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सोमवार, 29 नवंबर 2010

‘स्पेक्ट्रम’ आखिर है क्या ?

17 वीं सदी में महान वैज्ञानिक इसाक न्यूटन ने एक ऐसा प्रयोग किया जिसने साइंस की धारा ही बदल दी। उन्होंने अपनी प्रयोगशाला के सभी खिड़की दरवाजे बंद कर दिए। फिरभी प्रयोगशाला में पूरा अंधेरा नहीं हो सका, क्योंकि खिड़की की एक दरार से सूरज की किरण भीतर आ रही थी। न्यूटन ने मुस्कराते हुए शीशे का एक छोटा प्रिज्म उठाया और उसे सूरज की उस किरण के सामने ले गए। एक जादू सा हो गया और सूरज की रोशनी का रहस्य सामने आ गया। सामने रखे एक सफेद बोर्ड पर इंद्रधनुष खिल उठा, दरअसल शीशे के प्रिज्म ने सूरज की रोशनी में मौजूद सात उन रंगों को अलग कर दिया था। हमारी आंख जो कुछ भी देखती है वो इन सात रंगों की सीमा में ही सिमटा रहता है। न्यूटन ने सूरज की रोशनी में छिपे इन सात रंगों को स्पेक्ट्रम कहा, और फिजिक्स में एक नई शुरुआत हो गई।
हमारा सूरज और एक साधारण अणु ये दोनों ही स्पेक्ट्रम के प्राकृतिक स्रोत हैं। आज स्पेक्ट्रम का इस्तेमाल हम हर रोज जाने-अनजाने करते रहते हैं, टीवी के रिमोट से लेकर लैपटॉप पर वॉयरलेस इंटरनेट, माइक्रोवेव ओवेन, खिली-खिली धूप और मोबाइल फोन तक सब स्पेक्ट्रम का ही कमाल है। न्यूटन ने हमें स्पेक्ट्रम के गुण के बारे में बताया लेकिन स्पेक्ट्रम की वजह को गहराई से समझा महान भारतीय वैज्ञानिक सर सी.वी. रमन ने। रमन ने अगर इलेक्ट्रोमैग्नेटिक स्पेक्ट्रम का राज नहीं समझा होता तो आज न तो रिमोट होता और न मोबाइल फोन। हर अणु परमाणुओं सो बनता है और हर परमाणु के केंद्र में एक नाभिक होता है, जिसमें प्रोटान और न्यूट्रॉन होते हैं और अलग-अलग कक्षाओं में परिक्रमा करते इलेक्ट्रान चारों ओर से नाभिक को घेरे रहते हैं। अब शुरू होता है असली खेल, जब परमाणु को गर्म किया जाता है तो नाभिक की परिक्रमा करते इलेक्ट्रान अपनी कक्षा से छलांग लगाकर और ऊपर वाली कक्षा में पहुंच जाते हैं। इसी तरह जब परमाणु को ठंडा किया जाता है तो नाभिक की परिक्रमा कर रहे इलेक्ट्रान निचली कक्षाओं में गिर जाते हैं। सबसे खास बात ये कि नाभिक के चारोंओर घूमता इलेक्ट्रान जब भी अपनी कक्षा से ऊपर छलांग लगाता है या नीचे गिरता है, उस वक्त वो खास स्पेक्ट्रम छोड़ता है। इसे कहते हैं इलेक्ट्रोमैग्नेटिक स्पेक्ट्रम। रमन ने पता लगाया कि कुदरत में मौजूद सभी धातुओं, खनिजों, गैसों और तरल का स्पेक्ट्रम बिल्कुल अलग-अलग होता है। ये स्पेक्ट्रम बिल्कुल उंगलियों के निशान जैसा होता है यानि हर तत्व का स्पेक्ट्रम बिल्कुल अलग और अनोखा। इस खोज के लिए रमन को भौतिकी के नोबेल से सम्मानित किया गया और तत्वों से निकलने वाले स्पेक्ट्रम को रमन इफेक्ट कहा गया। आज रमन इफेक्ट से ही हम चंद्रमा और मंगल ग्रह मौजूद खनिजों का पता लगा रहे हैं, और खोजे जा रहे नए ग्रहों के बारे में यहीं बैठे-बैठे बता सकते हैं कि वहां पानी है या नहीं, या उसका वातवरण कैसा है।
इलेक्ट्रोमैगनेटिक रेडिएशन की वजह जानने के बाद अब मनचाही स्पेक्ट्रम को हासिल करना आसान हो गया, और यहीं से स्पेक्ट्रम के कारोबारी इस्तेमाल की शुरुआत हुई। फ्रीक्वेंसी और वेवलेंथ हर इलेक्ट्रोमैग्नेटिक रेडिएशन की खास पहचान होती है, और इसी के आधार पर इलेक्ट्रोमैग्नेटिक रेडिएशन को रेडियो, माइक्रोवेव, इंफ्रारेड, विजिबिल, अल्ट्रावॉयलेट, एक्स-रे और गामा-रे की पहचान की गई। ये सारी स्पेक्ट्रम, जिन्हें हम रेडिएशन भी कह सकते हैं, इनमें से कुछ हमें कोई नुकसान नहीं पहुंचाती और हमारे बेहद काम की हैं, जैसे रेडियो जिससे हम टीवी के प्रोग्राम्स देखते हैं, माइक्रोवेव जिससे सेटेलाइट संचार और ओवन से लेकर मोबाइल फोन तक काम करते हैं और इंफ्रारेड जिसपर सभी रिमोट काम करते हैं। समुद्र के किनारे की धूप में 53 फीसदी इन्फ्रारेड, 44 फीसदी दिखाई देने वाली रोशनी और 3 फीसदी अल्ट्रावॉयलेट किरणें होती हैं। अल्ट्रावॉयलेट, एक्स-रे और गामा-रे स्पेक्ट्रम बेहद खतरनाक हैं और इनके संपर्क में कुछ देर रहने से ही हम बीमार पड़ सकते हैं।
मोबाइल, सेटेलाइट और टेलीविजन इन तीनों में माइक्रोवेव और रेडियो इलेक्ट्रोमैग्नेटिक स्पेक्ट्रम का इस्तेमाल किया जाता है। अब सवाल ये कि आखिर इसका कारोबारी इस्तेमाल कैसे होता है? दरअसल किसी स्पेक्ट्रम का कारोबारी इस्तेमाल इन बातों से तय होता है कि उसकी तरंग की लंबाई कितनी है, उसकी फ्रिक्वेंसी (वेवलेंथ या साइकल प्रति सेकंड) क्या है और वो कितनी ऊर्जा कितनी दूर तक साथ ले जा सकती है।
रेडियो वेव स्पेक्ट्रम से लंबी दूरी तय की जा सकती हैं और वह भी बिना किसी दिक्कत के। रेडियो वेव स्पेक्ट्रम  की तरंगें काफी लंबी होती हैं। इनकी वेवलेंथ 1 किलोमीटर से लेकर 10 सेंटीमीटर तक की होती है और फ्रिक्वेंसी भी 3 किलोहट्र्ज (3,000 साइकिल प्रति सेकंड) से लेकर 3 गीगाहट्र्ज (3 अरब साइकिल प्रति सेकेंड) तक के बीच होती है। रेडियो तरंगों को सबसे ज्यादा असर भाप और आयन से होता है। साथ ही, इन पर सोलर फ्लेयर और एक्सरे किरणों के विस्फोट का भी असर होता है। साथ ही, पहाड़ों की वजह से भी रेडियो तरंगों से संचार में काफी असर पड़ सकता है। छोटी फ्रिक्वेंसी मकानों और पेड़ों को भी पार कर सकती हैं। साथ ही, ये पहाड़ों के किनारे से भी निकल सकती हैं।
माइक्रोवेव स्पेक्ट्रम का सबसे फायदेमंद इस्तेमाल दूरसंचार और इंटरनेट में होता है। दूरसंचार और ब्रॉडबैंड के लिए 700-900 मेगाहट्र्ज की छोटी फ्रिक्वेंसी काफी फायदेमंद होती हैं। सेंटीमीटर और मिलीमीटर की रेंज वाली माइक्रोवेव्स की फ्रिक्वेंसी 300 गीगाहट्र्ज तक हो सकती है। इसके अलग-अलग प्रकार के इस्तेमाल को देखते हुए इसे अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है। खाना पकाने वाले माइक्रोवेव में सैकड़ों वॉट बिजली का इस्तेमाल आरएफ वेवलेंथ को पैदा करने में होता है। ये वेवलेंथ 32 सेमी (915 मेगाहट्र्ज) से लेकर 12 सेमी (2.45 मेगाहट्र्ज) तक के होते हैं। छोटी ऊर्जा स्रोतों वाले उपकरणों से पैदा होने वाले माइक्रोवेव का इस्तेमाल संचार के साधनों के रूप में होता है और ये काफी कम ऊर्जा पैदा करते हैं। इन्फ्रारेड वेव छोटी होती हैं और वे काफी गर्म होती हैं। लंबी दूरी वाले इन्फ्रारेड बैंड्स का इस्तेमाल रिमोट कंट्रोल के लिए होता है। साथ ही, इनका इस्तेमाल बहुत कम गर्मी पैदा करने वाले बल्बों में होता है।
 2जी और 3जी
किस स्पेक्ट्रम पर हम बात करेंगे और किस स्पेक्ट्रम पर सेटेलाइट डेटा भेजे जाएंगे, इस जैसे तमाम मुद्दों की बागडोर संभाल रखी है इंटरनेशनल कम्युनिकेशन यूनियन ने। संयु्क्त राष्ट्र की इस इकाई ने सभी सदस्य देशों को अलग-अलग स्पेक्ट्रम के बैंड्स आवंटित कर रखे हैं। इसमें कोई देश मनमानी या एक-दूसरे के कामकाज में बाधा नहीं पहुंचा सकता। इन नियमों के तहत 1980 में 1-जी यानि फर्स्ट जनरेशन वायरलेस टेक्नोलॉजी की शुरुआत हुई, पहले पहल जिसका इस्तेमाल कार फोन में किया गया। 2-जी यानी सेकेंड जनरेशन वायरलेस टेलीफोन टेक्नोलॉजी की शुरुआत 1990 में हुई। 1991 में पहली बार फिनलैंड में रेडियोलिंजा कंपनी की ओर से जीएसएम मोबाइल सर्विस में 2-जी टेक्नोलॉजी का कारोबारी इस्तेमाल शुरू हुआ। डाटा ट्रांसफरिंग, टेक्स विथ रेडियो सिग्नल्स आदि सुविधाओं से हुई शुरुआत में जल्दी ही सीडीएमए का प्रवेश भी हो गया। अब आ गई है बारी 3-जी यानि थर्ड जनरेशन मोबाइल टेक्नोलॉजी की। 3-जी में डाटा का हस्तांतरण तेजी से होता है और नेटवर्क भी अच्छा होता है। 2जी स्पेक्ट्रम की बात करें तो ये हमारी सरकार के पास इंटरनेशनल टेलीकम्युनिकेशंस यूनियन से आवंटित एक खास रेडियो वेव बैंड है। सिग्नल भेजने के लिए मोबाइल कंपनियों को फ्रिक्वेंसी रेंज की जरूरत थी। सरकार ने लाइसेंस फी लेकर स्पेक्ट्रम मोबाइल सर्विस प्रोवाइडर्स को जारी किए।
खास बात ये कि 2-जी और 3-जी के स्पेक्ट्रम में कोई खास अंतर नहीं है। बस सरकार के नियमन और इंटरनेशनल टेलीकम्युनिकेशंस यूनियन ने सदस्य देशों के बीच बेहतर तारतम्यता के तहत इसके लिए अलग स्पेक्ट्रम घोषित किया गया है। दोनों नेटवर्क 800-900 और 1800-1900 मेगाहट्र्ज पर काम करते हैं और कर सकते हैं। कमाई में इजाफे को देखते हुए अनुमानों के मुताबिक 900 मेगाहट्र्ज के 3जी में 2.1 गीगाहट्र्ज से कम लागत लगती है। फिनलैंड, आइसलैंड, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, थाईलैंड, वेनुजुएला, डेनमार्क और स्वीडन में तो 900 मेगाहट्र्ज (2जी स्पेक्ट्रम) पर ही 3जी नेटवर्क मौजूद है। फ्रांस भी अब 2जी की जगह 3जी को बढ़ावा दे रहा है। इससे पता चलता है कि भारत में सरकारी और रक्षा इस्तेमालों की वजह से स्पेक्ट्रम की कितनी ज्यादा किल्लत है। हमें अपनी जरूरतों, लैंडलाइन फोनों की कम पहुंच और लागत को देखते हुए अपनी क्षमता के विस्तार के नए तरीकों की तलाश करनी होगी। दूसरे मुल्कों में कंपनियां इस स्पेक्ट्रम का अपनी इच्छा के मुताबिक इस्तेमाल करने के लिए मुक्त हैं, जबकि अपने मुल्क में इस बारे में कोई तस्वीर ही स्पष्ट नहीं है। हमारी नीतियों कम कीमत पर ज्यादा अच्छी कवरेज या क्षमता के बारे में स्थिति को स्पष्ट कर सकती हैं। इससे लोगों को कम कीमत पर अच्छी सेवा मिलेगी। 

रविवार, 21 नवंबर 2010

प्रो. स्टीफन हॉकिंग से 10 सवाल

सवाल 01 - अगर ईश्वर का अस्तित्व नहीं है, तो फिर दुनिया की हर संस्कृति में भगवान को सर्वशक्तिमान और सर्वोच्च सत्ता क्यों माना गया है? ईश्वर की अवधारणा सार्वभौमिक यानि यूनिवर्सल क्यों है?


प्रो. हॉकिंग - मैं ये दावा नहीं करता कि ईश्वर का अस्तित्व नहीं है। ईश्वर या भगवान एक नाम है जिससे लोग अपने अस्तित्व को जोड़ते हैं और अपनी जिंदगी के लिए जिसके शुक्रगुजार होते हैं। लेकिन मेरी समझ से सौरमंडल के इस तीसरे ग्रह पर जिंदगी और अपनी मौजूदगी के लिए भौतिक विज्ञान के नियमों का आभार मानना चाहिए, न कि भगवान जैसी किसी सार्वजनिक सत्ता का जिसके साथ व्यक्तिगत रिश्ता जोड़कर हम खुद को भुलावे में रखते हैं।

सवाल 02 – क्या कभी ब्रह्मांड का भी अंत होगा? अगर हां, तो इस अंत के बाद क्या होगा?

प्रो. हॉकिंग - एस्ट्रोनॉमिकल ऑब्जरवेशंस बताते हैं कि हमारा ब्रह्मांड फैल रहा है और इसके फैलने की रफ्तार लगातार बढ़ती जा रही है। ब्रह्मांड हमेशा ही फैलता रहेगा और इसके साथ-साथ ये और भी ज्यादा अंधकारपूर्ण और खाली जगहों को जन्म देता रहेगा। ब्रह्मांड का जन्म बिगबैंग की घटना से हुआ था, लेकिन इसका कोई अंत नहीं है। कोई ये भी पूछ सकता है कि बिगबैंग से पहले क्या था, लेकिन इसका जवाब भी ये होगा कि जैसे दक्षिणी ध्रुव पर पहुंचकर दक्षिण दिशा लुप्त हो जाती है, उसी तरह बिगबैंग से पहले कुछ भी नहीं था। क्योंकि बिगबैंग एक शुरुआत है, इस शुरुआत से पहले कैसे कुछ हो सकता है।

सवाल 03 – क्या आपको लगता है कि मानव सभ्यता का वजूद इतने लंबे समय तक बरकरार रहेगा कि वो अंतरिक्ष में गहरे और गहरे छलांग लगा सके?


प्रो. हॉकिंग - मुझे लगता है कि मानव जाति के पास अपने अस्तित्व को तबतक बचाए रखने के बेहतर मौके हैं जब तक कि हम अपने सौरमंडल को कॉलोनाइज नहीं कर लेते। हालांकि इस पूरे सौरमंडल में हमारे लिए पृथ्वी जैसी माकूल कोई दूसरी जगह नहीं है, इसलिए अभी ये स्पष्ट नहीं है कि जब ये धरती ही जीवन के किसी भी स्वरूप के रहने के लायक नहीं रहेगी, ऐसे हालात में मानव जाति बचेगी या नहीं। मानव जाति के वजूद को ज्यादा से ज्यादा लंबे वक्त तक बरकरार रखने के लिए दूसरे सितारों की दुनिया तक हमारा पहुंचना जरूरी है। अभी इसमें काफी वक्त है। हमें उम्मीद करनी चाहिए कि तब तक हम पृथ्वी पर खुद को बचाए रखने में कामयाब रहेंगे।

सवाल 04 – अगर आप अल्बर्ट आइंस्टीन से बात कर सकते, तो उनसे क्या कहते?


प्रो. हॉकिंग - मैं उनसे कहता कि वो आखिर ब्लैक होल्स में यकीन क्यों नहीं करते। उनके रिलेटिविटी के सिद्धांत के फील्ड समीकरण बताते हैं कि एक विशाल सितारा या गैसों का सघन बादल खुद में ही नष्ट होकर एक ब्लैक होल को जन्म दे सकता है। आइंस्टीन खुद इस तथ्य को जानते थे, लेकिन फिरभी उन्होंने किसी तरह खुद को समझा लिया था कि किसी भी धमाके की तरह हर विस्फोट द्रवमान या वजन को बाहर फेंक देने के लिए ही होता है। यानि वो मानते थे कि सितारों की मौत होते ही एक धमाके के साथ उसका सारा पदार्थ बाहर छिटक जाता है। लेकिन अगर विस्फोट हो ही नहीं और सितारे की मौत होते ही उसका सारा द्रव्यमान बस उसके एक ही बिंदु में सिमटकर रह जाए तो?

सवाल 05 – ऐसी कौन सी वैज्ञानिक खोज या विकास है जिसे आप अपने जीवनकाल में ही साकार होते हुए देखना चाहते हैं?


प्रो. हॉकिंग - मैं चाहूंगा कि मेरे जीवनकास में नाभिकीय फ्यूजन ही ऊर्जा का व्यावहारिक जरिया बन जाए। इससे हमें ऊर्जा की अक्षय आपूर्ति होती रहेगी और वो भी ग्लोबल वॉर्मिंग या प्रदूषण के खतरों के बगैर।

सवाल 06 – मृत्यु के बाद हमारी चेतना का क्या होता है? आप क्या मानते हैं?


प्रो. हॉकिंग - मैं मानता हूं कि हमारा मस्तिष्क एक कंप्यूटर और चेतना उसके एक प्रोग्राम की तरह है। ये प्रोग्राम उस वक्त काम करना बंद कर देता है, जब उसका कंप्यूटर टर्न ऑफ हो जाता है। सिद्धांतत: हमारी चेतना की रचना न्यूरल नेटवर्क पर फिर से की जा सकती है। लेकिन ऐसा करना बेहद मुश्किल है, इसके लिए मृतक की सारी स्मृतियों की आवश्यकता पड़ेगी।

सवाल 07 – आप एक ब्रिलिएंट फिजिसिस्ट के तौर पर मशहूर हैं, आपकी ऐसी कौन सी आम रुचियां हैं, जो शायद लोगों को हैरान कर सकती हैं?


प्रो. हॉकिंग - मुझे हर तरह का संगीत पसंद है, पॉप, क्लासिकल और ऑपेरा, हर तरह का। मैं अपने बेटे टिम के साथ मिलकर फॉर्मूला वन रेसिंग का भी मजा लेता हूं

सवाल 08 – क्या आपको कभी ऐसा लगा कि आपकी शारीरिक अक्षमता की वजह से अपने शोध में आपको फायदा पहुंचा, या इससे आपके अध्ययन में रुकावट आई?


प्रो. हॉकिंग - हालांकि मैं खासा दुर्भाग्यशाली रहा कि मोटर-न्यूरॉन डिसीस जैसी बीमारी की चपेट में आ गया, इसके अलावा जीवन के दूसरे सभी मामलों में मैं खासा भाग्यशाली रहा। मैं खुद को काफी खुशनसीब समझता हूं कि मुझे थ्योरेटिकल फिजिक्स में काम करने का मौका मिला, और अपनी लोकप्रिय किताबों की मदद से मैं जैकपॉट को हिट करने में कामयाब रहा। ये काम के ऐसे कुछ ऐसे गिने-चुने क्षेत्र है, जहां शारीरिक अक्षमता से कोई फर्क नहीं पड़ता।

सवाल 09 – जिंदगी के सभी रहस्यों के जवाब लोग आपसे जानने की अपेक्षा रखते हैं, क्या इससे आपको एक बड़ी जिम्मेदारी का बोध नहीं होता?


प्रो. हॉकिंग - देखिए, जिंदगी की सभी समस्याओं का हल यकीनन मेरे पास नहीं है। फिजिक्स और गणित ये तो बता सकते हैं कि ब्रह्मांड का जन्म कैसे हुआ, लेकिन इनसे मानवीय व्यवहार के रहस्यों को नहीं समझा जा सकता। क्योंकि अभी बहुत से सवालों को सुलझाना बाकी है। लोगों को समझने के मामले में मैं अनाड़ी हूं। दूसरे लोगों की तरह मैं भी अब तक ये नहीं समझ पाया हूं कि लोग किसी चीज पर विश्वास कैसे कर लेते हैं, खासतौर पर महिलाएं।

सवाल 10 – क्या आपको लगता है कि कभी ऐसा वक्त भी आएगा, जब मानव जाति फिजिक्स के बारे में सबकुछ जान-समझ जाएगी?


प्रो. हॉकिंग - मुझे लगता है, कि ऐसा कभी नहीं होगा

रविवार, 14 नवंबर 2010

क्या हम धार्मिक-ज्योतिषीय हिस्टीरिया के युग में जी रहे हैं?

हम आज ऐसे युग में हैं जब साइंस और खगोल विज्ञान के बारे में जागरूकता सबसे ज्यादा है। टेक्नोलॉजी और ज्ञान का इतना व्यापक विस्तार पहले कभी नहीं था। लेकिन फिर भी आज अंधविश्वास पहले से कहीं ज्यादा है, तरह-तरह के बाबाओं के आलीशान पंडालों से लेकर क्रूज पर विलासिता और मनोरंजन के तमाम हथकंड़ों के बीच फाइव-स्टार कथाओं का प्रचलन अपने शीर्ष पर है। मनौती-मन्नतों से लेकर करामाती बाबाओं तक की भक्ति का दौर खूब जोर-शोर से जारी है। ये अजीब विरोधाभास है कि अत्याधुनिक वैज्ञानिक युग में भी हम धार्मिक-ज्योतिषीय हिस्टीरिया में जी रहे हैं। यथार्थवादी और व्यावहारिक होने के तमाम दंभ के बीच भी हम आखिर इतने भाग्यवादी क्यों हैं? ये एक अहम सवाल है, क्योंकि ये हमारे व्यक्तिगत और सामाजिक विकास के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा है। अमेरिका के एक थिंक टैंक ने दुनिया के सभी प्रमुख देशों के बीच एक सर्वे कराया, इस सर्वे के नतीजे बताते हैं कि ऐसे लोगों की तादाद बहुत ज्यादा बढ़ी है जो रोज अपना राशिफल देखते हैं और उसी के मुताबिक अपना काम करते हैं। भारत में तो ज्योतिष और धार्मिक आडंबर में इतना जबरदस्त उछाल है कि ये क्षेत्र बेरोजगारों के लिए आकर्षक विकल्प बन चुका है।
मेरे वैज्ञानिक और एस्ट्रोनॉमर साथियों की तरह अकसर मुझे ऐसी स्थितियों से दो-चार होना पड़ता है, जब कोई मुस्कराते हुए मुझे अपनी राशि बताता है और मुझसे मेरी राशि पूछ बैठता है। संपूर्ण मानव इतिहास में वैज्ञानिक रूप से सबसे उन्नत दौर में भी हम बेहद अतार्किक और रूढ़िवादी हैं। सौरमंडल के ग्रह हमारे भाग्य को बना या बिगाड़ सकते हैं, इस पर यकीन करने से पहले आप खुद ये विचारकर देखिए कि हमारी चार स्पेस सोलर ऑब्जरवेटरीज हर पल सूरज की निगरानी कर रही हैं। स्पेसक्राफ्ट मैसेंजर बुध की कक्षा में प्रवेश करने वाला है और वीनस एक्सप्रेस की आंख से हम शुक्र के वातावरण और भौगोलिक संरचनाओं की अध्ययन कर रहे हैं। हमारे ही स्पेसक्राफ्ट चंद्रयान ने चंद्रमा पर पानी की खोज की है। मंगल के आकाश और धरती दोनों जगह हमारी बनाई मशीनें काम कर रही हैं। हमने मंगल का इतने विस्तार से अध्ययन किया है कि इतना तो हम अपनी पृथ्वी के बारे में भी नहीं जानते। करीब आधा दर्जन स्पेसक्राफ्ट के जरिए हम बृहस्पति की दुनिया में झांक चुके हैं और शनि की कक्षा में तो हमारा स्पेसक्राफ्ट कसीनी शानदार काम कर रहा है। इससे भी आगे की दुनिया को देखने-समझने के लिए मिशन न्यू-होराइजन बढ़ा चला जा रहा है।
मजे की बात ये कि खगोल विज्ञान और ज्योतिष दोनों की शुरुआत मानव विकास के इतिहास में एक ही बिंदु से और लगभग एकसमान घटनाओं से ही हुई है। मेरे मित्र इतिहासकार और खगोलशास्त्री बलदेवराज दावर के मुताबिक भाग्यवादिता और धार्मिकता के बीज विकासवाद की शुरुआती परिस्थितियों ने ही मानव अंतरमन में बो दिए थे। लाखों साल पहले जब आदिमानव गुफाओं और पेड़ों में रहता था, और कई मानव प्रजातियां अस्तित्व में थीं, तब कभी-कभी ऐसा भी होता था कि आदिमानवों के ये झुंड हमलावरों का निशाना बन जाते थे। ये हमलावर हिंसक पशु भी होते थे और दूसरी मानव प्रजातियां भी। झुंड पर हमला होने की सूरत में बचाव के दो ही रास्ते अमल में लाए जाते थे, या तो कुछ ताकतवर मर्द हमलावरों का बहादुरी से मुकाबला करते थे और पूरा झुंड बिखर जाता था, बूढ़े, बच्चे और महिलाऐं सब अलग-अलग दिशाओं में अंधाधुंध भाग निकलते थे। या फिर सभी एक ही जगह एक-दूसरे से ज्यादा से ज्यादा सटकर दुश्मन की ओर पीठ करके एक गोल झुंड बनाकर खड़े हो जाते थे। इस झुंड के बीचोंबीच बच्चों और महिलाओं को रखा जाता था और सभी पुरुष उन्हें चारों ओर से कई दायरों में घेरे रहते थे। ऐसे में हमलावर पशु बाहर से एक-दो पुरुषों का शिकार करके अपनी राह चला जाता था। सबसे बदतर हालात में भी महिलाएं-बच्चे और कुछ पुरुष तो बच ही जाते थे।
 ऐसे में जो लोग बच जाते थे वो इसे आसमान पर चमक रहे चंद्रमा या सूरज की कृपा मानकर उन्हें भेंट चढ़ाना और पूजा-पाठ करना शुरू कर देते थे। झुंड बनाकर एक जगह खड़े हो जाना ही हमलावरों से बचाव का सबसे कारगर तरीका था, क्योंकि मुकाबला करने वाले और बिखर जाने वाले लोग वापस नहीं आ पाते थे, जबकि सबसे खतरनाक हमले में भी एक जगह जमकर खड़े हो गए आदिमानवों के झुंड में काफी लोग बच जाते थे, जो अपने झुंड को आगे ले जाते थे।
आदिमानवों की यही प्रजाति बची रही, जबकि दूसरी सभी प्रजातियां एक के बाद एक खत्म हो गईं। हम उन लोगों की संतानें नहीं हैं जिन्होंने हमलावरों का बहादुरी से मुकाबला किया और खेत रहे, बल्कि हम उन लोगों की संतानें हैं जिन्होंने अपनी जान देकर भी झुंड के बच्चों और औरतों को जिंदा रखा, और प्राकृतिक शक्तियों का आभार मानते हुए आने वाली पीढ़ियों को जन्म दिया। आने वाले कल में भी झुंड सुरक्षित रहे इसलिए पूजा-पाठ के तमाम कर्मकांडों की शुरुआत हुई। इसीबीच सूरज-चांद-सितारों को देख लोग आने वाले भविष्य में घटने वाली घटनाओं का अनुमान लगाने लगे, ज्योतिष की शुरुआत बस यहीं से हुई।
आदिमानवों के एक से दो परिवार मिले, कबीले बसे, गांव-शहर बने और विकास की सीढ़ियां तय करते-करते हम मौजूदा अंतरिक्ष युग तक आ पहुंचे। विकास के दौरान ही कुछ लोगों को लगा कि देवताओं को खुश रखने के हमारे कर्मकांड और ज्योतिष शायद बेमानी हैं। हमारे भाग्य के मालिक आसमानों पर रहने वाले देवता नहीं बल्कि हम ही हैं। इस सोंच के साथ ही वैज्ञानिकता की शुरुआत हुई। हमने अपने कौशल और गलतियों से सीख लेते हुए अर्जित अनुभवों के बल पर परिस्थितियों को बदलना शुरू कर दिया। इस बदलाव की शुरुआत मौसम के प्रकोप से अपनी आबादी को बचाने के साथ हुई, लेकिन धरती के पूरे पारिस्थितिकी तंत्र को अपने फलने-फूलने लायक बना देने के बाद भी चीजों को बदलने की जिद अब भी जारी है।
इस जिद ने ही ये समझ दी कि मानव जाति के भविष्य को बनाने या बिगाड़ने के पीछे कोई अज्ञात दैवी शक्ति काम नहीं कर रही है। यहीं से ज्योतिष और खगोल विज्ञान की धाराएं अलग हो गईं। फसलों को बोने-काटने का समय जानने, आसमान में होने वाली पूर्णिमा-अमावस-ग्रहण जैसी खगोलीय घटनाओं और ग्रहों के नजर आने और छिपने के समय को जानने के लिए गणित की जरूरत हुई और इसी के साथ खगोल विज्ञान आगे बढ़ता गया। वहीं ज्योतिष शास्त्रियों ने आसमान पर हर रोज नजर आने वाले सितारों के झुरमुट में कुछ तस्वीरों का एक काल्पनिक पैटर्न खोज लिया और उन्हें राशियों का नाम दे दिया। ज्योतिष अब भी हजारों साल पुराने नियमों पर टिका है, जबकि खगोल विज्ञान लाखों साल आगे निकल चुका है। ज्योतिषी अब भी मानते हैं कि आसमान में तारामंडल 12 राशियों की शक्ल में मौजूद हैं, जबकि ये सच नहीं है। सच कहें तो राशियां 12 नहीं 13 हैं और 13 वीं राशि का नाम है ऑफिकस। लेकिन दुनिया की किसी भी ज्योतिषीय गणना में इस 13 वीं राशि के असर और इसके प्रकोप को शांत के अनुष्ठान का जिक्र नहीं है।
 मौजूदा ज्योतिषीय नियमों के मुताबिक किसी ने अगर जुलाई में जन्म लिया है, तो इसका अर्थ ये है कि जब वो पैदा हुआ उस वक्त सूरज कर्क राशि में था। ये गणना भी गलत है, दरअसल जब 2000 साल पहले ज्योतिष के नियम बनाए गए थे उस वक्त जुलाई महीने में सूरज कर्क राशि में ही होता था, लेकिन आज ये स्थिति बदल चुकी है। आमतौर पर हम अपने ग्रह पृथ्वी की दो तरह की गति के बारे में ही जानते हैं, एक तो लट्टू की तरह अपने अक्ष पर गति, जिससे दिन-रात का चक्र चलता है और दूसरी सूरज के चारों ओर परिक्रमा की गति जिससे मौसम बदलते हैं और साल बीतता है। लेकिन धरती की एक तीसरी गति भी है, और वो है लट्टू की तरह घूमती धरती के अक्ष की वृत्ताकार गति। किसी घूमते हुए लट्टू को ध्यान से देखें, लट्टू तो अपने अक्ष पर घूम की रहा होता है, लेकिन साथ ही लट्टू के अक्ष से जुड़ी आधार लकड़ी का ऊपरी सिरा भी गोल-गोल घूम रहा होता है। यही है पृथ्वी की तीसरी गति जिसे प्रिसेशन कहते हैं।
इस तीसरी गति के कारण करीब 2000 साल में पृथ्वी का ध्रुवतारा बदल जाता है, क्योंकि प्रिसेशन गति के कारण धरती का अपने अक्ष पर झुकाव भी बदलता रहता है। 2000 साल पहले हमारी धरती का ध्रुव तारा वेगा नाम का सितारा था, जो अब अक्ष के झुकाव के साथ बदलकर पोलारिस हो गया है। ज्योतिषीय गणनाओं में ध्रुवतारे का खास महत्व है, क्योंकि ध्रुव तारे को रेफरेंस मान कर ही आसमान में ग्रहों-नक्षत्रों की स्थिति की ज्योतिषीय गणना की जाती है। अब जबकि हमारा ध्रुव तारा ही बदल चुका है, ऐसे में 2000 साल पुराने ज्योतिषीय नियम और गणनाएं अपने आप ही बेमानी हो चुकी हैं, क्योंकि धरती की इस तीसरी गति के बारे में प्राचीन से लेकर आधुनिक ज्योतिषियों तक किसी को कोई जानकारी नहीं रही है, इसीलिए ज्योतिषीय नियमों को कभी बदलते आसमान के मुताबिक शुद्ध नहीं किया गया। आधुनिक विज्ञान को भी धरती की इस तीसरी गति के बारे में जानकारी भी अभी ही मिली है। पृथ्वी की इस तीसरी गति के कारण अक्ष के झुकाव में आए बदलाव के कारण 2000 साल पुराने आसमान और आज के आसमान में जमीन-आसमान का फर्क आ चुका है। आज के आसमान के इस हिसाब से जुलाई में पैदा होने वाले व्यक्तियों के लिए सूरज जैमिनी राशि में होता है, कर्क में नहीं।
ज्योतिषीय कॉलम पर यकीन रखने वाले लोगों को शायद ये जानकर धक्का लगे, लेकिन सच्चाई यही है कि अखबारों और पत्रिकाओं में छपने वाली तमाम ज्योतिषीय गणनाएं जाली और मनगढ़ंत होती हैं। इन भविष्यवाणियों का किसी गणित-किसी नियम से कोई ताल्लुक नहीं होता। ज्योतिषी अकसर ग्रहों की चाल और उनकी छाया का नाम लेकर लोगों को डराते हैं। हकीकत ये है कि 1781 तक दुनिया को पृथ्वी के अलावा केवल पांच ग्रहों के बारे में ही जानकारी थी, जिन्हें आसमान में देखा जा सकता था और ये पांच ग्रह थे- बुध, शुक्र, मंगल, बृहस्पति और शनि। 1781 में खगोल वैज्ञानिक सर विलियम हर्शेल ने आसमान में अपनी जगह बदलने वाले एक खगोलीय पिंड की खोज की, शुरुआत में लगा कि ये कोई धूमकेतु है, लेकिन बाद में इस पिंड की ग्रहीय पृवत्ति का पता लगा। हर्शेल ने जिसकी खोज की थी, वो था सातवां ग्रह यूरेनस। 1846 में एक और ग्रह की खोज हुई, ये था हमारे सौरमंडल का आठवां ग्रह नेप्च्यून। नेप्च्यून की खोज गणित और गहन खगोलीय ऑब्जरवेशन का कमाल था।
खास बात ये इन नए ग्रहों की खोज होने तक ज्योतिष इनसे अनजान था। भारतीय ज्योतिष की बात करें तो उसमें सूरज और चंद्रमा को भी ग्रह माना गया है, जो बुनियादी तौर पर ही एक बड़ी गलती है। इसके अलावा राहु-केतु नाम के दो छाया ग्रहों और उनके असर की बात की गई है। जो खुद छाया ग्रह हैं, उनकी छाया से आपका नुकसान हो सकता है, क्या ये बात हास्यास्पद नहीं। क्या बैंगलोर के किसी घर में रखी एक बाल्टी दिल्ली में रहने वाले किसी शर्मा जी की सेहत पर असर डाल सकती है? अगर नहीं तो हमसे लाखों किलोमीटर दूर मौजूद ये ग्रह हमारी-आपकी सेहत और किस्मत पर कैसे असर डाल सकते हैं? सबसे बड़ा सवाल ये कि अब खोजे जा रहे नए ग्रहों के असर के बारे में ज्योतिषी कुछ क्यों नहीं बताते? ज्योतिषीय गणनाओं का खोखलापन बस इसी से जाहिर हो जाता है।