैंने चरण स्पर्श किया, मुलेजी प्रसन्न हो गए, पत्नी को चाय बनाने को कह मुझे ऊपर ले गए कंस्ट्रक्शन दिखाने के लिए। ऊपर का एक-एक कोना उन्होंने मुझे बड़े चाव से दिखाया और मुस्कराते हुए बोले – ये सब मेरी मां हिंदी का दिया प्रसाद है, मैं तो एक मराठी....बस एक झोला लेकर अमरावती से आया था, लेकिन मेरी हिंदी मां ने मुझे सहारा दिया और मेरे परिवार का भरण-पोषण किया। बोले, संदीप देखो यहां मैं कंप्यूटर लगाऊंगा, यहां मैं बैठकर लिखूंगा। फिर बोले, संदीप तुम यहीं क्यों नहीं आ जाते? एक बहुत बड़ा आकर्षण था,मुलेजी के साथ सुबह और शाम गुजारने का, उनके साथ रहने का। लेकिन मैं ये भी देख रहा था, कि उन्हें एक किरायेदार की जरूरत थी ताकि रोजमर्रा के खर्चे निकल सकें और तब मेरी जेब इसकी इजाजत नहीं दे रही थी। फिर शादी हो गई और मेरी सारी दुनिया बस सरवाइवल के संघर्ष में सिमटकर रह गई।
हफ्ते-महीने-साल गुरते चले गए, न्यूज चैनल में काम करने का मौका मिला और इसके साथ ही टीवी पर साइंस शोज मंजूर करवाने और उन्हें बनाने की जद्दोजहद शुरू हो गई। कई बार मुले जी को स्टूडियो में लाइव पर लाने की सूझी लेकिन ये कभी हो न सका। मुलेजी मेरे दिलो-दिमाग में थे, लेकिन फिर कभी उनसे रू-ब-रू मुलाकात नहीं हो सकी। आज इतने साल बाद मैं फिर अमरावती जा रहा था लेकिन अब मुलेजी नहीं थे। अमरावती पहुंचकर भारी दुख और क्षोभ हुआ। उनके दरवाजे चार आदमी भी नहीं थे, अमिताभ और मुलेजी के दो दामाद घर पर थे और किसी को कुछ नहीं सूझ रहा था कि अब करें तो क्या करें। हमारे आने पर आमने-सामने के पड़ोसियों को मालूम हुआ कि यहां कोई रहता था जिसका आज निधन हो गया, इक्का-दुक्का लोग आए और अफसोस करके अना त्योहार मनाने चले गए। इतने कम लोग थे कि शवयात्रा मुमकिन नहीं थी। एनडीएमसी की शवगाड़ी मंगवाई गई। माहौल में दुख की जगह बेचारगी और इस बात की जल्दबाजी थी कि गाड़ी कब आएगी। गाड़ी अपने वक्त पर आई। अमिताभ और बमुश्किल चार-पांच लोगों ने मुलेजी को अंतिम विदाई दी। मुलेजी का संघर्ष खत्म हो गया। लेकिन जिस तरह से खत्म हुआ वो बेहद दुखद था। मुलेजी की अमरावती अब सूनी हो चुकी है।
अमिताभ के प्रयासों से अंतत: मुलेजी की शोकसभा संभव हुई। मुलेजी की शोकसभा सोमवार यानि 26 अक्टूबर को आईटीओ के करीब हिंदी भवन में शाम को छह बजे होनी तय हुई है। “ वॉयेजर ” मां हिंदी को गौरवान्वित करने वाले इस संघर्षशील सुपुत्र को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है। मुलेजी की स्मृति में प्रस्तुत है कुछ विशेष सामग्री -

इतनी खामोशी क्यों ?

बीते सोमवार जब उनकी मृत्यु की सूचना मिली तो लगा जैसे कोई गाली दे रहा हो। गुणाकर मुले ऐसे चले जाएंगे? इतने चुपचाप, अपनी बहसों से माहौल में चिनगारियां छोड़े बगैर? पहली बार उनसे 1990 में फोन पर मेरी बात हुई थी, एक तरह का सीधा परिचय। उसके चार साल बाद दिल्ली में पांडव नगर के उनके अधबने घर में उनसे मुलाकात हुई। बहुत धीरे-धीरे बनता हुआ यह घर करीब दस साल में पूरा हुआ। इसी के एक कमरे में किताबों से भरी अलमारियों के बीच, कई सारी खुली किताबों से लदी मेज पर वह टाइपराइटर ठोंकते रहते थे। विज्ञान की बहसों में निजी मामलों जैसी सघनता के साथ उनका उत्तेजित होना, क्षमाप्रार्थी होना और आगे की बहसों के लिए हिम्मत बढ़ाना उनका कद और बढ़ा देता था। बगैर किसी पैतृक संपत्ति के, कोई नौकरी किए बिना पूरी जिंदगी विज्ञान के लिए लगा देना और बगैर किसी के आगे हाथ फैलाए अपना गुजारा भी कर लेना- यह युद्ध गुणाकर मुले ने लड़ा और इसमें जीत हासिल की। ऐसी धर्म-धुरी को धारण करने वाला आगे कोई और पता नहीं आएगा भी या नहीं। हिंदी की दशा-दिशा पर काफी रोया जा चुका है। फिर भी पूछना वाजिब है कि हिंदी में ज्ञान सर्जना के अंतिम प्रयास क्या जरा भी लगाव के हकदार नहीं हैं? अपनी भाषा में मौलिक ज्ञान रचने की जिद इस देश में अब थोड़े ही दिनों की मेहमान है। गुणाकर मुले में तो यह इतनी सख्त थी कि इसे ही उनके व्यक्तित्व की बुनियाद समझा जा सकता था। खगोलशास्त्र (एस्ट्रोनॉमी) पर उन्होंने बहुत सारे परिचयात्मक लेख और किताबें लिखीं। हिंदी के लोक दायरे में उनकी पहचान भी इन्हीं के जरिए बनी। लेकिन एस्ट्रोनॉमी मुले जी के लिए रोजी-रोटी चलाने की चीज थी। उनका असल काम विज्ञान की संस्कृति पर था और उनका पूरा जीवन इस क्षेत्र में भारत के योगदान को खोजने और इसे रेखांकित करने में गुजरा था। उन्होंने भारत की अंकपद्धति, लिपियों और सिक्कों के विकास पर काम किया और उनका यह काम इतिहासकारों की खोजों की जुगाली भर नहीं था। हिंदी में ज्यादातर बौद्धिकों का जीवन रोजी-रोटी की मशक्कत में ही निकल जाता है, इसके बावजूद अक्षर, गिनती और मुद्रा पर गुणाकर मुले का किया-धरा डी. डी. कोसांबी की याद दिलाता है। अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं के लिए किए गए उनके लेखन की भी खासियत भारतीय संदर्भों के प्रति उनका विशेष आग्रह हुआ करती थी। उनके जैसे कुछ गिने-चुने लोगों के लिखे का ही असर है कि भारतीय समाज में गणित और विज्ञान को लेकर अब पहले जैसा परायेपन वाला भाव नहीं रह गया है।- चंद्रभूषण

'झन् से सांस की बेड़ियां टूटीं '

गुणाकर मुले भी चले गए। दीवाली से एक दिन पहले- शुक्रवार को। उसी दिन उनकी अंत्येष्टि भी हो गई। मुझे अगले दिन, एक हिंदी दैनिक के अंदर के पृष्ठ पर नीचे एक कोने में छपी खबर से जानकारी हो पाई। कई मित्रों से फोन पर दरियाफ्त किया। उन्हें भी कोई सूचना नहीं थी। उनमें से एकाध दूरदराज के उनके संबंधी भी होते हैं। इस तरह चुपचाप उनका चले जाना, दोस्ती के नाते तो व्यथित करता ही है, एक लेखक के रूप में उनका जो कद था उसके मद्देनजर भी उनकी गुमनाम अंतिम विदाई हिंदी भाषा, साहित्य और पत्रकारिता की मौजूदा चिंताओं और प्राथमिकताओं को लेकर गहरे सवाल खड़े करती है। गुणाकर मुले कविता, कहानी, उपन्यासादि साहित्य-चर्वण करने वाले लेखक नहीं थे, उन्होंने प्राचीन विज्ञान-तकनॉलॉजी, पुरातत्त्व, पुरालिपिशास्त्र, मुद्राशास्त्र, इतिहास और संस्कृति की दुरूह और दुर्गम सरणियों का उत्खनन-अवगाहन किया था। लगभग 30 मौलिक ग्रंथ, दो हजार से ऊपर असंकलित हिंदी लेख, सौ से ऊपर अंग्रेजी शोध-निबंध उनके प्रभूत कृतित्व का अंग हैं। इतिहास-पुरातत्व की अनेक महत्त्वपूर्ण पुस्तकों का अनुवाद भी उन्होंने हिंदी में किया। महापंडित राहुल सांकृत्यायन, भदंत आनंद कौसल्यायन के व्यक्तित्व -चिंतन और कृतित्व के संभवतः अकेले विशेषज्ञ हिंदी में वही थे। गुणाकर मुले वस्तुतः राहुल सांकृत्यायन, वासुदेव विष्णु मिराशी, वासुदेव शरण अग्रवाल, मोतीचंद्र और भगवतचंद्र उपाध्याय वाली महान मनीषी परंपरा की हिंदी में अंतिम कड़ी थे।
गुणाकर जी का जन्म 3 जनवरी 1935 को महाराष्ट्र के अमरावती जिले के एक गांव में हुआ था। मराठी मूल के होने के बावजूद उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से गणित में एम.ए. किया और लेखन के लिए हिंदी व अंग्रेजी भाषाओं को माध्यम बनाया। वर्षों दार्जीलिंग स्थित राहुल संग्रहागार से संबद्ध रहने के उपरांत 1971-72 के दौर में वे दिल्ली आ गए थे और फिर दिल्ली ही उनके जीवन का अंतिम पड़ाव बनी। यहीं उन्होंने विवाह किया, घर बसाया और रहे। एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि सिविल मैरिज के दौरान कोर्ट के सम्मुख मुले जी के पिता की भूमिका बाबा नागार्जुन ने निभाई थी। अंत तक वे राहुल जी, भदंत आनंद कौसल्यायन को अपने गुरु के रूप में और नागार्जुन को पितृवत् मानते रहे।
गुणाकर जी से मेरा प्रथम परिचय 1971-72 के दौर में कवि श्री विष्णुचंद्र शर्मा ने टी हाउस-कॉफी हाउस की गहमागहमियों के बीच कराया था और तब से उनसे निरंतर मैत्रीपूर्ण संबंध बना रहा। उनके व्यक्तित्व में जहां एक प्रकांड विद्वान समाहित था, वहीं एक गहरेबाज मित्र भी जमा बैठा था। सालों के अंतराल के बाद भी- और भीड़ में भी खुद आगे बढ़ कर टहोकते थे और समय का अंतराल उनकी शहद जैसी गाढ़ी-आत्मीय आवाज में दब जाया करता था। कभी उनसे आये दिन मुलाकातें होती रहती थीं- काफी हाउस में, 25 बाराखंभा रोड में, जफर मार्ग पर जनसत्ता के दफ्तर में। एकाध बार पांडव नगर स्थित उनके घर भी जाना हुआ। मेरे पारिवारिक आयोजनों में भी उन्होंने शिरकत की। फिर फिराक गोरखपुरी की तर्ज पर वह दौर आया कि 'अब यादे-रफ्तगां की भी हिम्मत नहीं होती/ यारों ने इतनी दूर बसाई हैं बस्तियां...' । पिछले तीन-चार सालों के दरमियान सिर्फ एक बार एक विवाह समारोह में गुणाकर जी से मुलाकात हुई। फोन पर भी, अस्वस्थता के हवाले से, उनकी शहद घुली आवाज सुन पाना संभव नहीं रह गया था। ...और आखिरश् इस तरह 'झन् से सांस की बेड़ियां टूटीं ' कि 'मेरी कहानी में वह नाम' भी नहीं रहा।
- सुरेश सलिल

विज्ञान लेखन का शलाका पुरुष नहीं रहा

स्तब्ध कर देने वाली खबर मिली -प्रसिद्ध विज्ञान लेखक गुणाकर मुले नहीं रहे ! मन क्लांत हो उठा -भारत में आम आदमी के लिए विज्ञान लेखन का शलाका पुरुष नहीं रहा ! स्वतन्त्रता के पश्चात (स्वातंत्र्योत्तर ) भारत में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के चतुर्दिक विकास और उसे आम लोगों के बीच पहुचाने /पहचानने की दिशा में प्रधानमंत्री नेहरू जी के "वैज्ञानिक मनोवृत्ति " (scientific temper ) के आह्वान को अमली जामा पहनाने में मुले जी का अप्रतिम योगदान रहा ! उस समय कोई अपनी बोली भाषा में विज्ञान को आम जन तक ले जाने के गुरुतर दायित्व को उठाने का साहस भी नहीं कर सकता था -सर्वत्र दोयम दर्जे की अंगरेजी का बोलबाला था (जो दुर्भाग्य से आज भी है ) ऐसे में वे एकला चलो की एकनिष्ठता और कार्य समर्पण की भावना से विज्ञान को जन जन तक, घर घर तक पहुचाने को वे कृत संकल्पित हुए और फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा ! उनकी बदौलत ही वर्तमान पीढी से ठीक पहले की पीढी जमीन -आसमान ,सागर -सितारों और चाँद सूरज के बारे में ,वैज्ञानिक प्रतिष्ठानों के विषय में हिन्दी में जानकारी प्राप्त कर पायी !उनकी दृष्टि खोजपरक थी -वे एक गंभीर अध्यता तो रहे ही ,वे एक शोधार्थी भी रहे -पुरा लिपियों पर उनका लेखन आज भी प्रामाणिक माना जाता है !मगर दुखद यह है कि विगत १३ अक्तूबर को इस सरस्वती पुत्र के अवसान की खबर इतनी देर से मिल रही है ! मुद्रण माध्यमों के लिए यह शायद पहले या किसी भी पन्ने की खबर नहीं रही ! और दृश्य माध्यमों की तो हालत और भी शोचनीय है !
मुले जी आज के अनेक हिन्दी विज्ञान लेखकों की पहली पंक्ति के पुरोधा रहे -हिन्दी विज्ञान लोकप्रियकरण के पितामह ! उनका लेखन सरल था मगर फिर भी गंभीर परिशीलन की मांग रखता था -अभिव्यक्ति का छिछोरापन /सतहीपन उनको गवारा नहीं था ! वे विज्ञान की गरिमा से समझौता न करने वालों मे रहे ! जबकि उनके कुछ बाद के और आज के कई स्वनामधन्य विज्ञान प्रचारकों ने विज्ञान की बखिया उधेड़ डाली है, उनके नामोल्लेख यहाँ अभिप्रेत नहीं -कहीं अन्यत्र उनके भी अवदान बल्कि प्रति-अवदान चर्चित होगें ही !मैं मुले जी से १९८८ में इलाहाबाद में आयोजित एक विज्ञान संगोष्ठी के समय पहली बार मिला था -धीर गंभीर व्यक्तित्व , बहु विज्ञ ,बहु पठित -मैं नत मस्तक था ! उनकी एक अभिलाषा थी साईंस फिक्शन को आगे बढ़ाने की क्योंकि वे खुद इस दिशा में अपरिहार्य कारणों से योगदान नहीं कर पाए -उनकी प्रेरणा ने मुझे इस उपेक्षित विधा की ओर और भी मनोयोग से लग जाने को प्रेरित किया ! उनके अनुगामी दिल्ली के विज्ञान लेखकों ने उनसे ईर्ष्या भाव भी रखा जबकि वे पूरी तरह निश्च्छल थे-यहाँ तक कि कृतघ्न पीढी ने यह तक कहा कि उन्हें आम लोगों में विज्ञान के संचार की समझ नहीं थी -ऐसी ही कृतघ्न पीढी सरकारी पुरस्कारों से भी नवाजी जाती रही है ! यह देश का दुर्भाग्य है ! गुणाकर मुले जी 74 वर्ष के थे। पिछले डेढ-दो वर्षो से बीमार चल रहे थे। उन्हें मांसपेशियों की एक दुर्लभ जेनेटिक बीमारी हो गई थी जिससे उनका चलना-फिरना बंद हो गया था। उनका जन्म महाराष्ट्र के अमरावती जिले के सिंधू बुर्जूग गांव में हुआ था .वे मूलतः मराठी भाषी थे, पर उन्होंने पचास साल से अधिक समय तक हिन्दी में विज्ञान लेखन किया। उनकी करीब तीन दर्जन पुस्तकें छपीं हैं । उनके परिवार में पत्नी, दो बेटियां एवं एक बेटा है।उनकी सबसे बड़ी विशेषता रही कि उन्होंने जीवन पर्यन्त एक पूर्णकालिक विज्ञान लेखक के रूप मे आजीविका चलाई जो एक चुनौती भरा काम था ! मुले का जीवट का व्यक्तित्व किसी के लिए भी अनुकरणीय हो सकता है -वे सही अर्थों में विज्ञानं को आम आदमी तक ले जाने को पूर्णरूपेंन समर्पित रहे और बिना नौकरी और सरकारी टुकडों पर पले पूर्ण कालिक विज्ञान लेखन की अलख जगाते रहे ! मेरा नमन !
- अरविंद मिश्रा

'गणित की पहेलियां'

गुणाकर मुले की किताब 'गणित की पहेलियां' मे एक अध्याय 'अंकगणित की पहेलियों' पर है इसी मे वह 'शतरंज के जादू' के बारे मे बताते हैं इसका बयान करने से पहले मैं आपको एक सांकेतिक चिन्ह के बारे मे बता दूं क्योंकि इसका प्रयोग मै करूंगा१=२/२=२^०२=२=२^१४=२x२=२^२८=२x२x२=२^३१६= २x२x२x२=२^४यह सब नम्बर दो को दो से एक बार या दो से कई बार गुणा करके मिले हैं या यह कह लीजये कि ये दो की पावर (power) हैं इन्टरनेट पर देखने के लिये इन्हे २^०, २^१, २^२, २^३, २^४ .... से लिखते हैं पावर को इन्टरनेट पर देखने के लिये ^ चिन्ह का प्रयोग किया जाता है और मै भी इस चिठ्ठे पर इसी प्रकार से लिखूंगाअब देखते हैं कि गुणाकर मुले किस तरह से शतरंज के जादू के बारे मे ब्यान करते हैं यह उन्ही के शब्दों मे,
शतरंज का जादूशतरंज के खेल के नियमों को आप न भी जानते हों तो कम से कम इतना तो सभी जानते हैं कि शतरंज चौरस पटल पर खेला जाता है । इस पटल पर ६४ छोटे-छोटे चौकोण होते हैं ।प्राचीन काल में पर्सिया में शिर्म नाम का एक बादशाह था । शतरंज की अनेकानेक चालों को देखकर यह खेल उसे बेहद पसंद आया। शतरंज के खेल का आविष्कर्ता उसी के राज्य का एक वृद्ध फकीर है, यह जानकर बादशाह को खुशी हुई। उस फकीर को इनाम देने के लिये दरबार में बुलाया गया:
'तुम्हारी इस अदभुत खोज के लिये मैं तुम्हें इनाम देना चाहता हूं । मांगो, जो चाहे मांगो,'
बादशाह ने कहा। फकीर - उसका नाम सेसा था - चतुर था । उसने बादशाह से अपना इनाम मांगा:
'हुजूर, इस पटल में ६४ घर हैं। पहले घर के लिये आप मुझे गेहूं का केवल एक दाना दें, दूसरे घर के लिये दो दाने, तीसरे घर के लिये ४ दाने, चौथे घर के लिये ८ दाने और .... इस प्रकार ६४ घरों के साथ मेरा इनाम पूरा हो जाएगा।'
'बस इतना ही ?'
बादशाह कुछ चिढ गया,
'खैर, कल सुबह तक तुम्‍हें तुम्‍हारा इनाम मिल जाएगा।'
सेसा मुस्कराता हुआ दरबार से लौट आया और अपने इनाम की प्रतीक्षा करने लगा।बादशाह ने अपने दरबार के एक पंडित को हिसाब करके गणना करने का हुक्म दिया। पंडित ने हिसाब लगाया ... १+ २+ ४+ ८+ १६+ ३२+ ६४+ १२८... (६४ घरों तक ) अर्थात १+ २^२ + २^३ + २^४... = (२^६४)-१ अर्थात १८,४४६,७४४,०७३,७०९,५५१,६१५ गेहूं के दाने। गेहूं के इतने दाने बादशाह के राज्य में तो क्या संपूर्ण पृथ्वी पर भी नहीं थे। बादशाह को अपनी हार स्वीकार कर लेनी पड़ी।राजा के तो समझ रहा था कि फकीर ने बहुत छोटा इनाम मांगा है उसकी समझ मे नहीं आया कि उसे कितना गेहूं देना था यही है शतरंज का जादूगौर फरमाइयेगा कि हर खाने मे कितने गेहूं के दाने रखे जा रहे हैं क्योंकि यही हमारे इस विषय के लिये महत्वपूर्ण है और यही इसे नारद जी की पहेली से जोड़ेगा
- उन्मुक्त

भारतीय कैलेंडर की विकास यात्रा

प्रकृति की जिन निश्चित घटनाओं से मनुष्य का आरंभ से ही गहरा सरोकार रहा है वे हैं - १। रात-दिन का चक्र, २. चंद्र की घटती-बढ़ती कलाओं का चक्र, और ३. ऋतुओं का चक्र। इन तीन घटनाओं से काल की तीन प्राकृतिक कालावधियाँ क्रमशः दिन, माह और वर्ष सुनिश्चित होती है। इनमें दिन सबसे छोटी कालावधि है, इसलिए इसे काल की बुनियादी इकाई मान लिया गया है, महीने तथा वर्ष की कालावधियाँ दिन की इकाई में ही व्यक्त की जाती है। इसलिए कैलेंडर के निर्माण में निम्नलिखित तीन भिन्न कालावधियों पर विचार करना पड़ता हैःसौर वर्ष = ३६५.२४२२ सौर दिनचाँद्र मास = २९.५३०५९ सौर दिनसौर वर्ष में चाँद्र मास = १२.३६८२७
कैलेंडर की प्रमुख समस्या है, उपर्युक्त तीनों संबंधों के बीच समन्वय स्थापित करना। इसलिए एक व्यावहारिक कैलेंडर के निर्माण में निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना ज़रूरी हैः (१) वर्ष और महीने में दिनों की संख्या पूर्णाकों में होनी चाहिए, (२) वर्षारंभ और मासारंभ के दिन सुनिश्चित होने चाहिए, (३) एक सुनिर्धारित संवत होना चाहिए, और (४) चाँद्रमासों को रखना हो, तो सौर वर्ष के साथ उनका संबंध बिठाना चाहिए।
प्राचीन काल से अब तक विभिन्न देशों में सैंकड़ों कैलेंडर प्रयुक्त हुए हैं, मगर उपर्युक्त सभी बातों का सही और संतोषजनक समाधान अभी तक प्राप्त नहीं हुआ है। यह भी स्मरण रखना ज़रूरी है कि प्राचीन काल में दिन, माह और वर्ष की अवधियों की अधूरी जानकारी होने के कारण कैलेंडरों का वास्तविक घटनाओं से मेल नहीं बैठता था। इसलिए समय-समय पर उनमें ज्योतिषियों या शासकों या धर्माचार्यों द्वारा सुधार किए जाते रहे हैं।
कृषिकर्म के लिए ऋतुओं की जानकारी अत्यावश्यक है। किसानों को वर्ष भर में होने वाले ऋतु-परिवर्तनों की जानकारी देने के लिए कैलेंडर की ज़रूरत पड़ती है। निश्चित तिथियों पर धार्मिक पर्व व उत्सव मनाने पड़ते हैं, ये प्रायः कृषिकर्म से ही जुड़े होते हैं, परंतु इनके लिए और भी अधिक शुद्ध कैलेंडर (पंचांग) की आवश्यकता होती है। मगर एक व्यावहारिक कैलेंडर तैयार करना किसान के बस की बात नहीं है, क्योंकि इसके लिए लंबी अवधि तक लेखा-जोखा रखना आवश्यक होता है। यह काम कृषिकर्म से मुक्त पुरोहित-ज्योतिषी ही कर सकते थे। वर्ष ३६५.२४२२ दिनों का और चाँद्र मास २९.५३०५९ दिनों का स्वीकार किया गया था। अंतिम मान वास्तविक मान के लगभग बराबर है।
भारतीय कैलेंडर
सिंधु लिपि अभी तक पढ़ी नहीं गई है, इसलिए सिंधु सभ्यता (२५००-१८०० ई.पू.) के कैलेंडर के बारे में यकीन के साथ कुछ नहीं कहा जा सकता। सिंधु सभ्यता मुख्यतया कृषिकर्म पर आधारित रही है, इसलिए बहुत संभव है कि वहाँ एक मिला जुला सौर-चाँद्र कैलेंडर प्रचलित रहा हो।
ऋग्वेद के कतिपय उल्लेखों से जानकारी मिलती है कि उस समय (लगभग १५०० ई.पू.) सौर-चाँद्र कैलेंडर का प्रचलन था और अधिमास जोड़ने की व्यवस्था थी। परंतु १२ मासों के नामों का ऋग्वेद में उल्लेख नहीं है, न ही यह पता चलता है कि अधिमास को किस तरह जोड़ा जाता था। दिनों को नक्षत्रों से व्यक्त किया जाता था, यानी रात्रि को चंद्र जिस नक्षत्र में दिखाई देता था उसी के नाम से वह दिन जाना जाता था। बाद में तिथियाँ भारतीय पंचांग की मूलाधार बन गईं, किंतु ऋग्वेद में 'तिथि' का कहीं कोई ज़िक्र नहीं है। ऋग्वैदिक काल में वर्ष संभवतः ३६६ दिनों का माना गया था। चाँद्र वर्ष (३५४ दिन) में १२ दिन जोड़ कर ३६६ दिनों का सौर वर्ष बनाया गया होगा। ऋग्वेद में 'वर्ष' शब्द नहीं है, मगर शरद, हेमंत आदि शब्दों का काफ़ी प्रयोग हुआ है।यजुर्वेद में १२ महीनों के और २७ नक्षत्रों तथा उनके देवताओं के नाम दिए गए हैं। साथ ही, सूर्य के उत्तरायण तथा दक्षिणायन गमन के भी उल्लेख है। यजुर्वेद में बारह महीनों के नाम मधु, माधव, शुक्र, नभ, तपस आदि है, जो सायन वर्ष के मास जान पड़ते हैं। हमारे देश में चैत्र, वैशाख आदि चाँद्र मास बाद में अस्तित्व में आए। यजुर्वेद में ही पहली बार 'तिथि' शब्द देखने को मिलता है, परंतु वहाँ इसका अर्थ आज से भिन्न रहा है। बाद के सिद्धांत ग्रंथों में 'तिथि' की परिभाषा हैः जब चंद्र औऱ सूर्य के बीच १२ डिग्री का अंतर बढ़ जाता है, तो एक तिथि पूर्ण होती है।हमारे देश में ज्योतिष का जो सबसे प्राचीन स्वतंत्र ग्रंथ उपलब्ध हुआ है वह है, महात्मा लगध का 'वेदांग-ज्योतिष' (लगभग ८०० ई. पू.)। इस ग्रंथ में ५ वर्ष का युग चुना गया है और बताया गया हैः (१) एक युग में १८३० सावन दिन और १८६० तिथियाँ होती हैं, (२) युग में ६२ चाँद्र मास और ६० सौर मास होते हैं, (३) युग में ३० तिथियों का क्षय होता है, (४) युग में ६७ नक्षत्र मास होते हैं, यानी एक युग में चंद्रमा ६७×२७ = १८०९ नक्षत्रों के चक्कर लगाता है, और (५) जब चंद्र व सूर्य एक साथ धनिष्ठा नक्षत्र में रहते हैं, तब दक्षिण अयनांत (मकर संक्रांति) से वर्ष की शुरुआत होती है।
१८३० सावन दिनों को ६२ चाँद्र मास से भाग देने पर पता चलता है कि वेदांग-ज्योतिष के अनुसार एक चंद्र मास में २९.५१६ दिन होते हैं (वास्तविक संख्या २९.५३१ दिन हैं) वर्ष ३६६ सावन दिनों का माना गया है। वेदांग-ज्योतिष में बताया गया है कि किन तिथियों का क्षय होता है। भारतीय पद्धति में तिथियाँ क्रमानुसार नहीं आतीं, अक्सर एक तिथि छूट जाती है। छूटी हुई तिथि को ही क्षय तिथि कहते हैं। जैसे, तृतीया के बाद अगली तिथि चतुर्थी न होकर पंचमी हो सकती है। तब कहा जाएगा कि चतुर्थी का क्षय हो गया। तिथियों के क्षय होने का कारण यह है कि एक चाँद्र मास के लगभग २९ १/२ दिन होते हैं और तिथियाँ ३० होती हैं। इसलिए लगभग दो महीनों में औसतन एक तिथि का क्षय होता है।
ईसा पूर्व चौथा सदी से बेबीलोन (खल्दिया) और यूनानियों के साथ भारत के संबंध बढ़ते गए। तब से लेकर लगभग ४०० ई. तक भारत में बेबीलोनी और यूनानी ज्योतिष की कई बातों को अपनाया गया। फलतः भारत में ज्योतिष के एक नए युग का आरंभ हुआ, जिसे 'सिद्धांत युग' कहा जाता है। यह युग लगभग १२०० ई तक चला। सिद्धांत युग का प्रथम महत्वपूर्ण ग्रंथ आर्यभेट (प्रथम) द्वारा रचित आर्यभटीय (४९९ ई.) है। उसके पहले रचे गए पाँच सिद्धांतों की रूपरेखा वराहमिहिर (ईसा की छठी सदी) ने अपने पंचसिद्धांतिका (५०५ ई.) ग्रंथ में प्रस्तुत की है।वेदांग-ज्योतिष के बाद सिद्धांत युग के आरंभ तक भारतीय कैलेंडर की कैसी व्यवस्था रही है, इसके बारे में ठोस जानकारी नहीं मिलती। वेदांग-ज्योतिष में १२ राशियों और सात वारों का उल्लेख नहीं है, महाभारत और रामायण में भी नहीं है। दरअसल, महाभारत, रामायण और जैनों के सूर्य प्रज्ञप्ति जैसे ग्रंथों का कैलेंडर काफ़ी हद तक वेदांग-ज्योतिष के कैलेंडर से मिलता-जुलता रहा है। इन सब में युग ५ वर्षों का और वर्ष ३६६ दिनों का ही माना गया है। पता चलता है कि सम्राट अशोक के समय (लगभग २५० ई पू.) में अभी वेदांग-ज्योतिष का ही कैलेंडर प्रचलित था। अशोक के अभिलेखों में उसके शासन-वर्षों का उल्लेख है, न कि किसी संवत का। शुंगों और सातवाहनों ने भी किसी संवत का इस्तेमाल नहीं किया। मगर पश्चिमी एशिया में सेल्यूकी संवत (आरंभ ३१२ ई.पू. से) का प्रचलन था।
वेदांग-ज्योतिष का कैलेंडर सिद्धांत-ग्रंथों के कैलेंडर में किस तरह विकसित होता गया, इसकी कुछ जानकारी वराहमिहिर द्वारा वर्णित पाँच सिद्धांतों (सूर्य-सिद्धांत, पितामह-सिद्धांत, रोमक-सिद्धांत, पुलिश-सिद्धांत और वसिष्ठ सिद्धांत) में मिल जाती है। इनमें से कुछ में युग पाँच वर्षों का ही माना गया। मगर सिद्धांत ग्रंथों में युग अब लंबे होते गए। कलियुग के आरंभ (३१०२ ई. पू.) से गणनाएँ करने की परिपाटी चली। कलियुग के आरंभ से गणना की जाती है, तो तब से आज तक के दिनों की संख्या, जिसे ज्योतिष में 'अहर्गण' कहते हैं, बहुत ही बड़ी बात हो जाती है। महायुग ४३२००० वर्षों का और कल्प (ब्रह्मा का एक दिन) हमारे १५,७७,९१,७८,२८,००० दिनों के बराबर माना गया! गणना की कठिनाइयाँ स्पष्ट हैं। इसलिए मार्ग खोजा गयाः इष्ट समय के काफ़ी नज़दीक के समय का चुनाव कर के तभी से गणना की जाए। इस काम के लिए हमारे देश में बहुत सारे करण-ग्रंथ लिखे गए, जिनका पंचांग बनाने के लिए उपयोग होता रहा है।वराहमिहिर ने जिस सूर्य-सिद्धांत की जानकारी दी है वह आज उपलब्ध नहीं है, मगर उसका संशोधित संस्करण उपलब्ध है। वस्तुतः पिछले क़रीब एक हज़ार वर्षों में यही संशोधित सूर्य-सिद्धांत हमारे देश में सबसे अधिक मान्य रहा है और देश के अधिकांश पंचांग इसी के अनुसार बनते रहे हैं। चूँकि चाँद्र सौर कैलेंडर में सौर वर्ष के मान का विशेष महत्व है, इसलिए जानना उपयोगी होगा कि सिद्धांत काल में वर्षमान क्या रहे हैं-वराहमिहिर का सूर्य-सिद्धांत = ३६५.२५८७५ दिनवर्तमान संशोधित सूर्य-सिद्धांत = ३६५.२५८७५६ दिनवास्तविक सायन वर्ष = ३६५.२४२१९६ दिन
सूर्य सिद्धांत का वर्षमान वास्तविक सायन वर्षमान से ०.०१६५६०दिन अधिक हैं। चूँकि सूर्य-सिद्धांत के इस वर्षमान का परंपरागत पंचांग बनाने में आज भी इस्तेमाल होता है, इसलिए हर साल वर्ष का आरंभ ०.०१६५६दिन आगे बढ़ जाता है। इस तरह, पिछले १४०० वर्षों में वर्ष का आरंभ २३.२ दिन आगे बढ़ गया है। भारतीय पंचांग में संशोधन करना परमावश्यक हो गया था।भारतीय कैलेंडर को 'पंचांग' इसलिए कहा जाता है, क्योंकि इसमें मुख्यतया पाँच बातों की जानकारी रहती हैः (१) तिथि, जो दिनांक यानी तारीख का काम करती है, (२) वारः सोमवार, मंगलवार आदि सात वार, (३) नक्षत्र, जो बताता है कि चंद्रमा तारों के किस समूह में है, (४) योग, जो बताता है कि सूर्य और चंद्रमा के भोगांशों का योग क्या है, और (५) करण, जो तिथि का आधा होता है।
पंचांग की यह प्रणाली सिद्धांत युग में काफ़ी बाद में अस्तित्व में आई है। यह इसी से स्पष्ट है कि सात वार भारतीय मूल के नहीं हैं। वैदिक साहित्य, वेदांग ज्योतिष, रामायण और महाभारत में सात वारों का उल्लेख नहीं है। जिस भारतीय अभिलेख में पहली बार एक 'वार' का उल्लेख हुआ है वह बुधगुप्त के समय का एरण (मध्य प्रदेश) से प्राप्त ४८४ ई. का है वहाँ तिथि (आषाढ़ शुक्ल द्वादशी) और वार (सुरगुरु दिवस, यानी बृहस्पतिवार) दोनों का उल्लेख है। राशियों की तरह वार भी बेबीलोनी मूल के हैं।
ऐतिहासिक घटनाओं के तिथि-निर्धारण के लिए कैलेंडर में किसी एक संवत का आरंभ-बिंदु निश्चित करना होता है। अतीत या वर्तमान के सभी कैलेंडरों की शुरुआत किसी न किसी घटना - वास्तविक या काल्पनिक - से ही मानी गई हैं। ऐसी अधिकांश घटनाएँ मिथक, इतिहास अथवा धर्मकथा से संबंधित होती है। हमारे देश में मौर्य और सातवाहन काल में शासन-वर्षों का ही इस्तेमाल होता था। तिथि-निर्धारण के लिए संवतों का प्रयोग कुषाण और शक शासकों के समय से होने लगा है। शक, मालव, गुप्त, हर्ष आदि कई संवतों का संबंध मूलतः ऐतिहासिक घटनाओं से रहा है। कलियुग संवत, जिसका आरंभ ३१०२ ई.पू. से माना जाता है, हमारे ज्योतिषियों ने आंतर-गणनाएँ करके ईसा की आरंभिक सदियों में बनाया है (देखिए प्रमुख संवतों की सारणी)।
राष्ट्रीय पंचांग
भारत के अलग-अलग भागों में अलग-अलग सिद्धांतों के अनुसार बहुत-से पंचांग बनते रहे हैं, आज भी बनते हैं।इन पंचांगों में कई तरह की त्रुटियाँ रही हैं। इसलिए डॉ. मेघनाद साहा (१८९३-१९५६) की अध्यक्षता में गठित विद्वानों की एक समिति ने एक संशोधित राष्ट्रीय पंचांग तैयार कर दिया, जो २२ मार्च १९५७ (१ चैत्र १८७९ शक) से लागू हो गया। इस संशोधित राष्ट्रीय पंचांग के अनुसार-(१) वर्ष ३६५.२४२२ दिनों का होगा। इसलिए महीने ऋतुओं के अनुसार स्थिर रहेंगे।(२) भारतीय वर्ष की आरंभ वसंत-विषुव, यानी २२ मार्च (लीप यानी लोंद वर्ष में २१ मार्च) से होगा।(३) वर्ष के दूसरे से लेकर छठे सौर महीनों में ३१ दिन रहेंगे, शेष में ३० दिन। लीप-वर्षों में प्रथम चैत्र माह में ३१ दिन रहेंगे। भारतीय प्रथा में लीप-वर्ष उसी वर्ष होगा जब ग्रेगोरी कैलेंडर में लीप-वर्ष होगा।(४) दिन का आरंभ अर्धरात्रि से माना जाएगा।(५) राष्ट्रीय पंचांग उज्जैन के अक्षांश (२३ डिग्री ११') और ग्रिनिच के ५ घंटा ३० मिनट पूर्वी देशांतर (८२ डिग्री ३०') के लिए बना करेगा।(६) चैत्र, वैशाख आदि महीनों का और शक संवत का प्रयोग होगा।
इस राष्ट्रीय पंचांग का कुछ ही सरकारी क्षेत्रों में उपयोग होता है, रस्मी तौर पर। अब लौकिक जीवन में अधिकतर ग्रेगोरी कैलेंडर का ही इस्तेमाल होता है।ईसाई अथवा ग्रेगोरी भले ही लगभग सार्वभौमिक बन गया हो, मगर व्यावहारिक तौर पर इसमें अनेक त्रुटियाँ हैं। महीने के दिन २८ से ३१ तक बदलते हैं, चौथाई वर्ष में ९- से ९२ दिन होते हैं, और वर्ष के दो हिस्सों में १८१ व १८४ दिन होते हैं। महीनों में सप्ताह के दिन भी स्थिर नहीं रहते, महीने और वर्ष का आरंभ सप्ताह के किसी भी दिन से हो सकता है। इससे नागरिक और आर्थिक जीवन में बड़ी कठिनाइयाँ पैदा होती हैं। महीने में काम करने के दिनों की संख्या भी २४ से २७ तक बदलती रहती है। इससे सांख्यिकीय विश्लेषण और वित्तीय जमा-खर्च तैयार करने में बड़ी दिक्कतें होती हैं। मौजूदा ग्रेगोरी कैलेंडर में सुधार अत्यावश्यक है।
पिछले करीब डेढ़ सौ वर्षों से एक सर्वमान्य 'विश्व कैलेंडर' की स्थापना के प्रयास किए जा रहे हैं। 'विश्व कैलेंडर परिषद' ने ऐसा एक कैलेंडर सन १९५६ में संयुक्त राष्ट्र संघ के विचारार्थ पेश किया था, परंतु कुछ देशों के विरोध के कारण उसे स्वीकृति नहीं मिल पाई। आशा रखनी चाहिए कि भविष्य में सारी दुनिया में एक 'विश्व कैलेंडर' लागू हो जाएगा।
गुणाकर मुले

गुणाकर मुले जी की पुस्तक ‘ब्रह्मांड परिचय’ से साभार

अपने अस्तित्व के उषःकाल से ही मानव सोचता आया है-आकाश के ये टिमटिमाते दीप क्या हैं? क्यों चमकते हैं ये ? हमसे कितनी दूर हैं ये ? सूरज इतना तेज क्यों चमकता है ? कौन-सा ईंधन जलता है उसमें ? आकाश का विस्तार कहाँ तक है ? कितना बड़ा है ब्रह्माण्ड ? कैसे हुई ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति और कैसे होगा इसके अन्त ?
क्या ब्रह्मांड के अन्य पिण्डों पर भी धरती-जैसे जीव-जगत का अस्तित्व है इस विशाल विश्व में क्या हमारे कोई हमजोली भी हैं, या कि सिर्फ हम ही हम हैं?इन सवालों के उत्तर प्राप्त करने के लिए सहस्राब्दियों तक आकाश के ग्रह-नक्षत्रों की गति-स्थिति का अध्ययन किया जाता रहा। विश्व के नए-नए मॉडल प्रस्तुत किये गए। परंतु विश्व की संरचना और इसके विविध पिंडो के भौतिक गुणधर्मों के बारे में कुछ सही जानकारी हमें पिछले करीब दो सौ वर्षों से मिलने लगी है। इसमें भी सबसे ज्यादा जानकारी पिछली सदी के आरम्भ से और फिर अंतरिक्षयात्रा का युग शुरू होने के बाद मिलने लगी है। खगोल-विज्ञान हालाँकि सबसे पुराना विज्ञान है, परन्तु ब्रह्माण्ड की संरचना और इसके विस्तार के बारे में सही सूचनाएँ पिछले करीब तीन सौ वर्षों में प्राप्त हुई हैं।
आदिम मानव के लिए भी काल-ज्ञान व दिशा-ज्ञान भौतिक आवश्यकताएं थीं, और यह ज्ञान आकाश के पिंडों की गतियों का सतत अवलोकन करने से ही प्राप्त हो सकता था। सहस्राब्दियों के संचित अनुभव से प्राचीन मानव ने जान लिया था कि शिकार, फल-मूल या अनाज-जैसी उसकी भोजन सामग्री का संबंध ऋतुओं से है और ऋतुचक्र का ज्ञान सूर्य तथा नक्षत्रों की गतियों का अवलोकन करने से होता है।प्राचीन मानव ने सोचा : अवश्य ही उसकी भोजन- सामग्री–वन्य पशु व वनस्पति–आकाशस्थ पिंडों की गति स्थिति से ‘प्रभावित’ है। उसने आकाश के इस ‘प्रभाव’ को अपने ऊपर भी ओढ़ लिया। इस तरह, फलित-ज्योतिष का व्यवसाय अस्तित्व में आया। ताम्रयुगीन सभ्यताओं में पुरोहित की ज्योतिषी थे और मंदिर वेधशालाएं। ये पुरोहित-ज्योतिषी अज्ञेय प्राकृतिक घटनाओं के प्रतीक देवी-देवताओं को प्रतिनिधित्व करते थे और राजा एवं प्रजा को समय की सूचनाएं भी देते थे, इसलिए तत्कालीन समाज में इनका बड़ा सम्मान था। सूर्य और चन्द्र की गतियों का निरंतर अध्ययन करते रहने से आगे चलकर जब येपुरोहित-ज्योतिषी ग्रहणों के बारे में भी भविष्यवाणी करने में समर्थ हुए, तो इनका सम्मान व सामर्थ्य और भी अधिक बढ़ा। लोगों ने सोचा–ये पुरोहित-ज्योतिषी कालज्ञान तथा शुभ मुहूर्तों के प्रवक्ता हैं, ग्रहणों-जैसी भयावह घटनाओं के भविष्यवक्ता हैं, इसलिए ये मानव-जीवन की अगामी घटनाओं के बारे में भी भविष्यवाणी कर सकते हैं।इस प्रकार पुरोहित-ज्योतिषी के अंतर्गत ही फलित-ज्योतिषी ने जन्म लिया। वैदिक काल में अत्रि कुल के पुरोहति-ज्योतिष ग्रहणों का लेखा-जोखा रखते थे और इनके बारे में भविष्यवाणी करते थे। उधर हम्मुराबी-कालीन (ईसा-पूर्व अठारहवीं सदी) बेबीलोन के पुरोहित-ज्योतिषी, न केवल ग्रहणों के भविष्यवक्ता थे, बल्कि राजा और राज्य का भी भविष्य बताने लग गए थे। सम्मान व सम्पत्ति के लोभ वश इन पुरोहित-ज्योतिषियों ने ज्योतिष-ज्ञान को रहस्य का जामा पहनाया और इसे सदियों तक अपने ही वर्ग तक सीमित रखा।बदलती सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक परिस्थितियों के अनुसार काल्पनिक देवी-देवताओं के कृत्रिम स्वरूपों में रद्दोबदल करते जाने में कोई कठिनाई नहीं थी। हुआ भी ऐसा ही है। किंतु आकाश में पिंडों की नियमित गतियों में परिवर्तन करना आदमी के बस की बात नहीं था। मुख्यतः इसी भेद के कारण, बाद में, भारत के संदर्भ में ईसा की पहली सदी के आसपास से, पुरोहित-ज्योतिष का पेशा दो वर्गों में बंट गया–पुरोहित और ज्योतिषी। लेकिन अभी गणित-ज्योतिषी ही फलित-ज्योतिषी भी था। यह भी देखने को मिलता है कि कुछ गणितज्ञों का झुकाव गणित-ज्योतिष की ओर अधिक होता था और कुछ का फलित-ज्योतिष की ओर। आर्यभट (जन्म 476 ई.) को हम एक महान गणितज्ञ ज्योतिषी मानते हैं, तो वराहमिहिर (ईसा की छठी सदी) के ग्रंथ आज भी फलित-ज्योतिषियों के लिए शुभ-अशुभ विद्या के अक्षय भण्डार हैं।खगोल-विज्ञान या ज्योतिर्विज्ञान के विकासक्रम (देखिए परिशिष्ट 1) का अध्ययन करने से स्पष्ट होता है कि जब तक आकाश के पिंडों का अवलोकन उनकी प्रत्यक्ष गतियों एवं स्थितियों तक सीमित रहा, तभी तक गणित-ज्योतिष जैसे-तैसे फलित-ज्योतिष का भी भार वहन करता रहा। परंतु जब भौतिक-विज्ञान ने जन्म लिया, ग्रह-नक्षत्रों के भौतिक गुणधर्मों की खोजबीन शुरू हुई, खगोल भौतिकी की नींव पड़ी, तब अज्ञान तथा अंधविश्वास पर आधारित फलित-ज्योतिष के सामने दो ही रास्ते थे–अपने को मिटा दे या अपना पेशा अलग कर ले। फलित-ज्योतिष मिटा नहीं। यूरोप में 1600 ई. के आसपास से ज्योतिर्विज्ञान ने अपने साथ चिपके हुए सदियों पुराने इस अंधविश्वास को त्याग दिया और स्वयं तेजी से आगे बढ़ने लगा। ग्रहगतियों के तीन प्रसिद्ध नियमों की खोज करने वाले योहानेस केपलर (1571-1630 ई.) जन्म-कुंडलियां बनाने के लिए विवश थे परंतु 1609-10 ई. में दूरबीन से पहली बार आकाश का अवलोकन करने वाले महान गैलीलियों (1564-1642 ई.) ने ऐसी किसी विवशता के सामने आत्मसमर्पण नहीं किया। जिस साल गैलीलियो की मृत्यु हुई, उसी साल आइजेक न्यूटन (1642-1727 ई.) का जन्म हुआ। न्यूटन ने हमें नया गणित दिया, नए किस्म की दूरबीन दी और दिया गुरुत्वाकर्षण का महान सिद्धांत।अब खगोलविद शहरों के कोलाहल तथा विद्युत-प्रकाश की जगमगाहट से दूर चले गए हैं। स्वच्छ वायुमंडल से व्याप्त पर्वत-शिखरों पर स्थापित आधुनिक यंत्र-उपकरणों से युक्त वेधशालाएं उनकी कर्मभूमि है। आज के ज्योतिर्विद करोड़ों-अरबों प्रकाश-वर्ष दूर की ज्योतियों के विकिरण-प्रकाश-किरणें, रेडियों-तरंगें, एक्स-किरणें, गामा-किरणें, इत्यादि-को यंत्रोपकरणों से ग्रहण करते हैं, नए ज्ञान के आधार पर नए-नए सिद्धांतों का स्थापनाएं करते हैं। अतिविशाल-जगत का अध्ययन अतिसूक्ष्म-जगत को समझने में सहायक हो रहा है और अतिसूक्ष्म-जगत का अध्ययन अतिविशाल-जगत को समझने में। आज के वैज्ञानिक इन दोनों जगतों की अतल गहराइयों की खोजबीन में जुटे हुए हैं, वे इन दोनों में संगति खोजने में प्रयत्नशील हैं। और, फलित-ज्योतिषी ? वह तो अब भी पुरानी आधी-अधूरी और अवैज्ञानिक जानकारी से ही चिपका हुआ है। अब तो फलित-ज्योतिषी टी.वी. चैनलों पर भी छा गए हैं। यह अंधविश्वास अनेक पत्र-पत्रिकाओं के पृष्ठों पर नियमित रूप से छपता है। हमारे देश में आज भी शासन के अनेक सूत्रधार प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से फलित-ज्योतिष के प्रश्रयदाता हैं। लेकिन अब इस स्थिति का बदलना अवश्यंभावी है। हमारे देखते-देखते खगोल-विज्ञान के विकास को एक नई दिशा मिली है और एक नये युग की शुरूआत हुई है। अब तक आकाश में पिंडों के भौतिक गुणधर्मों की हमारी जानकारी पृथ्वी पर पहुंचने वाले अनेक विकिरण विश्लेषण पर आधारित थी। लेकिन अब स्वयं मानव या उसके द्वारा निर्मित यंत्रोपकरण आकाश के पिंडों तक पहुंचने में प्रयत्नशील हैं। जब से अंतरिक्षयात्रा के युग का उद्घाटन हुआ है, तब से जनमानस में आकाश के पिंडों के बारे में अधिक कुतूहल पैदा हो गया है। आम जनता ग्रह-नक्षत्रों के बारे में अधिकाधिक वैज्ञानिक बातें जानने के लिए उत्सुक है।इस ग्रंथ में मैंने आकाशगंगा, सूर्य, सौरमंडल के ग्रह-उपग्रह-क्षुद्रग्रह, बौने ग्रह, धूमकेतु, उल्कापिंड और आकाश के प्रमुख तारों के बारे में अद्यतन जानकारी प्रस्तुत की है- भरपूर चित्रों सहित। अंतिम दो प्रकरणों के ब्रह्मांड आदि-अंत और ब्रह्मांड में जीवन की तलाश का विवेचन है। परिशिष्ठों में खगोल-विज्ञान का संक्षिप्त विकासक्रम, खगोल-विज्ञान से संबंधित आंकड़े एवं स्थिरांक, तारा-मानचित्र, खगोल-विज्ञान की विशिष्ट शब्दावली तथा पारिभाषिक शब्दावली का समावेश है।24 अगस्त, 2006 को प्राग में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय खगोल-विज्ञान संघ के अधिवेशन में ‘ग्रह’ की एक नई परिभाषा प्रस्तुत की गई। इसके अनुसार, अब सौर मंडल में ‘प्रधान ग्रहों’ (major planets) की संख्या नौ से घटकर आठ रह गई है; प्लूटो और उसके परे नए खोजे गए पिंड एरीस को ‘बौना ग्रह’ (dwarf planet) का दर्जा दिया गया है।
गुणाकर मुळे

सोमवार, 5 अक्तूबर 2009

‘मैं नास्तिक हूं’

‘आस्थावान वैज्ञानिकों’ पर मेरे मित्र एस्ट्रोनॉमर बलदेवराज दावर की प्रतिक्रिया...

सीना तानकर और भुजा उठाकर कहो – कि मैं नास्तिक हूं
ऊंची से ऊंची जगह पर खड़े होकर कहो – कि मैं नास्तिक हूं
सारी दुनिया को सुनाकर कहो – कि मैं नास्तिक हूं
क्योंकि नास्तिक एक सच्चा और खरा इन्सान होता है
वो अपने मां-बाप की संतान होता है
वो कहीं आसमान से नहीं टपका था
वो कभी शून्य से नहीं प्रकटा था
भूत-प्रेत की तरह वो कहीं से आया नहीं था
वो अपने मां-बाप के शरीर से उगा था, किसी ईश्वर की कृपा से नहीं
किसी देवी-देवता की दया से नहीं
नास्तिक जीने के लिए पैदा होता है, और किसी मकसद से नहीं
अपने सहज स्वभाव से ही, वो जीभरकर जीना चाहता है
वो भरपूर जीना चाहता है, हर हाल में जीना चाहता है
इसीलिए तो वो हमेशा अपने को बचाता है, अपनी रक्षा करता है
और अपनी मौत को टालने का उपाय करता है
मरने के बाद भी वो अमर रहता है, और संतानों के रूप में खुद को अमर कर लेता है
वो मुक्ति नहीं चाहता, निर्वाण नहीं चाहता, जन्म-मरण के बंधनों से आजादी नहीं चाहता
अपने माता-पिता को वो सच्चा माता-पिता मानता है
उनका आदर करता है, सम्मान करता है, सेवा करता है
वो अपने बच्चों को प्यार करता है, पालन करता है, उनकी रक्षा करता है
वो अपने भाई-बहनों, सगे-संबंधियों का सगा होता है, उनको सहारा देता है-उनका सहारा लेता है
वो उनसे सच्चा इश्क करता है....लव करता है
वो जानता है कि इस दुनिया में वो अकेला नहीं, अलग नहीं और न ही स्वतंत्र है
यहां हर कोई-हर किसी पर निर्भर है...हर कोई-हर किसी का सहारा है
इसीलिए वो खुद को मानव समाज का सहज सदस्य मानता है...प्राणीजगत का अभिन्न अंश मानता है
उनसे विमुख होकर वो सीधे ईश्वर से नाता नहीं जोड़ता...नो डायरेक्ट हॉट लाइन फॉर हिम
भक्त लोग खुद को पापी-खल और कामी मानते हुए भी, और बताते हुए भी उम्मीद करते हैं कि ईश्वर उनके मुंह से अपनी प्रशंसा सुनकर खुश हो जाएगा
वो उनसे उपहार औप चढ़ावे लेकर प्रसन्न हो जाएगा...और उनकी पुकार सुनकर पसीज जाएगा
और उन्हें क्षमा कर देगा
बेचारे नास्तिक को ये सुविधा प्राप्त नहीं..ये दरवाजा उसपर खुला नहीं
इसलिए वो पहले ही पापकर्म करने से डरता है..और आचरण को साफ-सुथरा रखता है
वो ईश्वर को नहीं मानता-भगवान को नहीं मानता...इसीलिए वो हर तरह के ऐल-गैल और आलतू-फालतू ढकोसलों को भी नहीं मानता
देवी-देवताओं, जिन्न-भूतों, अगले-पिछले जन्मों, हाथ की लकीरों, स्वर्ग-नर्क की कहानियों, पीर-फकीरों की कब्रों, पहुंचे हुए महापुरुषों की समाधियों, नाम-ध्यान, भजन-कीर्तन, यज्ञ-हवन, पूजा-पाठ, व्रत-उपवास, अरदास-निमाज, जादू-टोनों, गुरुमंत्रों, अवतारों-पैगंबरों, चमत्कारों-सिद्धियों, प्राचीन काल की उपलब्धियों, वगैरा-वगैरा और इत्यादि-इत्यादि को नहीं मानता
नास्तिक इस तरह का बोझा बगैर सोचे-समझे-परखे नहीं ढोता
वो अपने परिवार और समाज में रचा-बसा खुश रहता है

Baldev Raj Dawar, E 610, Mayur Vihar II, Delhi–91 Mob. 9891552685
http://brdawar.blogspot.com

धार्मिक वैज्ञानिक !

भारतीय वैज्ञानिक उपलब्धियां हासिल कर रहे हैं। लेकिन जब भगवान की बात आती है तो प्रत्येक 4 में से एक वैज्ञानिक 'सवोर्च्च सत्ता' के अस्तित्व को अधिक विश्वास के साथ स्वीकार करते हैं। देश की 130 यूनिवर्सिटी और रिसर्च संस्थानों के 1100 वैज्ञानिकों पर किए गए सवेर्क्षण में यह बात सामने आई है। सर्वे के मुताबिक, इनमें से 29 फीसदी 'कर्म' के दर्शन में विश्वास रखते हैं तो 26 फीसदी मृत्यु के बाद जीवन के सिद्धांत में भरोसा जताते हैं। वहीं दूसरी ओर 7 फीसदी रिसर्चर भूतों के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। इंस्टिट्यूट फॉर द स्टडी आफ सेक्युलरिज्मम इन सोसायटी एंड कल्चर औऱ हैदराबाद स्थित सेंटर फॉर इन्क्वायरी द्वारा किए गए सर्वे में 64 फीसदी वैज्ञानिकों ने कहा कि वे अपने नैतिक तथा धामिर्क मूल्यों के चलते जैविक हथियारों का डिजाइन तैयार नहीं करेंगे। जबकि 54 फीसदी का कहना था कि वे इन्हीं कारणों के चलते परमाणु हथियारों पर काम नहीं करेंगे। 41 फीसदी अंतरिक्ष वैज्ञानिक अंतरिक्ष परियोजनाओं के सफल संचालन के लिए भगवान का आर्शीवाद जरूरी मानते हैं। 2005 में अंतरिक्ष वैज्ञानिकों ने रॉकेट तथा उपग्रह के प्रक्षेपण से पूर्व भगवान वेंकटेश्वर का आर्शीवाद हासिल करने के लिए तिरूपति की यात्रा की थी। सर्वेक्षण के दायरे में शामिल कुल वैज्ञानिकों में से एक चौथाई भगवान में पक्की आस्था रखने वाले थे। जबकि अन्य एक चौथाई भगवान के अस्तित्व के बारे में संशयवादी विचार रखते थे।

शिक्षक सतीश धवन

जन्मदिवस 25 सितंबर पर विशेष
देश के अंतरिक्ष कार्यक्रम को नयी ऊंचाई पर पहुंचाने में अहम भूमिका निभाने वाले महान वैज्ञानिक प्रो.सतीश धवन एक बेहतरीन इंसान और कुशल शिक्षक भी थे, जिन्हें भारतीय प्रतिभाओं पर अपार भरोसा था।भारतीय प्रतिभाओं में उनके विश्वास को देखते हुए उनके साथ काम करने वाले लोगों तथा उनके छात्रों ने कठित मेहनत की ताकि उनकी धारणा की पुष्टि हो सके। सतीश धवन को विक्रम साराभाई के बाद देश के अंतरिक्ष कार्यक्रम की जिम्मेदारी सौंपी गयी था और वह इसरो के अध्यक्ष नियुक्त किए गए।विक्रम साराभाई ने ऐसे भारत की परिकल्पना की थी जो उपग्रहों के निर्माण एवं प्रक्षेपण में सक्षम हो और नयी प्रौद्योगिकी सहित अंतरिक्ष कार्यक्रम का पूरा फायदा उठा सके। सतीश धवन ने न सिर्फ उनकी परिकल्पना को साकार किया बल्कि भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम को नयी ऊंचाई देते हुए भारत को दुनिया के गिने-चुने देशों की सूची में शामिल कर दिया। वह एक बेहतरीन इंसान भी थे जिन्होंने कई लोगों को बेहतर प्रदर्शन करने के लिए प्रेरित किया। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान कार्यक्रम (इसरो) की वेबसाइट के अनुसार राकेट वैज्ञानिक सतीश धवन ने संस्था के अध्यक्ष के रूप में अपूर्व योगदान किया और उनके प्रयासों से भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम में असाधारण प्रगति हुई तथा कई बेहतरीन उपलब्धियां हासिल हुई। वेबसाइट के अनुसार अंतरिक्ष कार्यक्रम के प्रमुख रहने के दौरान ही उन्होंने ‘बाउंड्री लेयर रिसर्च' की दिशा में अहम योगदान किया, जिसका जिक्र दर्पन स्लिचटिंग की पुस्तक बाउंड्री लेयर थ्योरी में किया गया है।सतीश धवन इंडियन इंस्टीट्यूट आफ साइंस, बेंगलूर के लोकप्रिय प्राध्यापक थे और उन्हें इस संस्थान में पहला सुपरसोनिक विंड टनेल स्थापित करने का श्रेय है। उनके प्रयासों से संचार उपग्रह इंसैट, दूरसंवेदी उपग्रह आईआरएस और ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान पीएसएलवी का सपना साकार हो सका और भारत चुनिंदा देशों की कतार में शामिल हो गया। श्रीनगर में 25 सितंबर 1920 को जन्मे सतीश धवन ने इंडियन इंस्टीट्यूट आफ साइंस में कई सकारात्मक बदलाव किए। उन्होंने संस्थान में अपने देश के अलावा विदेशों से भी युवा प्रतिभाशाली फैकल्टी सदस्यों को शामिल किया। उन्होंने कई नए विभाग भी शुरू किए और छात्रों को विविध क्षेत्रों में शोध के लिए प्रेरित किया। तीन जनवरी 2002 को उनके निधन के बाद श्रीहरिकोटा स्थित उपग्रह प्रक्षेपण केंद्र का नाम बदलकर प्रो.सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र कर दिया गया। उनके निधन पर तत्कालीन राष्ट्रपति के आर नारायणन ने शोक व्यक्त करते हुए कहा था कि भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम के शानदार विकास और उसकी उंचाई का काफी श्रेय प्रो.सतीश धवन के दूरदृष्टिपूर्ण नेतृत्व को जाता है।

‘दो आदिम समूहों की मिलीजुली देन हैं भारतीय’

भारतीयों के मानव विज्ञान के इतिहास में अपने तरह के पहले जीनोम विश्लेषण ने यह निष्कर्ष पेश किया है कि भारतीय आबादी दो आदिम समूहों की मिलीजुली देन है और इससे कुछ अनुवांशिकी विकृतियां होने की संभावना अधिक है।
भारतीय और अमेरिकी वैज्ञानिकों ने यह बताया है कि भारतीय आबादी अनुवांशिक रूप से एक विशाल आबादी नहीं है, बल्कि इसमें छोटी-छोटी अलग-अलग आबादियां शामिल हैं। हैदराबाद के सेंट्रर फॉर सेल्युलर एंड मॉलीक्युलर बायोलॉजी [सीसीएमबी] और अमेरिका के हार्वर्ड मेडिकल स्कूल के वैज्ञानिकों ने एक अध्ययन में ऐसा कहा है। इस अध्ययन के निष्कर्षों को माने तो भारतीयों में अनुवाशिंक बीमारियों के मामले शेष दुनिया की आबादी से अलग हैं। यह अध्ययन विज्ञान पत्रिका नेचर में प्रकाशित हुआ है।
वैज्ञानिकों ने यह अनुमान भी लगाया है कि भारत में एक जीन की विकृति संबंधी बीमारियां बहुतायत में होंगी, जिनका अनुवांशिकी आधार पर अध्ययन संभव होना चाहिए। वैज्ञानिकों के दल ने इस बारे में पुख्ता प्रमाण पाए हैं कि सभी भारतीय समूह दो अलग-अलग समूहों के मिलेजुले वंशज हैं। ये दो अलग-अलग समूह क्रमश: एनसेस्ट्रल नॉर्थ इंडियन्स [एएनआई] और एनसेस्ट्रल साउथ इंडियन्स [एएसआई] हैं।
एएनआई की अनुवांशिकी पश्चिम यूरेशियाई लोगों से मिलती-जुलती है। एएसआई की अनुवांशिकी बिल्कुल अलग है और दुनिया में कहीं भी ऐसी अनुवांशिकी नहीं मिलती। बहरहाल, दो अलग अलग लोगों के जीनोम के क्रम में केवल 0.1 फीसदी अंतर होता है, लेकिन यह नन्हा अंतर कई सूचनाओं का केंद्र होता है। इससे आधुनिक आबादी के ऐतिहासिक स्रोत को पुन: तैयार करने में मदद मिलने के संकेत पाए गए हैं।
अध्ययन में जीनों में भिन्नता के कारण कुछ बीमारियों का खतरा अत्यधिक होने का संकेत भी है। हाल के वर्षों में मानव जीनों में भिन्नता के क्रम ने दुनिया भर की आबादी की विविधता के बारे में नई जानकारी दी है। लेकिन अब तक भारत में ऐसे संकेत नहीं मिले थे।
सीसीएमबी के एक वरिष्ठ वैज्ञानिक कुमारस्वामी थंगराज ने बताया यह परिणाम मिला है कि सभी भारतीय समूह दो पूर्वज आबादियों की मिलीजुली देन हैं। यही बात परंपरागत जातियों और जनजातियों पर भी लागू होती है। उन्होंने कहा अलग- अलग भारतीय समूहों के पास उनके पूर्वजों के 40 से 80 फीसदी लक्षण विरासत में उस आबादी से मिले हैं जिसे हम एएनआई कहते हैं।
थंगराज ने कहा एएनआई पश्चिमी यूरेशियाई लोगों से संबंधित हैं। शेष लक्षण एएसआई से हैं जिनका संबंध भारत से बाहर किसी भी समूह से नहीं है। अध्ययन में अंडमान द्वीप समूह के मूलनिवासी लोगों को अपवाद बताया गया है। आज हिंद महासागर क्षेत्र के अंडमान द्वीप समूह में इन मूलनिवासियों की संख्या एक हजार से भी कम पर सिमटी हुई है। प्रतीत होता है कि ये लोग एएसआई से संबंधित हैं। इनमें एएनआई समूह के लक्षणों का अभाव है।
यह बात साबित हो चुकी है कि आधुनिक मानव की उत्पत्ति करीब 1.6 लाख साल पहले अफ्रीका में हुई थी और फिर उसकी आबादी दुनिया के विभिन्न हिस्सों में फैली। थंगराज ने कहा कि पूर्व के अनुसंधानों से पता चला था कि अंडमान की जनजातियां [ओंगो] पहले आधुनिक मानव हैं जो अफ्रीका से 65,000 साल से 70,000 साल पूर्व अन्यत्र गए। उन्होंने कहा कि करीब 5,000 साल पहले द्रविड़ों का आगमन हुआ और लोग इधर-उधर पहुंच कर छोटे-छोटे समुदाय बनाने लगे। यूरेशियाई लोगों के आगमन के बाद द्रविड़ों को दक्षिण की ओर जाना पड़ा।

अंटार्कटिक का गर्म मौसम

वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि एक करोड़ 57 लाख वर्ष पूर्व अंटार्कटिक पर मौसम बहुत गर्म था। यह वह समय था जब यहां पौधे और शैवाल बहुतायत में थे। वैज्ञानिकों का यह शोध जलवायु परिवर्तन को समझने की दिशा में अहम कदम माना जा रहा है।
एलएसयू म्यूजियम ऑफ नेचुरल साइंस के नेतृत्व में एक अंतरराष्ट्रीय दल ने जीवाश्मों के विश्लेषण के आधार पर अंटार्कटिक में गर्म मौसम होने के प्रमाण पाए हैं। उनका कहना है कि अंटार्कटिक में गर्म मौसम का यह दौर कुछ हजार वर्षों तक रहा।
वैज्ञानिकों ने सूक्ष्म जीवाश्मों के लिए जिस 1,107 मीटर तलछट का अवलोकन किया, उसमें दो मीटर मोटी परत में वैज्ञानिकों को बड़ी मात्रा में जीवाश्म मिले। वैज्ञानिकों के अनुसार, तलछट की दो मीटर मोटी पर्त में बहुतायत में जीवाश्म मिलना अंटार्कटिक की बर्फ की परत की तुलना में असामान्य है।
अंटार्कटिक की परत लगभग 3.5 करोड़ वर्ष पुरानी है। ठंडे तापमान की वजह से यहां जलीय पौधे और शैवाल भी नहीं हो सकते। दल की प्रमुख सोफी वार्नी ने कहा नए शोध से हमें जलवायु परिवर्तन को समझने में मदद मिलेगी। दूसरे शब्दों में कहें तो इससे पता चलेगा कि कैसे बाहरी तत्वों ने पृथ्वी के जलवायु तंत्र को प्रभावित किया।

रविवार, 20 सितंबर 2009

चंद्रमा पर पानी की मौजूदगी के पहले ठोस संकेत


चंद्रमा पर पहली बार पानी की मौजूदगी के ठोस संकेत सामने आए हैं...चंद्रमा पर हुई ये अब तक की सबसे बड़ी खोज है...और ये खोज की है चंद्रमा पर मौजूद नासा के स्पेसक्राफ्ट लुनर रिकॉनिसेंस ऑरबिटर ने। हमारे लिए ये खबर और भी खास है, क्योंकि नासा के इस स्पेसक्राफ्ट को.. चंद्रमा पर पानी की खोज हमारे चंद्रयान के साथ मिलकर करनी थी। चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर पानी खोजने के मिशन की शुरुआत नासा के लुनर ऑरबिटर ने चंद्रयान के साथ मिलकर की....लेकिन तभी चंद्रयान से रेडियो संपर्क टूट गया। चंद्रयान के बेकाबू हो जाने पर लुनर रिकॉनिसेंस ऑरबिटर ने चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव का स्कैनिंग का काम अकेले ही किया...और वहां उम्मीद से कहीं ज्यादा हाइड्रोजन की मौजूदगी खोज निकाली। हाइड्रोजन पानी का मुख्य तत्व है और नासा ने चंद्रमा पर हाइड्रोजन की खोज को चंद्रमा पर पानी की मौजूदगी का पहला ठोस संकेत माना है।
नासा के लुनर रिकॉनिसेंस ऑरबिटर ने चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर ऐसी जगहों की स्कैनिंग की है जो हमेशा अंधेरे में डूबे रहते हैं और जहां तापमान शून्य से 240 डिग्री नीचे रहता है। 1994 में चंद्रमा पर गए नासा के एक दूसरे मिशन क्लीमेंटाइन ने पहली बार ये संभावना जताई थी कि चंद्रमा के इन भीषण ठंड वाले इलाकों के गड्ढ़ों में पानी बर्फ के रूप में मौजूद हो सकता है। तब से चंद्रमा पर पानी की तलाश की जा रही थी, लेकिन वहां पानी की मौजूदगी साबित करने वाले प्रमाण हमें अब तक नहीं मिल सके थे।
चंद्रमा पर पानी के ठोस संकेत पहली बार मिल जाने के बाद अब दुनियाभर के वैज्ञानिकों की निगाहें 9 अक्टूबर को चंद्रमा पर होने वाले एक महत्वपूर्ण प्रयोग पर जा टिकी हैं। इस दिन नासा का स्पेसक्राफ्ट लुनर रिकॉनिसेंस ऑरबिटर साथ गए एक खास इम्पैक्टर की टक्कर चंद्रमा से करवाएगा। चंद्रमा से होने वाली इस टक्कर से उठने वाले धूल के गुबार में पानी के कणों की मौजूदगी तलाशी जाएगी।

शनिवार, 12 सितंबर 2009

95% नहीं 100% सफल रहा चंद्रयान

करीब 15 रोज पहले जब इसरो ने चंद्रयान-1 से रेडियो संपर्क टूटने और इस मिशन के खत्म हो जाने की बात कही तो दिल एकबारगी धक से रह गया। पहला सवाल मन में उठा कि अपनी तय मियाद से करीब सवा साल पहले ही चुक जाने वाला चंद्रयान देश, समाज और साइंस को बीते दस महीने में क्या ऐसा कुछ दे पाया होगा जिससे न केवल एक मिशन के तौर पर चंद्रयान-1 को सफल ठहराया जा सके, बल्कि चांद के रहस्यों में से कुछ की थाह भी ली जा सके। इसरो के साइंटिस्टों ने भरोसा दिलाया कि चंद्रयान-1 अपने मिशन में 95 फीसदी तक कामयाब रहा है, पर लग रहा था कि यह बात उन्होंने यान को चंद्रमा की कक्षा में पहुंचा देने, चार लाख किलोमीटर दूर चंद्र सतह से मात्र 100 किलोमीटर ऊंचाई वाली कक्षा में उसे तैनात कर देने और उससे नियमित तौर पर कुछ ऐसे डेटा और चित्र प्राप्त कर लेने के विषय में कही होगी, जिनका महत्व सिर्फ एक रस्म निभा लेने से ज्यादा कुछ नहीं होगा। पर चंद्रयान से मिली जानकारियों के आरंभिक वैज्ञानिक विश्लेषणों से ही इस मिशन की ऐतिहासिकता सिद्ध होने लगी है।
चंद्रयान का वैज्ञानिक मकसद था चंद्रमा के जन्म और उसकी बनावट पर रोशनी डालना, उस पर पाए जाने वाले खनिजों की पहचान करना और वहां बर्फ व खनिजों की मौजूदगी की थाह लेना। इसके अलावा इस अहम सवाल का जवाब पाना भी चंद्रयान के उद्देश्यों में शामिल था कि क्या चंद्रमा लंबे स्पेस मिशनों के बेस कैंप की भूमिका निभा सकता है और क्या वहां इंसानी बस्तियां बसाने की भी कोई गुंजाइश बनती है? कुछ ही साल पहले हबल टेलीस्कोप के भेजे चित्रों के आधार पर नासा ने चंद्रमा की तीन जगहों को मानव बस्तियों के लिए उपयुक्त स्थानों के रूप में चिह्नित किया था। इनमें से दो वे हैं, जहां 1971 में अपोलो-15 और 1972 में अपोलो-17 के अंतरिक्षयात्री अपने कदम रख चुके हैं।
अपोलो-15 के अंतरिक्षयात्री डेविड आर. स्कॉट, जेम्स बी. इरविन और अल्फ्रेड एम. वॉर्डन चंद्रमा पर मौजूद हैडली रिले नामक एक नहरनुमा संरचना के पास उतरे थे और लूनर रोवर की सहायता से उस इलाके की खाक छानी थी। उन्होंने वहां की मिट्टी के नमूने भी लिए थे। बाद में नासा के इस चौथे मून मिशन को एक छलावा करार देने की कोशिश हुई। कहा गया कि असल में अपोलो-15 (जो पहले के अपोलो यानों के मुकाबले सबसे ज्यादा लंबे वक्त तक चांद पर रुका था) ही नहीं बल्कि पूरा अपोलो अभियान ही नासा द्वारा रचा गया एक छल था। वर्ष 1999 में गैलप ऑर्गनॉइजेशन द्वारा कराए गए सर्वे में छह फीसदी अमेरिकी इन आरोपों से सहमत पाए गए थे।
चंद्रयान के टेरैन मैपिंग कैमरे (टीएमसी) ने इस साल नौ जनवरी को हैडली रिले और चंद्रमा की एपेनाइन पर्वत श्रृंखला के इर्दगिर्द कई फोटो लिए। इन चित्रों को विभिन्न कोणों से देखने और इनके बारीक विश्लेषण से साइंटिस्टों को अपोलो-15 के पराक्रम को साबित करने का एक और आधार मिल गया है। चंद्रमा की मिट्टी धूसर-सलेटी रंग की है, पर अपोलो-15 की लैंडिंग साइट पर चंद्रयान को एक उजला पैच नजर आया। चांद की जमीन पर ऐसी उजली खाली जगहों को आम तौर पर उल्का गिरने से बने किसी गड्ढे (क्रेटर) से जोड़कर देखा जाता है, पर तीन कोणों से देखने पर यह साफ नजर आया है कि वहां जो 'हालो' या उजला गड्ढा है, ठीक उतना है और उसी जगह है जहां अपोलो यान उतरने का दावा किया जाता है। उसी दायरे में एक आयताकार टुकड़े की मौजूदगी भी नजर आई है, जो असल में अपोलो के अंतरिक्षयात्री द्वारा वहां छोड़ा गया लैंडिंग मॉड्यूल 'फॉल्कन' है।
जिस दूसरी अहम उपलब्धि को चंद्रयान-1 के खाते में फिलहाल दर्ज किया जा सकता है वह है चंद्रमा के जन्म और बनावट से जुड़ी एक परिकल्पना को पुख्ता आधार देना। माना यह जाता रहा है कि हमारा सौरमंडल बनने की प्रक्रिया पूरी होने के लगभग सात करोड़ वर्ष बाद लगभग मंगल के आकार का कोई ग्रह पिंड पृथ्वी से आ टकराया और इस टक्कर से अलग हुआ पिंड बाद में चंद्रमा बना। लेकिन इस टक्कर से निकली ऊर्जा इतनी ज्यादा थी कि अलग हुआ पिंड पूरा का पूरा पिघला हुआ था। मॉल्टेन मून नाम की इस प्रस्थापना को सिद्ध या खंडित करने के प्रायोगिक प्रयास जारी हैं, लेकिन चंद्रयान ने इसके पक्ष में एक आधिकारिक मोहर लगा दी है। चंद्रयान के मून मिनरोलॉजी मैपर ने जो डेटा भेजा है, वह यहां मैग्मा ओशन की पुष्टि करता है। उसके चित्रों से यहां एक खास खनिज एनॉर्थाइट की मौजूदगी साबित हुई है। नासा की साइंटिस्ट कार्ले पीटर्स का कहना है कि चंद्रयान ने मॉल्टेन मून होने तसदीक की है। इसका व्यावहारिक महत्व यह है कि इस जानकारी का फायदा भविष्य में चंद्रमा पर खनिजों की व्यापक खोजबीन में मिलेगा।
चंद्रयान से प्राप्त आंकड़ों और तस्वीरों के विश्लेषण का काम अभी तो बिल्कुल शुरुआती दौर है। इस पर अलग-अलग देशों के और कई तरह के 11 पेलोड (वैज्ञानिक उपकरण) थे। इनमें यूरोपीय स्पेस एजेंसी के तीन- इमेजिंग एक्सरे स्पेक्ट्रोमीटर, स्मार्ट इंफ्रारेड स्पेक्ट्रोमीटर और सब-किलो इलेक्ट्रॉनवोल्ट ऐटम रिफ्लैक्टिंग एनेलाइजर, नासा के दो- मिनी सिथेंटिक अपरचर राडार व मून मिनरोलॉजी मैपर और बुल्गारिया एकेडमी ऑफ साइंस के रेडिएशन डोज मॉनिटर के अलावा इसरो के पांच अपने उपकरण शामिल थे। भारतीय उपकरण थे- मैपिंग कैमरा, हाइपर स्पेट्रल इमेजर, लूनर लेजर रेंजिंग इंस्ट्रूमेंट, हाई एनर्जी एक्सरे स्पेक्ट्रोमीटर और मूल इंपैक्ट प्रोब शामिल हैं। इन सारे उपकरणों के जरिए जमा डेटा व चित्रों का जैसे-जैसे सिलसिलेवार अध्ययन-विश्लेषण होगा, वैसे-वैसे चंदमा के रहस्यों से जुड़े कई खुलासे सामने आएंगे।
यहां यह नहीं भूलना चाहिए कि इंसानी पहुंच का दायरा वॉएजर और पायनियर जैसे यानों की मार्फत भले ही सौर मंडल से बाहर चला गया हो, पर पृथ्वी के सबसे नजदीकी अंतरिक्षीय पिंड चंद्रमा को अच्छी तरह जाने बगैर स्पेस में दूर-दराज के ठौर-ठिकानों तक धावा मारने का कोई विशेष अर्थ नहीं है। इसलिए चंद्रयान-1 ने अगर चांद की कुछ गुत्थियां सुलझाने में दुनिया की मदद की है, तो इसे उसकी 95 प्रतिशत नहीं, शत प्रतिशत सफलता माना जाना चाहिए।

सोमवार, 7 सितंबर 2009

आइंस्टीन ही क्यों ?

दुनियाभर में हजारों साइंटिस्ट हर दिन इसी कोशिश में जुटे हैं कि आइंस्टीन को किसी तरह गलत साबित किया जाए। उनके सिद्धांतों, उनके गणितीय प्रमाणों में कहीं कोई नुक्स ढूंढ़ा जाए, E=mc² को अधूरा बताना या उसे गलत ठहराना भी इन्हीं कोशिशों की कड़ियों का एक कमजोर सा हिस्सा है। मेरा पहला सवाल ये है कि आखिर अजय जी ने आइंस्टीन और उनके इस सबसे मशहूर समीकरण को ही क्यों चुना ?....इसका एक आसान और स्वाभाविक सा जवाब है कि मशहूर होने के लिए। ठीक है मशहूर होने की ख्वाहिश गलत नहीं, हर आदमी शोहरतमंद होना चाहता है। लेकिन शोहरत बटोरने के इस तरीके में कई खामियां हैं। मैं एक सवाल पूछना चाहता हूं कि आइंस्टीन जब स्पेशल थ्योरी आफ रिलेटिविटी पर काम कर रहे थे, तो क्या वो ऐसा मशहूर होने के लिए कर रहे थे ?
आइंस्टीन के पूरे काम को देखें तो E=mc² उतना महत्वपूर्ण नहीं है, दरअसल ये तो स्पेशल थ्योरी आफ रिलेटिविटी का एक बाइप्रोडक्ट भर है...जैसे कि आप किसी स्टोर में महंगा सूट खरीदने गए और साथ में रुमाल का पैकेट आपको गिफ्ट के तौर पर मिल गया हो। E=mc² में कमी निकालने से पहले आइंस्टीन की थ्योरी आफ रिलेटिविटी में कमी निकालनी होगी, उसे अधूरा साबित करना होगा।
दूसरा, लेखक का कहना है कि E=mc² कुछ खास स्थितियों में ही सही नतीजे देता है, सामान्य स्थितियों में इससे गलत नतीजे मिलते हैं। मैं लेखक के प्रति पूरा आदर जताते हुए ये पूछना चाहता हूं कि ये विशेष और सामान्य स्थितियां क्या हैं? और लेखक ने इनकी पहचान कैसे किस आधार पर की कि ये स्थिति विशेष है और ये स्थिति सामान्य? मेरे विचार से विशेष स्थिति सामान्य यानि जनरल है और हर जनरल स्थिति विशेष यानि स्पेशल। बेहतर होता कि आइंस्टीन को उन्हीं के हाल पर छोड़कर लेखक अपना समय किसी ओरीजनल सिद्धांत को खोजने में लगाते।
- अमिताभ पांडे, एस्ट्रोनॉमर

मंगलवार, 18 अगस्त 2009

E=mc² बाद, एक नई खोज d E= Ac²dm

देश के ज्यादातर रिसर्च इंस्टीट्यूट्स क्या कर रहे हैं, आम आदमी की तो छोड़िए, आमतौर पर मीडिया तक भी इसकी कोई खबर नहीं आती। .............. अबतक किसी वैज्ञानिक ने मेरे शोध पर आपत्ति या कोई टिप्पणी नहीं की, मेरा शोध एक खुली किताब है।
- अजय शर्मा
नोट -  कई बार तमाम सावधानियों के बावजूद गलतियां हो जाती हैं... ये लेख, मुझसे हुई ऐसी ही एक गलती का नतीजा है...ये लेख शिमला के एक सरकारी स्कूल के प्रधानाचार्य श्री अजय शर्मा के कथित शोध से संबंधित था। इसमें लेखक ने आइंस्टीन के मशहूर पदार्थ-ऊर्जा के समीकरण को अधूरा बताते हुए अपने शोध के जरिए उसे पूरा करने का दावा किया था। लेखक के दावे और उनके बार-बार प्रकाशन के अनुरोध के चलते मैंने उनके शोध को 'वॉयेजर' पर प्रकाशित किया था। लेकिन अब इस कथित शोध के संबंध में नए तथ्य सामने आए हैं और श्री अजय शर्मा का तथाकथित शोध संदेहास्पद और महज शोहरत कमाने की एक चाल साबित हुआ है। इसलिए श्री अजय शर्मा के इस संदेहास्पद शोध को वॉयेजर से हटाया जा रहा है। मैं ऐसे संदेहास्पद शोध को प्रकाशित करने के लिए पाठकों से क्षमायाचना करता हूं और भरोसा दिलाता हूं कि वॉयेजर में कोई भी सामग्री भविष्य में प्रकाशित करने से पहले पर्याप्त सावधानी बरतने के साथ विशेषज्ञों से उसकी पड़ताल भी अवश्य करवाई जाएगी।

सादर
संदीप निगम

मंगल पर भारतीय स्पेसक्राफ्ट 2013 में

मून मिशन के बाद अब इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गनाइजेशन (इसरो) ने अगले छह साल में मंगल ग्रह पर भी स्पेसक्राफ्ट भेजने की तैयारी शुरू कर दी है। इस बारे में की जाने वाली स्टडी, मिशन के रूट और दूसरी संबंधित डिटेल के बारे में सरकार ने भी 10 करोड़ रुपये की मंजूरी दी है। इसरो के चेयरमैन जी. माधवन नायर के मुताबिक, मिशन से जुड़ी स्टडी पहले ही पूरी की जा चुकी है। अब हम वैज्ञानिक प्रस्ताव और उद्देश्य तलाश रहे हैं। उन्होंने यह बात यहां एस्ट्रोनॉटिकल सोसायटी ऑफ इंडिया की एक वर्कशॉप में कही। उन्होंने बताया कि हम 2013 और 2015 के बीच लॉन्च की कोशिश करेंगे। शुरुआती प्लान के मुताबिक इसरो 500 किलोग्राम वाला स्पेसक्राफ्ट मंगल पर भेजेगा। इसके लिए तीन लॉन्च विंडोज की पहचान हुई है, पहला 2013 में दूसरा 2016 और तीसरा 2018 में। अभी यह तय नहीं हुआ है कि यह एक्सक्लूसिव मिशन होगा या इंटरनैशनल एक्सपेरिमेंट भी शामिल किए जाएंगे। गौरतलब है कि भारत 2012 में चंद्रयान-2 मिशन के तहत रोबॉट को चांद पर भेजना चाहता है। 2015 तक वह स्पेस में इंसान को भेजना चाहता है। विक्रम साराभाई स्पेस सेंटर के डायरेक्टर के. राधाकृष्णन ने बताया कि कई युवा वैज्ञानिकों को इस मिशन से जोड़ा जा रहा है। खासकर इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ स्पेस टेक्नॉलजी, फिजिकल रिसर्च लैबरटरी, टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च और दूसरी रिसर्च लैब से आए यंग साइंटिस्ट इससे जुड़ रहे हैं।

चंद्रयान-2 का डिजाइन तैयार

भारत ने अपने चंद्रयान-2 का डिजाइन बना लिया है। इसके लिए रूस का सहयोग लिया गया है। इस बार मून मिशन के लिए जाने वाले चंद्रयान में एक लैंडर और रोवर भी होगा, ताकि चांद की मिट्टी का सैंपल लिया जा सके और इससे मिलने वाले डेटा को धरती पर भेजा जा सके। इसरो के चेयरमैन जी. माधवन नायर ने बताया, फिलहाल, डिजाइन तैयार है। हमने रूसी वैज्ञानिकों के साथ इसका एक जॉइंट रिव्यू किया है। इसरो के मुताबिक, चंद्रयान-2 में एक ऑर्बिटल फ्लाइंग वीइकल होगा, जिसमें एक ऑर्बिटल क्राफ्ट और एक लूनर क्राफ्ट होगा जो लूनर ट्रांसफर ट्रेजेक्टरी तक सॉफ्ट लैंडिंग सिस्टम को ले जाएगा। चंद्रमा पर उतरने वाले इस लैंड रोवर की लोकेशन चंद्रयान-1 द्वारा भेजे गए डेटा से तय होगी। इसरो की जिम्मेदारी होगी ऑर्बिटर डिवेलप करना और रूस लैंडर और रोवर बनाएगा। बाकी के इलेक्ट्रॉनिक उपकरण दुनिया भर की साइंटिफिक कम्युनिटीज से जुटाए जाएंगे। माधवन नायर का कहना था कि अब जबकि डिजाइन तैयार हो चुका है, हमारा अगला कदम होगा चंद्रयान-2 का एक नमूना बनाना। यह अगले साल तक तैयार हो जाएगा। नायर ने बताया कि चंद्रयान-1 मिशन से बहुत कुछ सीखने को मिला है। वह कहते हैं, मेरे ख्याल में हमें चांद की सतह से होने वाले हीट रेडिएशन के बारे में काफी कुछ जानने को मिला है। इसी के मुताबिक आने वाले स्पेसक्राफ्ट का थर्मल डिजाइन बनाया जाएगा।

रविवार, 21 जून 2009

बस कुछ दिन और, हम भी होंगे मंगल पर !

चंद्रमा पर पहुंचने के बाद अब मंगल तक पहुंचना हमारे लिए नामुमकिन नहीं रहा। बैंगलोर के इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ एस्ट्रोफिजिक्स के साइंटिस्ट आजकल एक ऐसे नए स्पेसक्राफ्ट की डिजाइन पर काम कर रहे हैं, जिसका इस्तेमाल मंगल तक जाने में किया जा सके। खास बात ये कि हमें मंगल तक जाने वाले इस स्पेसक्राफ्ट का इंजन सोलर या फिर आयन बेस्ड
भारत ने 2025 तक मंगल तक पहुंचने का लक्ष्य तय किया है। और इसे साकार कर दिखाने के काम में जुटे हैं इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एस्ट्रोफिजिक्स के वैज्ञानिक। मंगल तक जाने वाले इस स्पेसक्राफ्ट की डिजाइन के काम में जुटे थ्योरी गुप के प्रोफेसर सी. शिवराम ने बताया कि हमारे पास लंबी दूरी तक स्पेसक्राफ्ट भेजने की शुरुआती तकनीक मौजूद है। उन्होंने कहा कि इस मुद्दे पर काम किया जाना है कि ये स्पेसक्राफ्ट किस तरह का हो क्योंकि इसे मंगल तक जाने में आठ महीनों का लंबा सफर तय करना पडे़गा। शिवराम दो ऐसे मॉडल्स पर काम कर रहे हैं जिनमें ऊर्जा और समय दोनों की बचत होगी। मार्स स्पेसक्राफ्ट का पहला मॉडल है सोलर सेल मॉडल, इसमें स्पेसक्राफ्ट के साथ नाव के पाल जैसी संरचनाएं लगी होंगी। सूरज की किरणों में मौजूद फोटॉन्स जब इनसे टकराएंगे तो इस टक्कर के मिलने वाले बल से ये स्पेसक्राफ्ट आगे बढ़ेगा। लेकिन इसके लिए बहुत अच्छे किस्म के सोलर स्टोरेज डिवाइस की जरूरत है। लेकिन इस पर अभी काफी काम की जरूरत है क्योंकि फिलहाल सोलर स्टोरेज और डिस्ट्रिब्यूशन बहुत महंगा है। इसी वजह से सोलर तकनीक में जोर फिलहाल इसकी लागत घटाने पर है। शिवराम का दूसरा मॉडल आयन इंजन पर आधारित है। वो बताते हैं, आयन दरअसल उच्च संवेग वाले चार्ज्ड पार्टिकल होते हैं। इनकी मदद से तेज और लंबी फ्लाइट मुमकिन हो है। फिलहाल, इन दोनों इंजनों पर रॉकिट डायनॉमिक्स के तहत इसरो के सहयोग से काम हो रहा है।

ब्रह्मांड में जीवन ढूंढेगा अनोखा चुंबकीय बैक्टीरिया

महाराष्ट्र में वैज्ञानिकों को एक ऐसा बैक्टीरिया मिला है जिनपर चुंबकीय कण पाए जाते हैं और जो भू चुंबकीय क्षेत्र में तैरता है। जैव वैज्ञानिकों ने इस चुंबकीय बैक्टीरिया को बुलढाना जिले में उल्का पिंड से बनी एक प्राचीन लोनर झील से ढूंढा है। इस खोज से ब्रह्मांड में अन्य कहीं जीवन की खोज में मदद मिलने की उम्मीद है। वैज्ञानिकों के लिए रुचि का केंद्र रहे इस चुंबकीय बैक्टीरिया को उल्का पिंड के असर से बनी इस खास झील से अलग किया गया जो कि बसाल्ट चट्टानों से बनी अकेली झील है। कराड के यशवंतराय चव्हाण साइंस कॉलिज के माइक्रोलॉजिस्ट महेश चवादार ने बताया कि इस बैक्टीरिया और उल्का पिंड में कुछ रिश्ता दिखता है। इससे अंतरिक्ष में अन्य कहीं जीवन की खोज में मदद मिलेगी। यह खोज करंट साइंस पत्रिका के हाल के अंक में छपी है। 1975 में पहली बार ऐसे बैक्टीरिया की खोज हुई थी और दुनिया की कुछ प्रयोगशालाओं में ही ऐसे जीवाणु रखे हैं।

शुक्रवार, 19 जून 2009

भारत और जापान का पहला साझा स्पेस मिशन

एशिया की दो महाशक्तियां भारत और जापान पहली बार साथ मिलकर एक संयुक्त स्पेस रिसर्च प्रोजेक्ट में काम कर रहे हैं। इसके तहत इस साल अंतरिक्ष के जीरो ग्रैविटी के माहौल में पौधों को उगाने का प्रयोग किया जाएगा। जापान की समाचार एजेंसी से मिली खबर के मुताबिक इस साल अक्टूबर में भारत और जापान अपने साझा अंतरिक्ष अभियान के तहत एक छोटा सेटेलाइट अंतरिक्ष भेजेंगे। ये सेटेलाइट अपने साथ जापान के खास लैबोरेट्री उपकरण अंतरिक्ष ले जाएगा और करीब 600 किलोमीटर ऊंची अपनी कक्षा में करीब एक हफ्ते तक पृथ्वी की परिक्रमा करेगा।
जापान की स्पेस एजेंसी जाक्सा के प्रोफेसर नोरियाकी इशियोका ने बताया कि अंतरिक्ष में फोटोसेंथेसिस की प्रक्रिया का अध्ययन करना ही भारत के साथ इस संयुक्त मिशन का मकसद है। इसके तहत हम अंतरिक्ष में एक खास किस्म की एल्गी यानि काई के उगने का अध्ययन करेंगे। भारत और जापान के इस संयुक्त प्रोजेक्ट से स्पेस फॉर्मिंग, यानि अंतरिक्ष में खेती के शोध को आगे बढ़ाने में मदद मिलेगी।
उधर इसरो के चेयरमैन जी माधवन नायर ने बताया कि हम अपना अगला सेटेलाइट ओशन सैट जुलाई-अगस्त तक लांच करेंगे। उन्होंने बताया कि ओशन सैट की मदद से हमें समुद्री सतह, समुद्री धाराओं के साथ वायु धाराओं और मछली पकड़ने के नए इलाकों का पहचान भी की जाएगी।

पहचानिए ये कौन है ?

ये तस्वीर न तो थ्री-डी एनीमेशन का कमाल है और न ही ये किसी ये किसी कार्टून कलाकार के दिमाग की उपज। देखिए, गौर से देखिए...एक चींटी आपको घूर रही है। जी हां, ये है एक चींटी के चेहरे का माइक्रोस्कोपिक क्लाज-अप। इस तस्वीर की खास बात ये कि किसी चींटी के चेहरे का इतना साफ क्लोजअप पहली बार लिया गया है। चींटी के मुंह और आंखों समेत पूरे चेहरे के भावों को दर्शाने वाली ये अनोखी तस्वीर दरअसल 136 अलग-अलग तस्वीरों को मिलाकर बनाई गई है।
चींटी के चहरे की इस माइक्रोस्कोपिक तस्वीर को लिया है नासा के एम्स रिसर्च सेंटर, कैलीफोर्निया के वैज्ञानिक मॉली गिब्सन ने और इस अदभुत काम में उनकी मदद की नैनोटेक्नोलॉजिस्ट जे लांगसन ने। लांगसन ने चींटी के चेहरे का क्लोजअप लेने के लिए रोबोटिक कैमरे जीगापैन की मदद ली, लेकिन इस काम को करने के लिए उन्हें कैमरे में कुछ बदलाव भी करने पड़े। चींटी के चेहरे के अलग-अलग हिस्सों की तस्वीरें लेकर जब उन्हें कंप्यूटर पर एकसाथ जोड़ा गया, तो चींटी का क्लोजअप देखकर सबके मुंह से बस यही निकला...वाह !