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बुधवार, 24 सितंबर 2014

रोटी जरूरी है या मंगल और चांद पर जाना?...

हमें पहले क्या करना चाहिए? रोटी जरूरी है या मंगल और चांद पर जाना? इस मुद्दे पर इसरो चीफ के राधाकृष्णन के विचार, मंगलयान के मंगल की कक्षा में सफल प्रवेश के अवसर पर वॉयेजर की खास प्रस्तुति-

'इसरो में ये सवाल हमलोग हर दिन खुद से पूछते हैं. हम इस बारे में सोचते हैं कि हम जो कर रहे हैं इससे जनता को, सरकार को फायदा होता है या नहीं. इसरो का काम सिर्फ रॉकेट उड़ाना नहीं है. 24 सेटेलाइट हैं अंतरिक्ष में हमारे. बड़ा कम्यूनिकेशन इनफ्रास्ट्रक्चर बनाया है हमने. करीबन 200 ट्रांसपॉन्डर हैं जिनके जरिए मछुआरों की मदद हो रही है. उन्हें समुद्र में किस जगह पर ज्यादा मछली मिलेगी, इसकी जानकारी उपलब्ध कराते हैं हम.
 हम गलत अवधारणा में हैं कि इसरो का काम सिर्फ रॉकेट उड़ाना है. बल्कि हम जो काम करते हैं वो सीधे या फिर परोक्ष तौर पर देश की सरकार और जनता के हित में काम आता है. इसरो द्वारा भेजा गया रॉकेट और सेटेलाइट लोगों को रोटी देने का काम भी करता है. किसी किसान या फिर मछुआरे से पूछिए.
वैज्ञानिक समझ को बढ़ाने के साथ तकनीकी बेहतरी पर इसरो ने बहुत कुछ किया है. मिशन टू मून हो या मिशन टू मार्स, इसरो ने सिर्फ ये दो काम ही नहीं किए. हमने स्ट्रेटजिक मूवमेंट में भी अहम भूमिका निभाई है.
1960 से आज तक यही पूछा जाता है कि भारत जैसे गरीब देश को स्पेस में एयरक्राफ्ट भेजना चाहिए या नहीं? हर प्रोजेक्ट के साथ यही सवाल उठता है. ये सवाल उठते रहेंगे. पर मैं भी एक सवाल पूछना चाहता हूं कि क्या भारत जैसे देश को स्पेस साइंस में इनवेस्ट नहीं करना चाहिए, जो सुपरपावर बनना चाहता है?
फसलों से बेहतर उपज, तूफान की जानकारी, इस तरह की अहम जानकारियां जुटाने में हमारे सेटेलाइट काम में आ रहे हैं. तूफान फेलिन की जानकारी इनसेट सेटेलाइट से मिली. करीब 400 से ज्यादा तस्वीरें हमें मिलीं जिसके जरिए हजारों जानें बचाई जा सकीं. हमारे पास रॉकेट होने चाहिए क्योंकि सेटेलाइट्स को अंतरिक्ष में भेजना है. भूख मिटाना जरूरी है पर स्पेस साइंस को नजरअंदाज नहीं कर सकते. आखिरकार ये भी तो रोटी देने में मदद करता है.'
(इंडिया टुडे कॉन्क्लेव में Rockets vs Rotis में इसरो प्रमुख डॉ.के राधाकृष्णन के व्याख्यान के अंश)

...इसलिए, मंगल पर हमारा जाना जरूरी है!

 ‘मार्स ऑरबिटर मिशन’ की कामयाबी के साथ ही एक पुराना सवाल फिर सामने है कि क्या भारत जैसे विकासशील देश में, जहां भारी तादाद में लोग अब भी शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार जैसी बुनियादी जरूरतों के पूरा होने का इंतजार कर रहे हैं, वहां 450 करोड़ रुपये मंगल अभियान पर खर्च करना जायज है? ये एक सार्वकालिक सवाल है और केवल भारत ही नहीं बल्कि अमेरिका जैसे विकसित देशों में भी वैज्ञानिक समुदाय को इन सवालों का सामना करना पड़ता है. इस बार मंगलयान के साथ ये सवाल कुछ ज्यादा ही जोरदारी के साथ उठाया गया. एक न्यूज चैनल ने तो बकायदा ये भी दिखाया कि 450 करोड़ रुपये में सरकार लोगों के लिए क्या-क्या काम कर सकती थी.
बात केवल मंगलयान की नहीं है. भारत के कुछ और साइंस प्रोजेक्ट्स आने वाले वक्त में पूरे होने हैं, जिनकी लागत करोड़ों में है, मिसाल के तौर पर तमिलनाडु के पास बन रही देश की पहली अंडरग्राउंड न्यट्रिनो लैब, जिसकी लागत 150 करोड़ रुपये से ज्यादा है, उत्तराखंड के देवस्थल में एशिया के सबसे बड़े 13.5 मीटर के टेलिस्कोप की ऑब्जरवेटरी को बनाने का काम जारी है जिसकी लागत करीब 120 करोड़ रुपये है, चंद्रयान-2 जिसकी लागत 426 करोड़ रुपये है और इसके अलावा भारत आर्कटिक और अंटार्कटिक में स्थायी स्टेशंस चला रहा है, जिसकी सालाना लागत भी कई सौ करोड़ है. सवाल फिर वही कि क्या भारत को साइंस पर भारी खर्च करना चाहिए?
 देश में बीएमडब्लू जैसी करोड़ों की कीमत वाली विदेशी गाड़ियों के बढ़ते महंगे शौक की बात न भी करें तो मंगलयान और साइंस के दूसरे प्रोजेक्ट्स पर हो रहे खर्च पर हाय-तौबा मचाने वाले लोग ये भूल जाते हैं भारत साइंस पर जितना खर्च करता है, उससे कई गुना ज्यादा पैसा इस देश में लोग सिगरेट और शराब पर उड़ा रहे हैं. भारत में सिगरेट का सालाना बाजार 720 अरब रुपये का है. आईटीसी जैसे सिगरेट के बड़े ब्रांड इसे और विस्तार देने के लिए जल्दी ही 25000 करोड़ रुपये और खर्च करने जा रहे हैं. शराब की बात करें तो देश में इस नशे का फुटकर बाजार 2100 अरब रुपये का है. इस नशीले एश्वर्य में झूमते विजय माल्या जैसे लोग फार्मूला-वन और कैसीनो जैसी चीजों को देश में ला रहे हैं और नई पीढ़ी के ‘रोल मॉडल’ बन रहे हैं. लोग सिगरेट और शराब पर एक साल में 2800 अरब रुपये से ज्यादा उड़ा रहे हैं. ये रकम इस बार के केंद्रीय बजट में दर्शाये गए देश के कुल वास्तविक खर्च से भी ज्यादा है.
जब भी हम साइंस पर खर्च करते हैं, अंतरिक्ष पर खर्च करते हैं या किसी नई खोज के लिए खर्च करते हैं, तो हमेशा ये निवेश बोनस के साथ कई-कई रास्तों से वापस हमारे पास लौटता है. ‘चंद्रयान’ देश के अंतरिक्ष अनुसंधान का टर्निंग प्वाइंट साबित हुआ था. चंद्रयान की लागत 354 करोड़ रुपये थी, लेकिन जब चंद्रयान ने चंद्रमा पर पानी खोज निकाला तो इससे देश को जो विश्वस्तरीय प्रतिष्ठा अर्जित हुई वो नासा और यूरोपियन स्पेस एजेंसी को दशकों की मेहनत और अरबों डॉलर खर्च करके भी नहीं मिल सकी थी.
साइंस अनुसंधान पर होने वाला खर्च मानवता के लिए जीवन बीमा के जैसा निवेश है, जो हमेशा मानवता के भविष्य को बेहतर और सुरक्षित बनाने के लिए किया जाता है. यही वजह है कि 100 साल से ज्यादा वक्त और बीत जाने के बावजूद कैंसर पर रिसर्च अब भी जारी है. एड्स पर विजय पाने की जंग भी पिछले 30 साल से लगातार जारी है. इन लड़ाइयों पर अब तक अरबों डॉलर खर्च हो चुके हैं, वैज्ञानिकों की कई पीढ़ियों ने बगैर किसी ठोस नतीजे के अपनी पूरी जिंदगी इन रोगों पर विजय पाने की कोशिश में खपा दी है. लेकिन समय, पैसे और प्रतिभा के इस लंबे और लगातार निवेश के बदौलत ही अब हमें इन रोगों की लड़ाईयों की अंधी सुरंगों के दूसरे सिरे पर उम्मीद की रोशनी नजर आ रही है. एचआईवी पर काबू पा लिया गया है और कैंसर के खिलाफ भी निर्णायक टीका बस आने को है.
 भारत में जरूरत इस बात की है कि वैज्ञानिक अनुसंधान पर होने वाले सकल खर्च को व्यवस्थित और जवाबदेह बनाया जाए. मैंने जब सीएसआईआर के महानिदेशक समीर ब्रह्मचारी से पूछा कि पिछले 5 साल के दौरान आपकी सबसे बड़ी उपलब्धि क्या रही? तो काफी याद करने के बाद उन्होंने ‘ई-रिक्शा’ का नाम लिया. अब अगर देशभर में दर्जनों प्रयोगशालाओं और सरकारी वैज्ञानिकों की भारी-भरकम फौज वाला संगठन सीएसआईआर करोड़ों के बजट को खर्च कर 5 साल में देश के लिए बस ‘ई-रिक्शा’ ही बना सका है. तो इससे देश में वैज्ञानिक अनुसंधान के नाम पर जो चल रहा है, उसका खुलासा होता है और ये वाकई गहरी चिंता का विषय है. देश में वैज्ञानिकों को रिसर्च प्रोजेक्ट्स के नाम पर लाखों-करोड़ों रुपये आवंटित करा दिए जाते हैं. इसके बाद ऐसी कोई एजेंसी नहीं है जो वैज्ञानिकों से उनके प्रोजेक्ट्स के बारे में जवाब-तलब करे और पैसों की निगरानी करे. 15 से 20 साल तक वैज्ञानिक प्रोजेक्ट्स चलते रहते हैं और साथ में कई सहायक परियोजनाएं भी शुरू हो जाती हैं, विदेश यात्राएं चलती रहती हैं और पैसा बर्बाद होता रहता है. अंत में कोई भी ठोस वैज्ञानिक खोज सामने नहीं आती. जरूरत इस बात की है कि देश में वैज्ञानिक प्रोजेक्ट के लिए एक नियामक एजेंसी बने, जिसमें शीर्ष वैज्ञानिक शामिल हों और जो ये तय करे कि प्रोजेक्ट्स तय समय सीमा में ही पूरे हों, शोध कर रहे वैज्ञानिकों जवाबदेही तय हो, एक तय समयसीमा में शोध पूरे हों और उन प्रोजेक्ट्स के नतीजों का फायदा केवल उस वैज्ञानिक या उसके परिवार को नहीं बल्कि पूरे देश के लोगों को मिले.
संदीप निगम

मंगलवार, 23 सितंबर 2014

भारत...अब मंगल की कक्षा में

भारत अब मंगल की कक्षा में पहुंच चुका है. देश ने सीमित संसाधनों में असाधारण उपलब्धि अर्जित की है. मंगलयान ने भारत को दुनिया के ऐसे पहले देश का गौरव दिला दिया है मंगल पर पहुंचने की जिसकी पहली ही कोशिश कामयाब रही है.
भारत के मंगल अभियान का निर्णायक चरण 24 सितंबर को सुबह यान को धीमा करने के साथ ही शुरू हो गया था. मंगलयान की गति धीमी करनी थी ताकि ये मंगल की कक्षा में गुरूत्वाकर्षण से खुद-बखुद खिंचा चला जाए और वहां स्थापित हो जाए.
मंगलयान से धरती तक डेटा पहुंचने में करीब 12:30 मिनट का समय लग रहा है. सुबह लगभग 8.00 बजे इसरो को मंगलयान से सिग्नल प्राप्त हुआ और ये सुनिश्चित हो पाया कि मंगलयान मंगल की कक्षा में स्थापित हो गया है.
मंगलयान का आकार लगभग एक नैनो कार जितना है, तथा संपूर्ण मार्स ऑरबिटर मिशन की लागत कुल 450 करोड़ रुपये या छह करोड़ 70 लाख अमेरिकी डॉलर रही है, जो एक रिकॉर्ड है. यह मिशन भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गेनाइज़ेशन या इसरो) ने 15 महीने के रिकॉर्ड समय में तैयार किया.

नासा का मैवेन पहले पहुंचा
भारत के पहले मंगलयान से 48 घंटे पहले नासा का 'मैवेन' ने मंगल की कक्षा में प्रवेश किया. 'मैवेन' लाल ग्रह यानी मंगल के वातावरण का अध्ययन करेगा. 'मैवेन' से मिलने वाले आँकड़ों से वैज्ञानिकों को मंगल के वर्तमान और अतीत के वातावरण की परिस्थितियों का बेहतर मॉडल विकसित करने में मदद मिलेगी.

मंगलयान के महानायक

के. राधाकृष्णन -
इसरो के चेयरमैन और स्पेस डिपार्टमेंट के सेक्रेट्री के पद पर कार्यरत हैं. इस मिशन का नेतृत्व इन्हीं के पास है और इसरो की हर एक एक्टिविटी की जिम्मेदारी इन्हीं के पास है.

एम. अन्नादुरई - इस मिशन के प्रोग्राम के डायरेक्टर के पद पर कार्यरत हैं. इन्होंने इसरो 1982 में ज्वाइन किया था और कई प्रोजेक्टों का नेतृत्व किया है. इनके पास बजट मैनेजमेंट, शैड्यूल और संसाधनों की जिम्मेदारी है. ये चंद्रयान-1 के प्रोजेक्ट डायरेक्ट भी रहे हैं.

एस. रामाकृष्णन - विक्रमसाराबाई स्पेस सेंटर के डायरेक्टर हैं और लॉन्च अथोरिजन बोर्ड के सदस्य हैं. उन्होंने 1972 में इसरो ज्वाइन किया था और और पीएसएलवी को बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.

एसके शिवकुमार - इसरो सैटेलाइट सेंटर के डायरेक्टर हैं. इन्होंने 1976 में इसरो ज्वाइन किया था और इनका कई भारतीय सैटेलाइट मिशनों में योगदान रहा है.

इनके अलावा पी. उन्नीकृष्णन, चंद्रराथन, एएस किरण कुमार, एमवाईएस प्रसाद, एस अरूणन, बी जयाकुमार, एमएस पन्नीरसेल्वम, वी केशव राजू, वी कोटेश्वर राव का भी इस मिशन में अहम योगदान रहा.

बुधवार, 30 अप्रैल 2014

जिंदगी का असली मजा खोज में है: प्रो. हॉकिंग


अमेरिका की कैलीफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी का दर्शकों से खचाखच भरा बेकमैन ऑडिटोरियम। कई मशहूर वैज्ञानिक, पीएचडी स्टूडेंट्स और रिसर्च स्कॉलर्स सीट के लिए मशक्कत कर रहे हैं। जितने लोग सीट्स पर बैठे हैं, उनसे ज्यादा किनारों पर खड़े नजर आ रहे हैं। जो लोग सीट्स नहीं पा सके उनमें मशहूर फिजिसिस्ट बिल नाई और यूनिवर्सिटी आफ कैलीफोर्निया लॉस एंजिल्स के प्रोफेसर एलन युइले भी हैं। ये गहमा-गहमी और इंतजार काफी खास है, क्योंकि ऑडिटोरियम की स्पॉटलाइट महान एस्ट्रोफिजिसिस्ट प्रो. डॉ. स्टीफन हॉकिंग पर है और आज वो साइंस के साथ अपनी शुरुआती जिंदगी और अपने जुनून से जुड़ी कई बातों को भी साझा करेंगे। ...पेश है वॉयेजर की खास प्रस्तुति-

अचानक हलचल बढ़ गई और सबकी निगाहों के साथ स्पॉट लाइट ऑडिटोरियम के दाईं ओर घूम गई, अपनी व्हीलचेयर को ऑपरेट करते हुए प्रो. हॉकिंग वहां से मंच पर प्रवेश कर रहे हैं...और इसी के साथ ऑडिटोरियम में खामोशी छा गई। टॉक की शुरुआत प्रो. हॉकिंग ने अपने चिर-परिचित मजाकिया अंदाज में की। ऑडिटोरियम के स्पीकर्स पर प्रो. हॉकिंग की सेंथेसाइजर आवाज गूंजी.....

... कैन यू हियर मी?....

" जिंदगी का असली मजा खोज में है, एक नई और ऐसी खोज जिसके बारे में लोग पहले से कुछ भी न जानते हों। इस खोज, इस तलाश की तुलना मैं सेक्स से नहीं कर सकता, लेकिन इसकी खुमारी, इसका आनंद कहीं ज्यादा देर तक बरकरार रहता है।"

(इसी के साथ ऑडिटोरियम में ठहाके गूंज उठते हैं)

"बीते 49 साल से मै हर दिन मौत की आशंका के बीच जी रहा हूं। मुझे मरने से डर नहीं लगता लेकिन मुझे मरने की ऐसी कोई खास जल्दी भी नहीं है। ऐसे कई काम हैं जो मैं पहले करना चाहता हूं। जब वक्त से पहले आपका सामना मृत्यु की संभावना से होता है, उस क्षण आपको इसका अहसास होता है कि जिंदगी वाकई जीने के लायक है, और ऐसी तमाम सारी चीजें हैं जो आप करना चाहते हैं।

मेरे हिसाब से दिमाग एक कंप्यूटर की तरह है, जो तब काम करना बंद कर देता है जब इसके दूसरे हिस्से खराब हो जाते हैं। टूटे और एकदम खराब हो चुके कंप्यूटर के लिए कोई दूसरी जिंदगी और स्वर्ग जैसी चीजें नहीं होतीं। स्वर्ग-नर्क और मौत के बाद दूसरी जिंदगी की बातें ऐसे लोगों की कल्पनाएं भर हैं, जिन्हें अंधेरों से डर लगता है। दर्शऩशास्त्र और आध्यात्म का अध्ययन समय की बरबादी से ज्यादा कुछ नहीं, क्योंकि क्योंकि इनकी ज्यादातर बातें प्रायोगिक साक्ष्यों और आधुनिक विज्ञान के खिलाफ हैं।

बचपन में मेरा क्लासवर्क अशुद्धियों से भरा बेतरतीब होता था और मेरी हैंडराइटिंग तो मेरे शिक्षकों को निराशा से भर देती थी। लेकिन लड़कपन के मेरे दोस्तों ने मेरा नाम आइंस्टीन रख दिया था, मुझे तो पता नहीं, लेकिन शायद उन्हें मुझमें ऐसे कोई बेहतर लक्षण नजर आते होंगे। जब मैं 12 साल का था तब मेरे एक दोस्त ने दूसरे दोस्त के साथ ये कहते हुए चॉकलेट के एक पैकेट की बाजी लगाई थी कि देखना ये नालायक का नालायक ही रहेगा।

जब मैं ऑक्सफोर्ड आया तो दाखिले से पहले मुझे एक एक्जाम और देना पड़ा, इस परीक्षा का नतीजा ये रहा कि अगले तीन साल मुझे ऑक्सफोर्ड में बिताने पड़े, जिसका अंत एक और एक्जाम के साथ हुआ। मैंने एक बार गणित लगाया तो पता चला कि ऑक्सफोर्ड में तीन साल के दौरान मैंने एक हजार घंटे का काम किया। लेकिन औसतन ये बस रोजाना एक घंटे ही था, इसलिए मैं किसी शाबासी का दावा नहीं कर सकता था।

हमेशा एक छात्र बने रहना और कभी हिम्मत न हारना हमें आगे की ओर ले जाता है। याद रखिए, सितारों से भरे आसमान को देखिए और कभी घुटने मत टेकिए। आप जो देखते हैं महसूस करते हैं उसमें छिपे तार्किक अर्थ खोजिए। जिंदगी के हालात मुश्किल भी हो सकते हैं, लेकिन सबसे निराशाजनक परिस्थितियों में भी आपके लिए बहुत कुछ नया और अलग करने की गुंजाइश हमेशा छिपी रहती है। सफलता बस केवल एक ही बात पर निर्भर करती है और वो ये कि कभी हिम्मत मत हारिए।

हम सभी काफी भाग्यशाली हैं कि हम वक्त के ऐसे दौर में हैं जब थ्योरेटिकल फिजिक्स में नई-नई खोजें सामने आ रही हैं। बीते 40 साल के दौरान ब्रह्मांड के बारे में हमारी जानकारी में बहुत ज्यादा बदलाव आया है और ब्रह्मांड को लेकर हमारी समझ पूरी तरह बदल चुकी है और मुझे खुशी है कि इसमें मैं भी थोड़ा सा योगदान दे सका। हम मानव, जो कि प्रकृति के आधारभूत कणों के एक समूह मात्र हैं, उन नियमों को समझ सके जो हर पल हमपर और इस ब्रह्मांड पर असर डाल रहे हैं, ये सच्चाई पूरी मानव जाति के लिए एक बहुत महान जीत है।   

– संदीप निगम
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COMING SOON

डॉ. स्टीफन हॉकिंग का मशहूर व्याख्यान

 Life in the Universe

 पढ़िए हिंदी में

सोमवार, 21 अप्रैल 2014

स्पेस हॉरर 01: जब स्पेस वॉक के दौरान अंतरिक्षयात्रियों को नजर आना ही बंद हो गया!

‘वॉयेजर’ के पाठकों के लिए हम ‘स्पेस हॉरर’ के नाम से एक नई सीरीज शुरू कर रहे हैं. इस सीरीज में हम पाठकों को अंतरिक्ष अभियानों के दौरान घटे ऐसे हादसों की जानकारी देंगे, जब अंतरिक्षयात्रियों की जान खतरे में आ गई थी.
“कोई भी मुसीबत इतनी खराब नहीं होती, कि आप उसे और भी बदतर न बना सकें,” किसी शुरुआती अंतरिक्षयात्री की कही ये एक मशहूर कहावत है. इस कहावत को ध्यान में रखते हुए कल्पना कीजिए कि आप एक अंतरिक्षयात्री हैं जो स्पेसवॉक करके इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन के बाहर कुछ मरम्मत का काम कर रहे हैं. तभी अचानक आपको कुछ भी नजर आना बंद हो जाए, आंखें खुली हैं लेकिन आप कुछ भी देख नहीं पा रहे हैं, आप अंधे हो गए ! टोटल ब्लाइंड ! आप धरती से करीब 400 किलोमीटर ऊपर खुले अंतरिक्ष में फंसे हैं जहां स्पेससूट के अलावा आपकी और कोई सुरक्षा नहीं है. ऐसे में अब आप क्या करेंगे ? आपकी प्रतिक्रिया क्या होगी ?
कनाडा के रिटायर्ड अंतरिक्षयात्री और कुशल वक्ता क्रिस हैडफील्ड, जो इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन के एक्सपीडिशन 35 के कमांडर भी थे, ने 2001 में ऐसे ही गंभीर हालात का सामना किया था. हैडफील्ड बताते हैं कि ऐसे हालात में नॉलेज, प्रैक्टिस और अंडरस्टैंडिंग ही डर का मुकाबला करने के लिए सबसे बेहतरीन हथियार साबित होते हैं. इस संबंध में दिए एक व्याख्यान में उन्होंने बताया कि जिस तरह एक मकड़ी अपने ही बुने जाल पर सावधानी से चलकर खुद को फंसने से बचाते हुए शिकार करने में कामयाब रहती है, ऐसी ही सतर्कता को अपनाकर हम अंतरिक्ष में कई खतरों का आसानी से मुकाबला कर सकते हैं. 
हैडफील्ड ने कहा, “तो अगर आप इन मकड़ियों से डरते हैं और सोंचते हैं कि ये आपको काट लेंगी और इनके जहर से आपकी मौत हो जाएगी तो आप कभी इनका सामना नहीं कर सकेंगे. मकड़ियों से घबराइए मत, इनसे सीखिए. इसी तरह अंतरिक्ष में कोई गंभीर खतरा सामने आने पर अगर आप उससे डरकर दूर भागेंगे और अपनी जान बचाने की तरकीब ढूंढेंगे तो समस्या का समाधान कभी नहीं कर सकेंगे. ध्यान रखिए हर समाधान हमेशा अपनी समस्या में ही छिपा रहता है. बस जरूरत इस बात की होती है कि बिना होश गंवाए आप उसे खोज निकालें. स्पेस शटल की पहली 5 उड़ानों के वक्त किसी अनहोनी के घटने की संभावना हमेशा 9 में से 1 रहती थी. जब 1995 में मैं पहली बार अंतरिक्ष गया और स्पेस स्टेशऩ मीर पहुंचा तो उस वक्त किसी हादसे के घटने की संभावना 38 में से 1 की थी. ”  
क्रिस हैडफील्ड ने व्याख्यान में अपने साथ अंतरिक्ष में पेश आए उस हादसे के बारे में भी बताया जब उनकी जान पर बन आई थी. 2001 में स्पेस शटल मिशन STS-100 के अंतरिक्षयात्रियों में कनाडा के क्रिस हैडफील्ड भी शामिल थे. हैडफील्ड मिशन के दौरान स्पेस शटल से बाहर स्पेसवॉक कर रहे थे तभी अचानक उनके हेलमेट में कोई चीज भर गई और उन्हें बाहर कुछ भी दिखाई देना बंद हो गया था. हैडफील्ड स्पेस शटल से बाहर थे और तभी अचानक उन्हें बाहर के नजारे दिखाई देने बंद हो गए. हेलमेट की पूरी स्क्रीन पर कोई तरल पदार्थ बिल्कुल पेंट की तरह फैल गया था. बिल्कुल अंधे से हो गए हैडफील्ड ने धीरज नहीं खोया और अपनी घबराहट को काबू में रखा. उन्होंने सबसे पहले स्पेस शटल के साथियों को जानकारी दी और फिर ह्यूस्टन कंट्रोल रूम को बताया कि वो स्पेस शटल से बाहर हैं और खुले अंतरिक्ष में उनकी स्थिति बिल्कुल किसी अंधे के जैसी हो गई है. कोई कुछ समझ पाता और हैडफील्ड को कोई समाधान मिल पाता इससे पहले हैडफील्ड ने खुद को स्पेस शटल से जोड़ने वाले केबल टेथर को टटोला और उसे पकड़-पकड़ कर वो सुरक्षित स्पेस शटल के भीतर आने में कामयाब रहे.
कनाडा के अंतरिक्षयात्री क्रिस हैडफील्ड के साथ घटी इस दुर्घटना के कुछ महीने बाद इटली के एक अंतरिक्षयात्री के साथ भी ऐसा ही हादसा घट गया. इटली का वो अंतरिक्षयात्री भी स्पेसवॉक कर रहा था, कि तभी ऑक्सीजन उपकरण में खराबी के चलते उसके नासा स्पेससूट में पानी भर गया था. पानी अंतरिक्षयात्री के हेलमेट में भी भरने लगा था और उस अंतरिक्षयात्री की जान पर बन आई थी.
अंतरिक्ष अभियानों में घटी हर दुर्घटना सुरक्षा के कुछ नए तरीकों को जन्म देती है. हैडफील्ड और इटली के अंतरिक्षयात्री के साथ स्पेस वॉक के दौरान पेश आए हादसों की विस्तार से जांच की गई. स्पेस सूट और ऑक्सीजन उपकरणों मे नए सुधार किए गए. इन हादसों ने स्पेस वॉक को अब और भी ज्यादा सुरक्षित बना दिया.

रविवार, 20 अप्रैल 2014

मानव को ब्रह्मांड से उसके रिश्ते की याद दिलाती है ये ‘धूल’!

 गर्मी का मौसम दस्तक दे रहा है. इसी के साथ हम गर्मियों में उड़ने वाली धूल-धक्कड़ से भरी आंधियों को सोंच-सोंचकर अभी से परेशान हो रहे हैं. मशहूर कहावत है, ‘इंडिया यानि हीट एंड डस्ट.’ धूल से घबराएं नहीं, इसे मामूली और जी का जंजाल मत समझें. आइए एक मुठ्ठी धूल उठाइए. क्या आप जानते हैं, कि इसमें क्या है? ये धूल कैसे बनी है? कहां बनी है? और आप तक कैसे पहुंची?

भारतीय संस्कृति में मानव देह को मिट्टी माना गया है. कबीर जैसे कई दार्शनिक कवियों ने अंत में धूल में मिल जाने की बातें भी कहीं हैं. क्या हम वाकई धूल से आए हैं? और हमें वापस एक दिन इसी धूल में खोकर बिखर जाना है? ये सवाल दार्शनिक-आध्यात्मिक होने के साथ-साथ वैज्ञानिक भी है.

वैज्ञानिकों को पहली बार सुदूर अंतरिक्ष में एक सुपरनोवा के अवशेषों में धूल की मौजूदगी के प्रमाण मिले हैं. सुपरनोवा में मौजूद धूल और आपके कदमों के नीचे की धूल में जैविक पदार्थों को छोड़ कोई और फर्क नहीं है.
इस सुपरनोवा के ऑब्जरेशन से एक पुराने सवाल का जवाब भी मिला है कि आखिर सितारों, ग्रहों और हम लोगों को बनाने के लिए जरूरी ‘रॉ मैटीरियल’ या कच्चा माल आखिर बनता कहां है?

एस्ट्रोनॉमी में ये सबसे लोकप्रिय और मजेदार तथ्य है, जिसे 1980 में कॉस्मस के लेखक कार्ल सगान से लेकर सभी प्रमुख एस्ट्रोनॉमर बार-बार दोहराते रहे हैं, कि हमारे शरीर, जिस हवा में हम सांस लेते हैं और हमारे पैरों के नीचे मौजूद जमीन में मौजूद ज्यादातर तत्वों (पानी यानि  H2O में मौजूद हाइड्रोजन को छोड़कर सबकुछ) का निर्माण सितारों की भट्ठी में हुआ है.  

पहले सितारे के जन्म लेने से पहले तक इस ब्रह्मांड में ज्यादा हाइड्रोजन ही था. कुछ मात्रा हीलियम और चुटकीभर लीथियम भी मौजूद था. ऑक्सीजन, कार्बन, नाइट्रोजन, सिलिकॉन और लोहा समेत सभी दूसरे तत्व उस थर्मोन्यूक्लियर रिएक्शन से बने हल्के परमाणुओं से अस्तित्व में आए जिससे सूरज और इसके अरबों भाइयों को ऊर्जा मिलती है. जैसे ही पहले सितारे की मौत हुई, ये सारे तत्व उस सितारे से फूटी स्ट्रीम के साथ चारों ओर बिखर गए.

ये सब पढ़कर ऐसा लगता है कि जैसे ये घटना बहुत पहले और अंतरिक्ष के किसी दूर-दराज के कोने में घटी होगी और इससे उन तत्वों का निर्माण हुआ होगा, जिन्होंने हमें बनाया. लेकिन चौंकाने वाला तथ्य ये है कि ये प्रक्रिया अब तक जारी है. उत्तरी चिली के हाई एटाकामा रेगिस्तान में मौजूद एटाकामा लार्ज मिलीमीटर –सब मिलीमीटर एरे टेलिस्कोप (अल्मा) के मल्टीपल एंटीना के इस्तेमाल से एस्ट्रोनॉमर्स ने ठंडी धूल के उस बादल को खोज निकाला है जिसका निर्माण एक सितारे की मौत से फूटे महासुपरनोवा से हुआ है. धूल का ये घना बादल हमारी आकाशगंगा मिल्की-वे से ठीक ऊपर मौजूद एक दूसरी आकाशगंगा के लार्ज मैगेलैनिक क्लाउड में मौजूद है.

इस कॉस्मिक विस्फोट के अवशेष को सबसे पहले 1987 में देखा गया था. आमतौर पर सितारों के मौत की घटना सुपरनोवा नंगी आंखों से नजर नहीं आती, इन्हें किसी ऑब्जरवेटरी के विशाल टेलिस्कोप्स से ही देखा जा सकता है. लेकिन एस्ट्रोनॉमी के इतिहास में 1604 की वो घटना बड़ी मशहूर है, जब सुदूर अंतरिक्ष में हुए एक सुपरनोवा धमाके को यहां धरती से नंगी आंखों से देखा गया था. इस घटना को बिना किसी उपकरण (तब तक टेलिस्कोप बना ही नहीं था) अपनी आंखों से देखने वाले शख्स थे  जोहान्स कैपलर, जिन्होंने 1604 में इस सुपरनोवा को नंगी आंखों से देखा था. ये सुपरनोवा इतना ताकतवर था कि इसकी रोशनी एक दशक तक धरती से नजर आती रही थी. लेकिन दुर्भाग्यवश, गैलीलियो अपना पहला टेलिस्कोप बनाते इससे पहले ही ये नजर आना बंद हो गया.

1987 में एस्ट्रोनॉ़मर्स ने हर उपलब्ध टेलिस्कोप का मुंह अंतरिक्ष में मरते हुए सितारों की ओर मोड़ दिया. इस अद्भुत प्रयोग से एस्ट्रोनॉमर्स सुपरनोवा की घटना को पहली बार देखने में कामयाब रहे. सुपरनोवा के इनीशियल फ्लैश के बाद जबरदस्त धमाके से फूटे शॉक वेव के साथ एक छल्ले की शक्ल में अंतरिक्ष में बिखरते उस मृत सितारे के तत्वों को पहली बार रिकार्ड किया गया. सुपरनोवा धमाके से फूटी ऊर्जा ने तेज रोशनी का एक छल्ला सा बना दिया.  

और अब चिली के टेलिस्कोप अल्मा से एस्ट्रोनॉमर्स ने सुपरनोवा के उस चमकीले छल्ले में ‘धूल’ खोज निकाली है. ये धूल उस मृत सितारे के अन्य तत्वों के साथ सघन होती जा रही है. घने होते जा रहे सुपरनोवा के इस बादल में कार्बन मोनो ऑक्साइड और सिलिकॉन ऑक्साइड जैसे तत्व हैं. आहिस्ता-आहिस्ता ये धूल गैस के इन बादलों में घुलमिल जाएगी. और किसी दिन, सघन होने की इस प्रक्रिया के चलते शायद कुछ लाख साल या फिर कुछ अरब साल बाद घूल और गैस का ये बादल घना होते-होते किसी नए सितारे या नए ग्रह या फिर किसी नए प्राणी को जन्म दे देंगे.

यूनिवर्सिटी कॉलेज आफ लंदन के एस्ट्रोनॉमर मिकाको मात्सुएरा बताते हैं, “ हरेक आकाशगंगा धूल-धक्कड़ से भरी पड़ी है. किसी आकाशगंगा के इवोल्यूशन में ये धूल ही सबसे अहम भूमिका निभाती है. आज हम जानते हैं कि इस धूल को धरती पर कई तरीकों से बनाया जा सकता है. लेकिन शुरुआती ब्रह्मांड में इस धूल को पैदा करने वाली बस एक ही चीज थी – सुपरनोवा. अब हमें इस सिद्धांत को साबित करने के लिए डाइरेक्ट एविडेंस भी मिल चुके हैं.”

धरती पर हर दिन 3 से लेकर 500 मीट्रिक टन तक धूल की अंतरिक्ष से बारिश होती रहती है. आसमान से हम पर बरसने वाली ये धूल वही है, जिसका निर्माण सुदूर सितारों की सुपरनोवा भट्ठी में होता है. आइए एक मुट्ठी धूल उठाएं. अब आप इसे मामूली नहीं समझ सकते, क्योंकि इसका निर्माण जाने कितने प्रकाशवर्ष दूर किसी सितारे की भट्ठी में हुआ है. आपकी एक मुट्ठी धूल में कई सूक्ष्म उल्का और धूमकेतु के कण भी मौजूद हैं. ये एक मुट्ठी धूल धरती पर मौजूद सबसे कीमती चीज से भी कई गुना कीमती है. ये धूल मानव को ब्रह्मांड से उसके रिश्ते की याद दिलाती है. ये धूल मामूली नहीं, बेशकीमती है. क्यों, है न !

संदीप निगम

... गुडबॉय गैबी!

मशहूर उपन्यासकार और नोबेल पुरस्कार से सम्मानित लेखक गैब्रियल गार्सिया मार्केज़ का 87 साल की उम्र में मैक्सिको में निधन हो गया . मार्क़ेज की गिनती स्पैनिश भाषा के महान लेखकों में होती है. उनके कालजयी उपन्यास 'वन हन्ड्रेड ईयर्स ऑफ़ सॉलीट्यूड' के जादुई यथार्थवाद ने लोगों को अपना मुरीद बना दिया था. स्वतंत्र लोकतांत्रिक मूल्यों और सबसे निचले तबके को इंसाफ दिलाने के संघर्ष के साथ मार्केज़ रोजमर्रा की जिंदगी के छोटे-बड़े विरोधाभासों के बीच आम आदमी की कहानी कहते थे. इन मूल्यों के बगैर किसी भी समाज में कला और रचनात्मक विज्ञान का विकास संभव नहीं. अपने पाठकों के लिए 'वॉयेजर' साभार पेश करता है बीबीसी हिंदी के संपादक निधीश त्यागी की लिखी एक श्रद्धांजलि.

'बहुत साल बाद, जब वे फ़ायरिंग स्क्वॉड के सामने खड़े थे, कर्नल ऑरेलिनो बुएंदिया को वह दोपहर याद आ रही थी, जब उनके पिता उन्हें बर्फ़ दिखलाने ले गए थे.'
'वन हंड्रेड इयर्स ऑफ़ सॉलिट्यूड' का ये पहला वाक्य है. एक वाक्य में सौ साल हैं, बारूद की आने वाली गंध है, जो मिट्टी और मृत्यु में मिलने वाली है और जन्म के कुछ सालों बाद का वह एक बच्चे का बर्फ़ को लेकर कौतुक, दोपहर में ठंड को महसूसने का रोमांच और पिता की उंगली पकड़ने का आश्वस्तिबोध है. एक कालपात्र में सब कुछ समेटे हुए. एक पल में सौ साल समेटने की क्रिया.

ढाई करोड़ प्रतियाँ बिकने वाला यह उपन्यास इसके आगे शुरू होता है. इस गतिशील क्रिया में. फैलता-सिकुड़ता-समेटता. देश और काल को, स्मृति और कल्पना को, तथ्य और उसकी उड़ान को. मार्केज़ के साथ वे वाक्य नहीं गए हैं. वे यहीं हैं. हमें उलट और पलट कर पढ़ते रहने के लिए. लेखक के चले जाने के बाद भी.

अवसान के समय सबसे पहले विशेषण हत्थे चढ़ते हैं. जैसे मार्केज़ के मरने पर नोबेल पुरस्कार, जादुई यथार्थवाद, उनकी बहुतेरी में से एक किताब वन हंड्रेड इयर्स ऑफ़ सॉलिट्यूड, कोलम्बिया, कैंसर, स्मृतिलोप... विशेषणों की फ़ेहरिस्त बढ़ती जाती है.

हर मृत्यु में हम अपना थोड़ा सा हिस्सा कम होते देखते हैं कुछ दिनों के लिए. पर गैब्रियल गार्सिया मार्केज़ उर्फ़ गैबो एक ऐसा नाम है, जिसके लिए ये सारे विशेषण छोटे पड़ते रहेंगे. उन क्रियाशील वाक्यों के मुक़ाबले जो उन्हें लिख गए, उनके बाद भी पढ़ें जाने के लिए.

उनकी अपनी ज़िंदगी है और अपना सफ़र. आप अगली बार जब मार्केज़ का लिखा कुछ पढ़ेंगे तो क्या वे अपनी रंग-छवि-अर्थ छोड़कर आपके भीतर कुलबुलाना या साँस लेना बंद कर देंगे?

मृत्यु के बरक्स जीवन एक क्रिया की तरह है. जितना जीवन मार्केज़ के वाक्यों में हैं, जितनी ऑक्सीजन आत्मा के लिए, जितनी शिद्दत, जुम्बिश, बदमाशियां एक क्रिया की तरह हमें, हमारे पढ़ने और पढ़ने के ज़रिए हमारे होने को घटित करती है और मुमकिन भी. चाहे वह मृत्यु के बारे हो या प्रेम की या फिर जंग और तानाशाहों की.

वे हमारे बुनियादी सरोकारों को ज़मीन बनाकर आसमान नापते हैं उसे इतनी अति तक ले जाते हुए जहाँ सच या वास्तविकता भले ही धुँध में घुलने लगती है, पर सत्य या ट्रुथ अपने असल अवतार में सामने आता है. जो हर पाठक का अपना है और शायद अलग भी.

हर अच्छे कथ्य की तरह मार्केज़ के वाक्य आपको पलट कर पढ़ते हैं, आपकी अपनी सहजता, आपके अपने निरस्त्र मनुष्य में. एक क्रिया में साँस लेता हुआ, आगे बढ़ता हुआ. उन भाषाओं में भी जो मार्केज़ की नहीं थी अपने हस्ताक्षर कथ्य के साथ.

कितने ही हिंदुस्तानियों के लिए पाब्लो नेरूदा प्यार की कविताओं में देश और दुनिया के बाक़ी कवियों के मुक़ाबले ज़्यादा सगे, अपने और दिल के क़रीब लगते हैं. लेटिन अमेरिका से हमारी ज़िंदगी में आया दूसरा सबसे महत्वपूर्ण नाम गैबरियल गार्सिया मार्केज़ का है.

अपने नोबेल पुरस्कार समारोह क्लिक करें भाषण की शुरूआत वे एंतोनियो पिगाफेटा नाम के नाविक की किताब का ज़िक्र से करते हैं. पिगाफेटा दुनिया का समुद्र के रास्ते चक्कर लगाने वाले मैगेलन का सहयोगी था. जब वे दक्षिण अमेरिकी हिस्सों में आए तो जो सबसे पहला इंसान दिखलाई दिया, उसके सामने इन यूरोपीय नाविकों ने आईना कर दिया. पिगाफेटा के मुताबिक़ वह इंसान अपनी की शक्ल देखने से आतंकित हो अपने होश खो बैठा.

मार्केज़ का लिखा भी एक आईना है, जिसमें दुनिया ख़ुद को देखती है. अपनी असामान्यताओं के साथ, क्रूरताओं के साथ, किम्वंदतियों के साथ और आश्चर्य के साथ.

एक क्लिक करें इंटरव्यू में वे कहते हैं कि लोग भले ही उनके काम को जादुई यथार्थवाद के नाम पर फंतासियों की तरह देखते हैं, पर उन्होंने एक भी वाक्य ऐसा नहीं लिखा, जिसमें उनकी अपनी हक़ीकत का अंश न हो. कहीं बारिश महीनों से रुकने का नाम नहीं ले रही, कहीं गाँव का गाँव अपनी याददाश्त खो चुका है, कहीं अनिद्रा का शिकार.

इन असामान्य और छोटे सचों का विस्तार अपनी पेचीदगियाँ लेकर आता है, जो दूसरी असामान्यताओं को उधेड़ता है. मार्केज़ के लिखे ये छोटे-छोटे सच संसार के पार जाकर हमसे पहचान बढ़ाते हैं, हमें मुस्कुराने और चकित होने और मायूस होने पर मजबूर करते हैं.

उनका कहना भी था कि वे किसी साहित्य और आलोचक और अनजाने लोगों को ध्यान में रखकर नहीं लिखते. वे सिर्फ़ इसलिए लिखते हैं कि उनके दोस्त उनसे और ज़्यादा मुहब्बत करें. इसीलिए उनका जो लिखा है वह सिर पर रखे नहीं, दिल पर रखे बोझ की तरह है, जो एक इंसान दूसरे से क़िस्सागोई की सहजता से साझा कर हल्का हो जाना चाहता है. मनुष्य होने की तमाम कमज़ोरियों के साथ बेझिझक अंदाज से शब्दचित्र बनाते हुए.

पत्रकारिता और साहित्य के बीच के रिश्ते के बारे में वह क्लिक करें यहाँ बताते हैं कि साहित्य के लिए ज़मीनी सच से जुड़े रहना ज़रूरी है, जो पत्रकारिता मुमकिन करवाती है. लेटिन अमेरिकी पत्रकारिता में वे पुरानी घटनाओं को पुनर्संयोजित कर बहुत ही प्रभावी तरीक़े से पेश करने वाले सबसे माहिर लोगों में जाने जाते थे. लेटिन अमेरिका में इसे रेफ्रितो (फिर से छौंकी हुई) स्टाइल की पत्रकारिता कहते हैं.

जहाज़ दुर्घटना में बच गये नाविक की ऋंखलाबद्ध कहानी न सिर्फ़ इसकी एक बड़ी मिसाल है, बल्कि बाद में किताब 'द स्टोरी ऑफ़ ए शिपरैक्ड सेलर' भी बनकर आई. वेलकोस नाम का ये नाविक दस दिन तक समुद्र में डूबता-उतराता रहा था, जिसका मार्केज़ ने लगातार पाँच दिन छह-छह घंटे इंटरव्यू किया और उसी के शब्दों में आपबीती की तरह रिपोर्ट लिखी.

वे ये भी कहते हैं कि जहाँ एक ग़लत तथ्य पत्रकारिता की विश्वसनीयता दाँव पर लगा देता है, वहीं एक अकेला सच साहित्य को खड़े होने की ज़मीन देता है. मार्केज़ के मुताबिक़ अगर आप लोगों से ये कहें कि हाथी आसमान में उड़ रहे थे, तो कोई आपपर भरोसा नहीं करेगा. पर अगर आप ये कहें कि आसमान में चार सौ पच्चीस हाथी उड़ रहे हैं, तो लोग शायद आपकी बात मान लें.

यह मिसाल देने वाले न तो लेखक आसानी से मिलेंगे और न ही पत्रकार. पर मार्केज़ गप मारने से ज़्यादा ज़ोर उस विस्तार पर दे रहे हैं, जो उनके रिपोर्ताज में भी दिखता है. 'न्यूज़ ऑफ़ ए किडनैपिंग' एक अपहरण की घटना के ज़रिए एक देश, समय, राजनीति, सत्ता, ड्रग लॉर्ड पाब्लो एस्कोबार पर लिखी गई किताब है, उस सच के जो दिहाड़ी पत्रकारिता के टुकड़ा-टुकड़ा सच में अक्सर ठीक से दर्ज नहीं होता.

'लव इन द टाइम ऑफ कोलेरा' उनकी दूसरी सबसे लोकप्रिय किताब है. शायद प्यार पर लिखा गया दुनिया का सबसे सुंदर उपन्यास भी. मार्केज़ के वाक्य अगर भारत और लेटिन अमेरिका से दूर दुनिया की दूसरी जगहों पर अपना जादू दिखलाते रहते हैं, तो यही उनका हासिल है. उनके लिखे वाक्य अपनी ज़मीन और अपने वक़्त से बाहर जाकर किसी और समय किसी और जगह के लोगों को पढ़ सकते हैं, लिख सकते हैं और बहुत बार बदल भी सकते हैं.

इसके प्रकाशन के समय दिए गए क्लिक करें इंटरव्यू में वे बताते हैं कि कैसे देर रात तक फिदेल कास्त्रो के साथ मछली मारने के बाद उन्होंने ड्रैकुला किताब कास्त्रो के तोहफ़े के बतौर दी. सुबह नाश्ते की मेज पर कास्त्रो की आंखें सूजी हुई थीं. मार्केज़ के आते ही कास्त्रो ने ड्रैकुला के लिए भद्दी सी गाली निकाली.

कास्त्रो के साथ उनकी दोस्ती के बारे में उनका कहना था, जिस दिन मैं उसे क्यूबा पर कैसे राज करूं बताने लगूंगा, वह मुझे बताने लगेगा कि ढंग का उपन्यास कैसे लिखा जाता है. कास्त्रो से दोस्ती का एक नतीजा मार्केज़ ने ये भी भोगा कि अमरीका ने लम्बे समय तक उनके आने में अड़ंगा लगा कर रखा.

मार्केज़ की किताबें सबसे ज़्यादा अमरीका में छपीं और सबसे ज़्यादा पढ़ी गईं. और इस इंटरव्यू में वे बताते हैं कि कैसे अमरीकी काउंसलेट के दफ़्तरों के बाबू उनकी किताबों के फैन निकलते हैं, उनके ऑटोग्राफ़ चाहते हैं और फिर वीसा का आवेदन ख़ारिज कर देते हैं. बक़ौल उनके 'मुझे न्यूयॉर्क जाकर किताबें और सीडी ही खरीदनी होती हैं, कोई भाषण नहीं देने होते.'
एक सहज व्यक्ति ही अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन से मार्थाज विनयार्ड्स में एक लम्बी साहित्यिक मुलाक़ात के दौरान आधी रात के बाद यह कह सकता है, 'अगर फिदेल और तुम आमने-सामने बैठकर बात कर सको, तो सारी दिक़्क़तें ही दूर हो जाएंगी.' उन्होंने बिल क्लिंटन से अपने क्लिक करें इस लेख में मोनिका लेविंस्की वाले मामले में सहानुभूति भी जताई.

इसके पहले क्लिंटन ने अपने चुनाव अभियान में मार्केज़ का मुरीद होने की बात कही और क्यूबा के पूर्व राष्ट्रपति कास्त्रो का तो ऐतिहासिक बयान है-'अगर दुबारा जन्म लेना पड़ा तो मैं गैबो की ज़िदगी जीना चाहूंगा.'

मार्केज़ के मरने से उनके लिखे का जादू और अतियथार्थ दोनों न कम होंगे और न गायब. वे क्रियाशील रहेंगे. लिखे जाने की क्रिया के बाद. पढ़े जाने की क्रिया में. और उन वाक्यों को पढ़ना हर किसी का व्यक्तिगत होगा.

मार्केज़ का लिखा वैसी ही कोई क्रिया है उन विशेषणों से बाहर और उनके आरपार, दुनिया जिन शब्दों की बैसाखी लेकर उनके जाने का स्यापा करने और गड्डमड्ड श्रद्धांजलि देने की कोशिश कर रही है. जिसकी बहुत जरूरत नहीं है.

शायद उनकी ही कोई किताब फिर से उठा कर पढ़ने की ज़रूरत है. ये वाक्य कैसे लिखा. क्या सोचा होगा. उन वाक्यों की गतिशील क्रिया का हिस्सा बनते हुए. उन्हीं के शब्दों में सच के लिए 'लोग सरकारों से ज़्यादा यक़ीन लेखकों पर करते हैं'.
साभार : बीबीसी हिंदी

शुक्रवार, 14 मार्च 2014

आज होली है, यारो!

 होली के अवसर पर दिल्ली के वरिष्ठ एस्ट्रोनॉमर और मेरे शिक्षक बलदेव राज दावर जी ने एक अद्भुत कविता रची है. ये कविता मानव और प्रकृति के संबंधों की कहानी है, ये कविता बंदर से मानव और मानव के महामानव बन जाने तक की विकासवाद की अदभुत झांकी भी है. होली के मौके पर सभी पाठक गणों को शुभकामनाओं के साथ वॉयेजर की छोटी सी भेंट - 

आज होली है, यारो!
आओ, अपने सारे कपड़े उतारो
और खड़े हो जाओ
एक विशाल और सपाट दर्पण के सामने;
और निहारो सिर से पैर तक
अपने नंगे और निहत्थे रूप को।
और ईर्षा करो बंदर से
जिसे अपनी शर्म ढकने के लिए चड्डी की जरूरत नहीं।
ईर्षा करो हिरन से
जिसके पास तन ढकने के लिए रेशमी रोमावली है - 
अंग-अंग पर मखमली शालाएं है।

और किस-किस से ईर्षा करोगे, यारो?
न तुम हाथी जैसे विशाल हो, न शेर जैसे शूरवीर
न लोमड़ी-से होशियार, न मोर-से मनोहर।
हंस की उड़ान, मधुमक्खी की सामाजिकता,
भौंरे की भावुकता और चींटी की साक्षरता
प्रकृति ने बेचारे मनुष्य को नहीं दी।

ढक लो, ढ़क लो, अपने भौंडे शरीर को।
छुपा के रखो अपनी कमज़ोरियां, लाचारियाँ।
तुम्हारी शक्ति केवल औज़ारों की शक्ति है।
केवल औजारों की बदौलत ही
आज तुम पैदल नहीं, निहत्थे नहीं, नंगे नहीं। 
तुम्हारे पास अस्त्र हैं, शस्त्र हैं, अद्भुत टेक्नोलॉजी है। 

तुम्हारे पैरों में पहिये हैं, आँखों पर ऐनक है,
गोदी में कंप्यूटर है, कानों पर मोबाइल है,
ज़ुबान पर माइक और उँगलियों में रिमोट। 
इशारों ही इशारों में, इस कठपुतली दुनिया को,
मन चाहे नाच नचा रहे हो।

तुम्हारे बनाये हुए हज़ारों नकली चाँद
पृथ्वी के आकाश में विचर रहे हैं।
तुम्हारे भेजे हुए छह पहियों वाले रोबोट
पड़ोसी ग्रहों पर चल-फिर रहे हैं।
अंतरिक्ष में ठहराई हुई तुम्हारी दूरबीनें
ब्रह्माण्ड के कोने-कोने की खोज-बीन कर रही हैं।

प्रकाश की गति से चलने वाले यंत्रों पर तुम सवार हो
पलक झपकने में तुम यहाँ भी हो, वहाँ भी हो,
मानो,एक साथ सब जगह विद्यमान हो।
पिछली दो-तीन सदियों में,
यह दुनिया नयी एक दुनिया हो गई है।
और तुम इस दुनिया के खुदा हो। 
तुम्हें सलाम।
शत-शत प्रणाम तुम्हारे औज़ारों को। 

- बलदेव राज दवार, होली,2014

रविवार, 9 मार्च 2014

राधाकृष्णन: रॉकेट के जरिए रोटी देता है इसरो


हमें पहले क्या करना चाहिए? रोटी जरूरी है या चांद पर जाना? इस मुद्दे पर इसरो चीफ के राधाकृष्णन ने इंडिया टुडे कॉन्क्लेव में अपने विचार रखे. राधाकृष्णन ने कहा, 'हम गलत अवधारणा में हैं कि इसरो का काम सिर्फ रॉकेट उड़ाना है. बल्कि हम जो काम करते हैं वो सीधे या फिर परोक्ष तौर पर देश की सरकार और जनता के हित में काम आता है. इसरो द्वारा भेजा गया रॉकेट और सेटेलाइट लोगों को रोटी देने का काम भी करता है. किसी किसान या फिर मछुआरे से पूछिए.'

Rockets vs Rotis सत्र में बोलते हुए इसरो के चीफ के राधाकृष्णन ने कहा, 'वैज्ञानिक समझ को बढ़ाने के साथ तकनीकी बेहतरी पर इसरो ने बहुत कुछ किया है. मिशन टू मून हो या मिशन टू मार्स, इसरो ने सिर्फ ये दो काम ही नहीं किए. हमने स्ट्रेटजिक मूवमेंट में भी अहम भूमिका निभाई है.' उन्होंने आगे कहा, '1960 से आज तक यही पूछा जाता है कि भारत जैसे गरीब देश को स्पेस में एयरक्राफ्ट भेजना चाहिए या नहीं? हर प्रोजेक्ट के साथ यही सवाल उठता है. ये सवाल उठते रहेंगे. पर मैं भी एक सवाल पूछना चाहता हूं कि क्या भारत जैसे देश को स्पेस साइंस में इनवेस्ट नहीं करना चाहिए, जो सुपरपावर बनना चाहता है?'

राधाकृष्णन ने कहा, 'इसरो में ये सवाल हमलोग हर दिन खुद से पूछते हैं. हम इस बारे में सोचते हैं कि हम जो कर रहे हैं इससे जनता को, सरकार को फायदा होता है या नहीं. इसरो का काम सिर्फ रॉकेट उड़ाना नहीं है. 24 सेटेलाइट हैं अंतरिक्ष में हमारे. बड़ा कम्यूनिकेशन इनफ्रास्ट्रक्चर बनाया है हमने. करीबन 200 ट्रांसपॉन्डर हैं जिनके जरिए मछुआरों की मदद हो रही है. उन्हें समुद्र में किस जगह पर ज्यादा मछली मिलेगी, इसकी जानकारी उपलब्ध कराते हैं हम.

फसलों से बेहतर उपज, तूफान की जानकारी, इस तरह की अहम जानकारियां जुटाने में हमारे सेटेलाइट काम में आ रहे हैं. तूफान फेलिन की जानकारी इनसेट सेटेलाइट से मिली. करीब 400 से ज्यादा तस्वीरें हमें मिलीं जिसके जरिए हजारों जानें बचाई जा सकीं. हमारे पास रॉकेट होने चाहिए क्योंकि सेटेलाइट को अंतरिक्ष में भेजना है. भूख मिटाना जरूरी है पर स्पेस साइंस को नजरअंदाज नहीं कर सकते. आखिरकार ये भी तो रोटी देने में मदद करता है.'