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बुधवार, 25 मई 2011

लोग प्रलय, बर्बादी और नरसंहार की बातों में मजा क्यों लेते हैं?


अकसर ये कहा जाता है कि कल की चिंता छोड़ो आज में जियो, ये फलसफा इतना बुरा भी नहीं, साहिर लुधियानवी ने भी खूब कहा है कि आगे भी जाने न तू, पीछे भी जाने न तू, जो भी है बस यही इक पल है...दुनिया में सनसनी थी कि 21 मई को कुछ बुरा घटने वाला है, लोगों से बातचीत के दौरान भी मुझसे कई सवाल पूछे गए कि 21 मी को क्या प्रलय आने वाली है? खास बात ये कि पूछने वालों ने ये सवाल गंभीर मुखमुद्रा के साथ नहीं, बल्कि मुस्कराते हुए पूछा था। दरअसल वो डरे हुए नहीं थे, बल्कि इस सवाल और इस संबंध में होने वाली बातचीत में छिपे रोमांच की कल्पना उनका मनोरंजन कर रही थी। तो क्या लोग प्रलय, धरती का खात्मा, बर्बादी और नरसंहार जैसी चीजों में मजा लेते हैं? 
अमेरिकी क्रिश्चियन रेडियो ब्राडकॉस्टर हैरॉल्ड कैंपिंग ने मई के मध्य में दावा किया कि 21 मई ही वो दिन है जिसे बाईबिल में जजमेंट डे यानि फैसले का दिन कहा गया है। उन्होंने दावा किया कि 21 मई को ईसा मसीह स्वर्ग से धरती आएंगे और प्रलय के साथ लोगों को उनके पापों का दंड देंगे। कैंपिंग का दावा था कि उन्होंने बाईबिल में दर्ज घटनाओं की तारीखों की गहन छानबीन के बाद पता लगाया है कि 21 मई 2011 ही जजमेंट डे है, जब प्रलय के साथ दुष्टों का दमन होगा और ईसाई धरती से ऊपर उठकर आसमान में ईसा मसीह से मुलाकात करेंगे।   
भारत में इस खबर पर शुरुआत में कोई सुगबुगाहट नहीं हुई, लेकिन जैसे-जैसे 21 मई करीब आने लगी लोग इसपर बातें करने लगे। देश के कई शहरों में ईसाइयों ने बकायदा बोर्ड लगाकर इसका प्रचार किया। ये शायद पहली बार हुआ जब दुनिया के खात्मे का बकायदा विज्ञापन किया गया। 19 मई से समाचार चैनल भी इस मुद्दे पर कूद पड़े, और 20 मई की शाम को आज तक भी लोगों को डराने लगा कि कल दुनिया खत्म होने वाली है। 21 मई की सुबह से दोपहर तक ये खबर कई समाचार चैनलों की हेडलाइन में भी थी, लेकिन दोपहर बीतते-बीतते खबर उतर गई। रात 12 बजे के बाद तारीख भी बदल गई और सबकुछ पहले की तरह सही-सलामत रहा। न तो ईसा मसीह आसमान से धरती पर उतरे और न ही किसी ईसाई के आसमान तक उठ जाने की खबर आई।
अगर आप नास्तिक हैं तो कैंपिंग के दावे शुरू से ही आपको एक मजाक लगेंगे, लेकिन अगर आप आस्थावान हैं और ईसाई हैं, तो परेशान होना लाजिमी है। वॉशिंगटन के थिंक-टैंक और स्वतंत्र सर्वे एजेंसी प्यू रिसर्च सेंटर ने कैंपिंग के दावे के बाद अमेरिका में एक सर्वे किया, जिससे पता चला कि अमेरिका में 41 फीसदी लोग यकीन करते हैं कि 2050 से पहले ईसा मसीह धरती पर जरूर लौटेंगे। न्यूयार्क की एक न्यूज वेब साइट के मुताबिक अमेरिकी क्रिश्चियन रेडियो ब्राडकॉस्टर हैरॉल्ड कैंपिंग की 21 मई को प्रलय की भविष्यवाणी के बाद उनके कई समर्थकों ने अपनी तमाम जमीन-जायदाद बेच डाली और नौकरी-कारोबार सब छोड़-छाड़ कर फैसले के दिन यानि 21 मई का स्वागत करने के लिए प्रार्थनाओं में डूब गए।  
आखिर लोग प्रलय यानि दुनिया के खात्मे को लेकर इतने उत्साहित क्यों हैं? ऐसी भविष्यवाणियों में लोगों की गहरी दिलचस्पी का राज क्या है, जिनमें मानव जाति के खात्मे की बातें बढ़ा-चढ़ा कर की जाती हैं? आलोचकों का कहना है कि स्वार्थी तत्व पैसे कमाने के लिए और लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचने के लिए ऐसी भविष्यवाणियां करते हैं। यकीनन 21 मई को प्रलय की भविष्यवाणी करके बुजुर्ग हैरॉल्ड कैंपिंग और उनके रेडियो स्टेशन को वाकई फायदा हुआ है और वो मशहूर हो गए हैं। लेकिन कनाडा, मॉन्ट्रियल में मौजूद कॉनकॉर्डिया यूनिवर्सिटी के एसोसिएट प्रोफेसर आफ रिलिजन लॉरेन्जो डिटोमासो कहते हैं,'ये लोग अपनी आस्था से छले जाते हैं, वरना ये चीज काम नहीं करती।'
दूसरा सिद्धांत ये है कि प्रलय और दुनिया के खात्मे की भविष्यवाणी हमारी उस तीव्र उत्कंठा की पूर्ति करती है जो अज्ञात को जानने-समझने से संसंधित है। प्रो.डिटोमासो के मुताबिक हमारे आसपास की दुनिया को समझाने का एक ये भी तरीका है जो हममें एक उम्मीद, एक आशा भी पैदा करता है। वो कहते हैं,'अपनी सीमाओं के भीतर प्रलय की अवधारणा काफी तार्किक है। समय, स्पेस और मानव अस्तित्व के संबंध को समझाने का ये एक पौराणिक तरीका है। ये कोई साइंस नहीं है और न ही ये कोई सार्वभौम नियम है जो एक खास अंतराल में खुद को बार-बार दोहराए। लेकिन फिर भी ये कई चीजों की व्याख्या करता है।'
प्रो.डिटोमासो ये भी बताते हैं कि प्रलय की अवधारणा में दिलचस्पी लेने वाले लोगों में दुनिया को जानने-समझने की इच्छा दूसरों के मुकाबले कहीं ज्यादा होती है। ऐसे लोगों में जिंदगी को समझने की जिज्ञासा कहीं ज्यादा होती है। अपनी बात के समर्थन में प्रो. डिटोमासो इसाक न्यूटन का उदाहरण देते हैं, जिन्होंने जिंदगी का ज्यादा हिस्सा बाईबिल में लिखी बातों और भविष्यवाणियों को समझने में बिताया। अमेरिकी क्रिश्चियन रेडियो ब्राडकॉस्टर हैरॉल्ड कैंपिंग ने इससे पहले 1994 में दुनिया के खात्मे और जजमेंट डे की भविष्यवाणी की थी, जो गलत साबित हुई। इसपर कैंपिंग ने तब कहा था कि उनसे कुछ गणितीय भूलें हो गई हैं। इसबार 21 मई के शांति से गुजर जाने के बाद कैंपिंग हैरान हैं कि आखिर दुनिया बच कैसे गई?, मानव जाति का विनाश क्यों नहीं हुआ? और ईसा मसीह स्वर्ग से धरती पर क्यों नहीं आए? अब उन्होंने पापियों के नाश और जजमेंट-डे की नई तारीख बताई है 21 अक्टूबर 2011 और उनका कहना है कि इस बार तो प्रलय आ के रहेगी।
आपको जानकर हैरानी होगी कि हैरॉल्ड कैंपिंग के अनुयायी और उनकी भविष्यवाणी पर यकीन रखने वाले उनसे नाराज नहीं हैं, बल्कि 21 मई को प्रलय न आने पर चैन की सांस के साथ कैंपिंग की भविष्यवाणियों पर उनकी आस्था और भी गहरा गई है। ये अपनेआप में वाकई आश्चर्यजनक है, लेकिन मनोवैज्ञानिक अध्ययन बताते हैं कि इस तरह की भविष्यवाणियों के गलत साबित हो जाने के बाद लोगों का यकीन अपने भविष्यवक्ता या गुरु पर और भी मजबूत हो जाता है। मानव मनोविज्ञान की ये आधारभूत गड़बड़ी है जिसे कॉग्निटिव डिसोनेंस कहते हैं।
बहरहाल हैरॉल्ड कैंपिंग के अनुयायी अब 21 अक्टूबर को आने वाली प्रलय की तैयारियों में जुट गए हैं। हमें और आपको इसकी परवाह करने की जरूरत नहीं। हमारे लिए तो साहिर पहले ही कह गए हैं - आगे भी जाने न तू, पीछे भी जाने न तू, जो भी है बस यही इक पल है।
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किन्हीं तकनीकी गड़बड़ियों की वजह से समर्थकों की सूची प्रकाशित नहीं हो पा रही है, इसके लिए खेद है, अगर आपके पास कोई समाधान है तो कृपया अवगत कराएं - संपादक

शनिवार, 14 मई 2011

हम ‘रेडिएशन’ की दुनिया में रह रहे हैं!


धरती पर अपने अस्तित्व की शुरुआत से ही मानव जाति रेडिएशन को सह रही है। प्रकृति में यूरियम और थोरियम जैसे कुछ खास तत्व ऐसे हैं जिनसे घातक ऊर्जा की अदृश्य किरणें फूटती रहती हैं। ऐसे तत्वों को रेडियोएक्टिव कहते हैं और इनसे फूटने वाली ऊर्जा की किरणों को रेडिएशन। रेडिएशन केवल एटॉमिक पावर स्टेशंस या फिर केवल संशोधित रेडियोएक्टिव पदार्थों से ही नहीं फूटता, बल्कि ये प्राकृतिक रूप से भी फूटता रहता है। पृथ्वी के जन्म के समय से ही यूरेनियम और थोरियम जैसी रेडियोएक्टिव धातुओं के अणु धरती की ऊपरी पर्त में मौजूद हैं। इन धातुओं के क्षरण से एक रेडियोएक्टिव, रंगहीन, गंधहीन और स्वादहीन गैसें पैदा होती हैं, जिसका नाम है रेडॉन और थोरॉन । ये रेडियोएक्टिव गैसें धरती की ऊपरी पर्त से लगातार उत्सर्जित होती रहती हैं और वातावरण के संपर्क में आते ही इसका क्षरण रेडियोएक्टिव परमाणुओं यानि आइसोटोप्स में हो जाता है, जिसकी हाफ लाइफ 3 से 4 दिन की होती है। इस तरह रेडॉन गैस धूल कणों और संपर्क में आने वाली हवा तक को रेडिएशन से भर देती है। प्राकृतिक रेडिएशन का दूसरा सबसे बड़ा जरिया है कॉस्मिक किरणें, जो गहन अंतरिक्ष से गुजरती हुई हमारी पृथ्वी के वायुमंडल की ऊपरी पर्त से टकराती हैं और रेडियोएक्टिव परमाणुओं को जन्म देती हैं। लेकिन टेक्नोलॉजी के विकास ने मानव जनित रेडिएशन को जन्म दे दिया हैं, जैसे कि एक्स-रे, कंप्यूटर मॉनिटर, टेलीविजन, परमाणु ऊर्जा संयंत्र के हादसे, परमाणु हथियारों का परीक्षण, रेडियोएक्टिव परमाणु कचरे की कब्रगाह और दूसरे औद्योगिक, चिकित्सीय, कृषि क्षेत्रों में रेडियोआइसोटोप्स का इस्तेमाल।
इनके अलावा सेल फोन्स और इनके टॉवर्स, कॉर्डलेस फोन्स, सेटेलाइट डिजिटल टीवी, राडार, वायरलेस इंटरनेट और स्कूलों-दफ्तरों में वायरलेस लैन्स के बढ़ते इस्तेमाल से इलेक्ट्रोमैग्नेटिक रेडिएशन, खासतौर पर माइक्रोवेव्स रेडिएशन हमारी सेहत के लिए खतरा बनकर सामने आया है। 
एक्स-रे रेडिएशन 
रेडिएशन का सबसे जाना-पहचाना जरिया है एक्स-रे। एक्स-रे कुछ और नहीं बल्कि सूरज की रोशनी की तरह ऊर्जा की किरणें हैं जो तरंग के रूप में होती हैं। सूरज की रोशनी और एक्स-रे में कोई बहुत ज्यादा अंतर नहीं है। सूरज की रोशनी में इतनी ऊर्जा नहीं होती कि वो हमारे शरीर से आर-पार गुजर सके, जबकि एक्स-रे ऊर्जा यानि रेडिएशन से इस कदर भरी होती है कि आसानी से हमारे शरीर के आर-पार गुजर जाती है। लेकिन ये काफी नुकसानदेह भी होती है, क्योंकि अगर इनकी ऊर्जा को कम न किया जाए तो एक्स-रे का एक प्रहार भी जानलेवा साबित हो सकता है। इस खतरे की वजह से दुनियाभर के चिकित्सा क्षेत्र में अब एक्स-रे का इस्तेमाल बंद करने पर जोर दिया जा रहा है।
आपके आस-पास के अस्पतालों में लगी मशीन से एक्स-रे करवाने पर आपका शरीर 0.2 मिलीसीवर्ट से लेकर  0.1 मिलीसीवर्ट तक रेडिएशन की मार झेलता है। रेडिएशन की ये मात्रा इतनी है जितना कि आप एक महीने में प्राकृतिक रेडिएशन को झेलते हैं। सबसे खतरनाक डेंटल एक्स-रे है। डेंटिस्ट क्लीनिक में जाकर एक बार डेंटल एक्स-रे करवाने पर आपके चेहरे को 2 से 3 मिलीसीवर्ट तक के रेडिएशन की गहरी मार झेलनी पड़ती है। हमारा शरीर जितने प्राकृतिक रेडिएशन को एक साल में बर्दाश्त करता है, उतना रेडिएशन डेंटल एक्स-रे मशीन एक बार में ही हमें दे देती है। एक अध्ययन के अनुसार दुनिया में सबसे ज्यादा एक्स-रे भारत में किया जाता है। इससे आप स्थिति की गंभीरता का अंदाजा खुद ही लगा सकते हैं। 
एक्स-रे मशीन के रेडिएशन से बचने का रास्ता भी काफी आसान है, अपना एक्स-रे करवाते वक्त देख लें कि मशीन जिस कमरे में लगी है, वो छोटा या संकरा सा न हो। साथ ही ये भी देखें कि एक्स-रे मशीन पुरानी न हो। याद रखें, एक्स-रे कोई मजाक नहीं है, इसलिए एक्स-रे तभी कराएं जब कोई दूसरा रास्ता न हो। क्योंकि बार-बार का एक्स-रे कैंसर को भी जन्म दे सकता है। 
मेट्रो के मुसाफिर सावधान रहें 
एक्स-रे मशीन के रेडिएशन से हमारा सामना हर रोज राजधानी दिल्ली के तमाम मेट्रो स्टेशंस पर होता है। मेटल डिटेक्टर से चेकिंग कराने के बाद आप अपना सामान चेकिंग के लिए जिस मशीन में डालते हैं वो एक्स-रे मशीन ही होती है। सामान चेक करने वाली ये एक्स-रे मशीन रेलवे स्टेशंस और हवाई अड्डों पर भी लगी हुई हैं। हालांकि इन मशीनों का एक्स-रे रेडिएशन अस्पताल की मशीनों के मुकाबले काफी कम होता है, फिरभी ये एक्स-रे इतनी नुकसानदेह जरूर होती है कि वो बैग में रखे आपके खाने, फल और पानी को रेडिएशन से भर दे। इसलिए एक्स-रे मशीन में चेकिंग के लिए अपने सामान को डालने से पहले खाने-पीने का सारा सामान बाहर निकालना न भूलें। अगर आपने खाने-पीने का सामान नहीं निकाला है तो चेकिंग मशीन से गुजरने के बाद उसका इस्तेमाल न करें।
अंतरराष्ट्रीय हवाईअड्डों पर फुलबॉडी एक्स-रे स्कैनर मशीनों का इस्तेमाल किया जा रहा है। रेडिएशन के मामले में ये मशीनें सुरक्षित नहीं हैं। अमेरिका की ट्रांसपोर्टेशन सिक्योरिटी एडमिनिस्ट्रेशन ने 38 एयरपोर्ट्स में लगी 247 फुलबॉडी एक्स-रे स्कैनर मशीनों का परीक्षण किया तो पता चला कि इन मशीनों से तय मानक से 10 गुना ज्यादा रेडिएशन उत्सर्जित हो रहा है।
 कंप्यूटर, लैपटॉप और टेलीविजन से रेडिएशन
 अगर आप पिक्चर ट्यूब वाले पुराने मॉडल के टेलीविजन और टेलीविजन जैसे भारी-भरकम कंप्यूटर मॉनिटर्स का इस्तेमाल कर रहे हैं, तो इनसे निकलने वाले इलेक्ट्रो मैग्नेटिक रेडिएशन से अपनी और अपने परिवार की सुरक्षा का इंतजाम तुरंत करें। पुरानी एक्स-रे मशीनों और इन टीवी सेट्स और टेलीविजन जैसे कंप्यूटर मॉनिटर्स में एक समानता है, इन सबमें इलेक्ट्रॉन गन कैथोड-रे-ट्यूब का इस्तेमाल किया जाता है। टेलीविजन और कंप्यूटर मॉनिटर की पिक्चर ट्यूब में इसी कैथोड-रे-ट्यूब का प्रयोग किया जाता है, जिससे रेडिएशन भी निकलता है। पुराने टीवी और कंप्यूटर मॉनिटर्स में सामने से उतना रेडिएशन नहीं निकलता जितना इनके पीछे और अगल-बगल से। हालांकि इनसे निकलने वाला रेडिएशन काफी कम मात्रा का होता है, लेकिन अगर आप कई घंटे तक इनका इस्तेमाल करते रहें तो ये रेडिएशन सेहत को नुकसान पहुंचा सकता है। अमेरिकी फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन की रिपोर्ट के मुताबिक असुरक्षित दूरी से पिक्चर ट्यूब वाले टेलीविजन को एक घंटे तक देखने वाला दर्शक 0.5 मिली रॉंटजन तक रेडिएशन सहता है। इसलिए पहली सलाह तो ये कि पिक्चर ट्यूब वाले टेलीविजन के रेडिएशन से बचने के लिए कम से कम 3 फुट की दूरी से टीवी देखना चाहिए। दूसरी सलाह ये कि संभव हो तो पिक्चर ट्यूब वाले टेलीविजन को बदलकर एलसीडी टीवी ले आइए।
कंप्यूटर से रेडिएशन का असली खतरा उसके टेलीविजन जैसे मॉनीटर से है। अगर आप पुराने मॉनिटर का इस्तेमाल कर रहे हों तो उसे अपने से कम से कम 3 फुट की दूरी पर रखें। अब नए टीएफटी मॉनिटर्स आ गए हैं, ये अपेक्षाकृत सुरक्षित हैं। टीएफटी के एलसीडी मॉनिटर्स भी रेडिएशन उत्सर्जित करते हैं, लेकिन इनकी मात्रा बेहद कम होती है और इसका असर बस एक फुट यानि 30 सेंटीमीटर के दायरे तक ही रहता है, इसलिए आपके कंप्यूटर में यदि टीएफटी मॉनिटर लगा हो तो उसे खुद से कम से कम एक फुट दूर रखिए।
अब बात करते हैं लैपटॉप की, रेडिएशन के मामले में लैपटॉप भी सुरक्षित नहीं है। अगर आप इसे अपनी गोद में रखकर और स्क्रीन के बेहद करीब से इसका इस्तेमाल करते हैं, तो ये बेहद नुकसानदेह साबित हो सकता है। क्योंकि आपका लैपटॉप एक फुट के दायरे में 1 मिलीगौस तक का रेडिएशन छोड़ता है, लेकिन जब आप चैटिंग करने या वीडियो कॉल करने के लिए इसकी स्क्रीन के बेहद करीब होते हैं, तब आपका शरीर लैपटॉप से 20 मिलीगौस तक का रेडिएशन झेल रहा होता है। लैपटॉप को गोद पर रखकर इस्तेमाल करने की सलाह बिल्कुल नहीं दी जाती, क्योंकि इस स्थिति में लैपटॉप से फूटने वाले रेडिएशन का सीधा असर आपके जननांगों पर होता है। फुट
 वायरलेस इंटरनेट और सीपीयू
 घर और दफ्तर में वायरलेस इंटरनेट का इस्तेमाल एक आम बात है...लेकिन इसके लिए जिस वाई-फाई या वायरलेस सिस्टम का इस्तेमाल किया जाता है, उससे भी रेडिएशन फूटता है। कंप्यूटर्स को लगातार पावर सप्लाई करने के लिए जिस यूपीएस का इस्तेमाल हर घर और दफ्तर में होता है, उससे भी घातक रेडिएशन फूटता पाया गया है। छोटा सा सीपीयू रेडिएशन छोड़ने के मामले में टेलीविजन, कंप्यूटर मॉनिटर्स और लैपटॉप सबको पीछे छोड़ देता है। एक सामान्य सीपीयू से एक फुट के दायरे में 20 मिलीगौस तक घातक रेडिएशन निकल सकता है, जबकि एक मीटर दूर जाने पर सीपीयू के रेडिएशन की मात्रा घटकर 1 मिलीगौस तक रह जाती है। इसलिए सलाह ये दी जाती है कि कंप्यूटर की अपनी सीट से सीपीयू को कम से कम डेढ़ मीटर दूर रखें। इंटरनेट का इस्तेमाल सीधे केबल से करें, वायरलेस इंटरनेट का इस्तेमाल कम से कम करें। कंप्यूटर तभी ऑन करें जब जरूरत हो, कंप्यूटर के साथ मॉनिटर को बिना किसी काम के घंटों ऑन रखना सेहत के लिए सुरक्षित नहीं है। मूड अगर कंप्यूटर पर गाने सुनने का है तो मॉनीटर ऑफ करके गाने सुनिए।
इतना ही नहीं प्रिटर, फोटोकॉपियर और फैक्स मशीन से भी हल्का रेडिएशन निकलता है, इसलिए इन मशीनों से कम से कम 3 फुट की दूरी बना कर काम करें।
 मोबाइल रेडिएशन
 केंद्र सरकार की अंतर-मंत्रिपरिषद समिति ने देश में सेलफोन और उनके टॉवर से निकलने वाले इलेक्ट्रोमैग्निक रेडिएशन की वजह से मानव स्वास्थ्य पर पड़ने वाले विपरीत प्रभावों का अध्ययन किया है। समिति ने इस बात की सिफारिश की है कि रेडिएशन संबंधी मौजूदा मानकों में तुरंत बदलाव किया जाना बेहद जरूरी है। समिति की रिपोर्ट के अनुसार सेल फोन मानव स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह हैं, क्योंकि ये आरएफ यानि रेडियो फ्रीक्वेंसी का रेडिएशन उत्सर्जित करते हैं।
सेल फोन और इनके टॉवर्स का इस्तेमाल सुरक्षित बनाने के लिए समिति ने कई सिफारिशें की हैं, इनमें से मुख्य सिफारिशें हैं कि घनी आबादी वाले इलाकों में सेलफोन टॉवर्स पर सख्त पाबंदी लगाई जाए, इन सेलफोन टॉवर्स से रेडियो फ्रीक्वेंसी के जिस स्तर के प्रसारण की अनुमति दी गई है, उस स्तर को कम से कम दसवें हिस्से तक घटाया जाए, स्पेसेफिक एब्जॉर्पशन रेट यानि एसएआर के जिस स्तर को मंजूरी दी गई है उसे और कम किया जाए और साथ ही एक मॉनीटरिंग नेटवर्क की स्थापना की जाए जो ये समय-समय पर जांच करके ये सुनिश्चित करे कि तमाम प्रावधानों का पालन किया जा रहा है। यहां ये जानना जरूरी है कि स्पेसेफिक एब्जॉर्पशन रेट यानि एसएआर मोबाइल फोन और इनके टॉवर्स से निकलने वाले माइक्रोवेव रेडिएशन को मापने की इकाई है और इससे हम ये पता लगाते हैं कि मोबाइल फोन का कितना रेडिएशन हमारे लिए नुकसानदेह नहीं है।
वर्तमान में देश में काम कर रही मोबाइल कंपनियां इंटरनेशनल कमीशन ऑन नॉन-आयनाइजिंग प्रोटेक्शन यानि आईसीएनआईआरपी के उत्सर्जन मानकों का पालन कर रही हैं, जिसे विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी मंजूरी दे रखी है। लेकिन अंतर-मंत्रिपरिषद समिति ने अपनी रिपोर्ट में चेतावनी दी है कि सेल फोन और इनके टॉवर्स से निकले वाले माइक्रोवेव रेडिएशन के संबंध में आईसीएनआईआरपी के उत्सर्जन मानक भारतीय नागरिकों के लिए सुरक्षित नहीं हैं। यूरोप के मुकाबले भारत की जलवायु गर्म और उष्णकटिबंधीय है इसके अलावा यूरोप के लोगों की शारीरिक बनावट की अपेक्षा औसत भारतीय कम लंबाई वाला और दुबला-पतला होता है। ऐसे में मोबाइल टॉवर और सेल फोन से यूरोपियन मानक वाली रेडियो माइक्रोवेव रेडिएशन का देश में प्रसारण भारतीयों की सेहत के लिए एक बड़ा जोखिम है।
बहरहाल मंत्रिपरिषदीय समिति की इन सिफारिशों पर अमल होना बाकी है। वर्तमान में देश में मोबाइल टॉवर्स को लगाने पर कोई रोक-टोक नहीं है। नियंत्रण के नाम पर बस कुछ प्रदूषण संबंधी मानक हैं, मोबाइल ऑपरेटर्स कंपनियों को जिनका पालन करना होता है। सरकार की चिंता इस बात को लेकर ज्यादा है कि मोबाइल टॉवर को चलाने के लिए कंपनियां जो साथ में जनरेटर लगाती हैं, उससे धुआं कितना निकलता है। लेकिन इन टॉवर्स से कितने उच्च स्तर का कितना घातक माइक्रोवेव रेडिएशन निकल रहा है इसे लेकर कोई खास परेशानी नहीं है। कोई प्रभावी नियम और निगरानी व्यवस्था न होने से ही देश के हर छोटे-बड़े शहर के रिहायिशी इलाकों में मोबाइल टॉवर्स का जाल फैला नजर आता है। जानकारी के अभाव में भोले मकान मालिकों के लिए तो छत पर लगा मोबाइल टॉवर शान की बात भी है और आसान कमाई का जरिया भी। समिति ने अपनी रिपोर्ट में इस बात पर चिंता भी जताई है कि हाल के कुछ वर्षों में सेलफोन और इनके टॉवर से उत्सर्जित होने वाले माइक्रोवेव रेडिएशन के स्तर में भारी बढ़ोतरी हुई है, ये गंभीर चिंता का विषय है। अपनी रिपोर्ट में समिति ने उन सभी लोगों को, जिन्होंने पेसमेकर जैसे मेडिकल इम्प्लांट्स लगवा रखे हैं, सुझाव दिया है कि उन्हें हर वक्त सेल फोन से कम से कम 30 सेंटीमीटर यानि एक फुट की दूरी बनाए रखनी चाहिए। 
हाल ही में दिल्ली में लगे मोबाइल टॉवर्स और सेल फोन से होने वाले माइक्रोवेव रेडिएशन का व्यापक सर्वे किया गया। सर्वे में पता चला कि 2006 में राजधानी में केवल 1800 मोबाइल टॉवर्स थे, जिनकी तादाद अब बढ़कर 6000 तक हो चुकी है। केवल मोबाइल टॉवर्स के बढ़ जाने भर से दिल्ली की हवा में मौजूद इलेक्ट्रो मैग्नेटिक रेडिएशन के स्तर में हजार गुना तक की बढ़ोतरी हो चुकी है। दिल्ली के लिए इलेक्ट्रो मैग्नेटिक रेडिएशन का सुरक्षित स्तर एक वर्ग मीटर क्षेत्र के लिए 600 मिलीवॉट का माना गया है। लेकिन जब सर्वे में शामिल वैज्ञानिकों ने इस सुरक्षित मानक वाले माइक्रोवेव रेडिएशन वाले इलाके की खोज में दिल्ली का दौरा किया तो पता चला कि ये सुरक्षित मानक वाला माइक्रोवेव रेडिएशन केवल दिल्ली के एक बटा पांचवें हिस्से में ही है। और आपको ये जानकर ज्यादा हैरानी नहीं होगी कि मोबाइल टॉवर और सेल फोन से निकलने वाले माइक्रोवेव रेडिएशन के सुरक्षित स्तर वाला ये इलाका दिल्ली का वीवीआईपी क्षेत्र है।
बैकग्राउंड रेडिएशन
एक्स-रे, टेलीविजन, कंप्यूटर मॉनिटर, ज्यादातर इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों और मोबाइल समेत सभी वायरलेस मशीनों से निकलने वाले इलेक्ट्रोमैग्नेटिक रेडिएशन के बारे में हमने जानकारी ली। अब हम बात करते हैं उस प्राकृतिक रेडिएशन की जो हमारे चारों ओर मौजूद है। हम सभी रेडिएशन युक्त माहौल में रहते और काम करते हैं, लेकिन इससे घबराने की जरूरत इसलिए नहीं है, क्योंकि हमारे आसपास मौजूद प्राकृतिक रेडिएशन का स्तर इतना कम रहता है, कि हमें नुकसान नहीं पहुंचा सकता। 
भारतीय परमाणु ऊर्जा विभाग ने देश में प्राकृतिक रेडिएशन जिसे बैकग्राउंड रेडिएशन भी कहते हैं, की स्थित जानने के लिए देशव्यापी अध्ययन के बाद रिपोर्ट तैयार की है। इस रिपोर्ट के अनुसार, प्राकृतिक रेडिएशन के मुख्य स्रोत हैं- कॉस्मिक किरणें, धरती की ऊपरी पर्त और इमारत निर्माण सामग्री में मौजूद यूरेनियम-थोरियम जैसे रेडियोएक्टिव परमाणुओं की मौजूदगी, खान-पान के साथ इनका हमारे शरीर में जाना और रेडॉन-थोरॉन जैसी रेडियोएक्टिव गैसों का हमारी सांस के साथ फेफड़ों में प्रवेश। कुछ प्राकृतिक रेडिएशन ऐसे हैं जिनका स्तर पूरी दुनिया में एकसमान रहता है, जबकि कुछ प्राकृतिक रेडिएशन ऐसे हैं, जिनका स्तर अलग-अलग भौगोलिक स्थितियों के अनुसार बदलता रहता है। दरअसल, वातावरण के संपर्क में आकर यूरेनियम रेडॉन गैस और थोरियम थोरॉन गैस बनाते हैं, ये दोनों गैसें रंगहीन, गंधहीन और रेडियोएक्टिव होती हैं। अगर किसी जगह धरती की पर्त में यूरेनियम और थोरियम की मौजूदगी ज्यादा है, तो वहां रेडॉन और थोरॉन गैस का जमाव भी ज्यादा होगा, इसका सीधा मतलब ये है कि उस जगह प्राकृतिक रेडिएशन का स्तर सामान्य से अधिक होगा।
प्राकृतिक रेडिएशन का एक और स्त्रोत कॉस्मिक किरणें हैं। पृथ्वी के वायुमंडल में लगातार उच्च ऊर्जा वाली कॉस्मिक किरणों की बौछार अंतरिक्ष से होती रहती है। हालांकि पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र ज्यादातर कॉस्मिक किरणों को रोक देता है, लेकिन फिरभी कॉस्मिक किरणों में मौजूद उच्च रेडिएशन से भरे कुछ  रेडियोएक्टिव कण आर-पार भी निकल जाते हैं। भारतीय परमाणु ऊर्जा विभाग की रिपोर्ट के अनुसार दुनियाभर में कॉस्मिक किरणों के सामान्य रेडिएशन का सालाना स्तर 0.26 से 2 माइक्रोसीवर्ट के बीच है। खास बात ये कि ऊंचाई वाले इलाकों जैसे पहाड़ी क्षेत्रों में कॉस्मिक किरणों के रेडिएशन का स्तर मैदानी इलाकों की अपेक्षा ज्यादा पाया गया है। इस रिपोर्ट के अनुसार कश्मीर के गुलमर्ग में रहने वाले लोगों को कास्मिक किरणों से करीब 830 मिलीसीवर्ट तक का रेडिएशन हर साल झेलना पड़ता है। ये सामान्य से कहीं ज्यादा है। देश भर में प्राकृतिक रेडिएशन का स्तर जानने के लिए किए गए सर्वे के मुताबिक भारत में प्राकृतिक गामा-किरणों का कुल रेडिएशन औसतन 0.734 मिलीसीवर्ट सालाना पाया गया है। सर्वे रिपोर्ट के अनुसार देशभर में रेडॉन और थोरॉन जैसी रेडियोएक्टिव गैसों की वजह से होने वाले औसत रेडिएशन का स्तर 1.235 माइक्रोसीवर्ट सालाना है।
रेडॉन और थोरॉन जैसी रेडियोएक्टिव गैसों से होने वाला रेडिएशन खतरनाक स्तर तक भी बढ़ सकता है, क्योंकि ये गैसें जमीन से लगातार निकलती रहती हैं। खुले मैदान में तो हवा इन गैसों के रेडियोएक्टिव परमाणुओं को एक जगह जमने नहीं देती, लेकिन बंद कमरे या फिर तहखानों में इनका जमाव होता रहता है और इसी के साथ रेडिएशन का स्तर भी बढ़ता रहता है। एक अध्ययन के अनुसार रेडॉन गैस हर पत्थर से निकलती है, इसलिए संगमरमर की फर्श से लेकर किचन में लगे ग्रेनाइट तक सब रेडिएशन से भरी रेडॉन गैस को उत्सर्जित करते रहते हैं।
अब सवाल ये कि प्राकृतिक रेडिएशन से बचाव का तरीका क्या है? कॉस्मिक किरणों से होने वाले रेडिएशन से बचाव के लिए शरीर के अंगों को ज्यादा से ज्यादा ढंके रहें और ऊंचाई वाले इलाकों जैसे पहाड़ी इलाकों में ज्यादा वक्त न बिताएं। धरती से फूटने वाली रेडियोएक्टिव गैसों रेडॉन और थोरॉन से बचाव आसान है, लंबे वक्त से बंद पड़े घर या तहखाने में जाने से पहले वहां की खिड़कियां, रोशनदान और दरवाजे खोल दें,ताकि अंदर इकट्ठा हो चुकी गैस बाहर निकल जाए। अगर आप लंबी छु़ट्टियों पर जा रहे हैं तो इसका इंतजाम करके जाएं कि आपके घर में हवा का आवागमन बना रहे। अमेरिका में लकड़ी को प्राकृतिक रेडिएशन के बचाव का सबसे अच्छा तरीका माना जाता है, इसीलिए वहां ज्यादातर घर लकड़ी से बनाए जाते हैं। हमें इससे सीख ले सकते हैं, अपने घरों में पत्थर की फर्श के बजाए लकड़ी की फ्लोरिंग करवा कर रेडॉन गैस से बचाव कर सकते हैं।
आईआईटी कानपुर ने सामान्य गोबर को रेडिएशन विरोधी पाया है, इसलिए ग्रामीण इलाकों में फर्श और दीवारों पर गोबर का लेप करना प्राकृतिक रेडिएशन की रोकथाम का बेहतरीन उपाय है।
गढ़वाल, झारखंड और केरल के कुछ इलाके ऐसे हैं जहां प्राकृतिक रेडिएशन का स्तर सालभर सामान्य से बहुत ज्यादा रहता है। देश में प्राकृतिक रेडिएशन का सबसे ऊंचा स्तर केरल के छेवरा में पाया गया है, जबकि लक्ष्यद्वीप के मिनिकोए में इसका स्तर सबसे कम पाया गया है। दुनियाभर में प्राकृतिक रेडिएशन का सालाना स्तर 2.455 मिलीसीवर्ट मापा गया है, जबकि भारत में इसका स्तर अपेक्षाकृत कम 2.299 मिलीसीवर्ट है। दुनियाभर में अब प्राकृतिक रेडिएशन को लेकर चिंता बढ़ी है, क्योंकि इसका बढ़ता स्तर कई बीमारियों की वजह बनता जा रहा है।